नरेंद्र मोदी को बेदखल करना है तो कांग्रेस को इस बार देश भर में समान विचारधारा वाले राजनीतिक दलों का साथ लेना-देना पड़ेगा। उसे राहुल गांधी के प्रधानमंत्री पद की देगची को भी फ़िलहाल कम आंच वाले पिछले चूल्हे पर चुपचाप खदकने के लिए छोड़ना पड़ेगा। सवाल आज का है, इसलिए राज-धर्म का यह पालन कांग्रेस का कर्तव्य है। लेकिन कल की राजनीति देखें तो कांग्रेस अपने सिर पर दुधारी तलवार लटका रही है। यह तलवार मोदी और अमित शाह की भारतीय जनता पार्टी के थुलथुल होते जा रहे शरीर को कतर देगी। मगर क्या वह अब से पांच बरस बाद के कांग्रेसी-जिस्म की सेहत पर भी बुरा असर डालने से बाज आएगी?
सो, बावजूद इसके कि मैं मानता हूं कि नमोरोगियों की सियासत से हमारे मुल्क़ को मुक्ति दिलाने के लिए कांग्रेस को अभी सब-कुछ करना चाहिए; मुझे यह बात भी साल रही है कि भारत के वर्तमान के लिए कांग्रेस को अपना भविष्य दांव पर लगाना पड़ रहा है। महागठबंधन की यह राजनीति अगर सिर्फ़ लोकसभा चुनाव के लिए होती तो बात अलग थी। मगर इसकी शुरुआत मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में दिसंबर के चुनावों से होनी है। अब तक इन में से किसी भी प्रदेश में कांग्रेस और भाजपा से इतर किसी तीसरी राजनीतिक शक्ति का क़ायदे से कोई आधार नहीं है। इस बार के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस का समान विचार वाले दलों से होने वाला तालमेल पहली बार भले न हो, मगर पहली बार उसकी संरचना ऐसी होगी, जिससे कांग्रेसी-दस्तरखान पर वे ताक़तें बाक़ायदा आ कर बैठेंगी, जो आगे चल कर कांग्रेस के थनों का ज़्यादा-से-ज़्यादा दूध अपने बर्तनों में दुहेंगी।
पहले ऐसा नहीं था, मगर अब भारत दो विचार-धुरियों का देश बन गया है। एक विचार है समावेशिता का। दूसरा विचार है बहिष्करण का। एक विचार है सामुदायिक एकात्मकता का। दूसरा विचार है सामुदायिक विभाजन का। अभी कई बरस दो पालों में बंटी इस सियासत की खाई पटने के कोई लक्षण दूर-दूर तक नहीं हैं। कांग्रेस पहली विचारधारा की शाश्वत प्रतिनिधि है। दूसरी विचारधारा संघ-कुनबे ने बरसों की कुचालों के बाद हमारे बहुसंख्यक समाज के एक तबके में परत-दर-परत जमाई है और भाजपा उसकी नुमाइंदगी में अपना सब-कुछ झौंके बैठी है।
आज की समस्या यह है कि संघ-कुनबे के विचार-जंगल के 99 फ़ीसदी हिस्से पर भाजपा का कब्ज़ा है, जबकि सर्वसमावेशी विचार के बगीचे का प्रतिनिधित्व आधा दर्जन से अधिक शक्तियां कर रही हैं और वे कांग्रेस को अपना अगुआ मानने के बजाय उसे ‘समान क़द वालों के बीच पहले क्रम पर’ देखने भर को तैयार हैं। सो, दो विचारधाराओं के बीच हो रहे संघर्ष के इस दौर में नरेंद्र मोदी और उनकी भाजपा तो अ-सुर शोर के एकाधिकारी हैं, मगर राहुल गांधी और उनकी कांग्रेस सुरीले संगीत की धुनें अकेले तैयार करने के अधिकारी नहीं हैं। इसलिए भारत की राजनीति में आगे चल कर भाजपा के खल-नायकत्व पर रीझने वालों के समर्थन की शक्ति तो एकजुट रहेगी और कांग्रेस के नायकत्व को अपनी समर्थक-शक्ति की साझेदारी बहुतों के साथ करनी होगी। यह सकारात्मक विचार यात्रा के लिए तो फ़ायदेमंद है, लेकिन यह भी ज़ाहिर है कि यह कांग्रेस के निजी-हित में नहीं है।
कांग्रेस के एकाधिकार वाले आंगन में धीरे-धीरे समान विचार वाले राजनीतिक समूहों की उपस्थिति का दायरा लगातार ऐसे ही नहीं बढ़ा है। कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश और बिहार में अपने वैचारिक हमजोलियों को अपनी उंगली पकड़ने दी और आज वहां कांग्रेस उनकी उंगली पकड़ कर चलने की हालत में आ गई। कौन कह सकता है कि मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के कांग्रेसी-आंगन में इन्हीं हमजोलियों का प्रवेश, अब से पांच साल बाद 2023 में होने वाले विधानसभा चुनावों में, कांग्रेसी ज़मीन को सिकोड़ नहीं देगा? अब ऐसे राज्य बचे ही कितने हैं, जहां भाजपा का मुकाबला सीधे कांग्रेस कर रही हो? जब कांग्रेस कहीं भी भाजपा से जूझने वाला एकमात्र राजनीतिक दल नहीं रह जाएगा तो मजबूत कौन होगा?
इसलिए अरुण जेटली की यह बात सुन कर मुझे झुरझुरी होती है कि कांग्रेस-मुक्त भारत का पहला अध्याय भाजपा ने लिखा था और अब दूसरा अध्याय महागठबंधन लिखेगा। भीतर से मेरा मन आश्वस्त है कि वह दिन कभी नहीं आएगा, जब भारत कांग्रेस-मुक्त होगा। इसलिए कि वह दिन कभी नहीं आएगा, जब पूरा भारतीय समाज संघ-विचार का अनुगामी हो जाएगा। संघ-कुनबे के कुविचार-विरोध की धारा तो हमेशा क़ायम रहनी ही है। वह दिन भी आएगा, जब यह कुविचार पूरी तरह परास्त हो जाएगा। लेकिन सवाल यह है कि इस संग्राम का प्रतिनिधित्व कांग्रेस करेगी या कुछ अलग-अलग कबीले? क्या कांग्रेस भी ऐसा ही एक कबीला भर रह जाएगी?
इस तथ्य से मुंह फेर कर बैठे रहना मूर्खता होगी कि आज उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु, दिल्ली, त्रिपुरा, पूर्वोत्तर के कई राज्यों और ओडिशा में कांग्रेस की मौजूदगी नामलेवा है। दो-सवा दो सौ लोकसभा क्षेत्र ही ऐसे हैं, जहां भाजपा के खि़लाफ़ कांग्रेस सीधे ताल ठोक रही है। महागठबंधन से, आज नही ंतो कल, कांग्रेस की इस मज़बूती पर उलटा असर पड़ना कोई कैसे रोकेगा? लेकिन आज नरेंद्र मोदी की पराजय के लिए बन रहे वज्र में अपनी हड्डियों तक का दान कर देने के लिए दधीचि कांग्रेस नही तो कौन बनेगा? क्या इस प्रक्रिया में कांग्रेस यह ऐहतियात बरत सकती है कि आज अगर वह अपनी हड़िडयां गलाए तो कल उसके ज़मीनी वारिसों की पगड़ियां तुर्रेदार हो जाएं!
कांग्रेस के दर्शनशास्त्र को अपनी गांठ में बांध कर सफ़र शुरू करने वाले राजनीतिक दलों के लिए यह तय करने का वक़्त आ गया है कि वे ‘केंद्र में कांग्रेस-राज्य में हम’ की राह पकड़ें। ऐसा किए बिना विभाजनकारी विचारधारा का कारगर मुक़ाबला हो ही नहीं सकता। द्रमुक के करुणानिधि 94 साल के हैं। उनके वारिस स्टालिन भी 65 के हो गए हैं। देवेगौड़ा 85 के हैं। शरद पवार 77 के हैं। लालू प्रसाद 70 के, मुलायम सिंह यादव 78 के और फ़ारूख अब्दुल्ला 80 के हैं। चंद्राबाबू नायडू 68 के हैं। मायावती 62 की हैं और ममता बनर्जी 63 की। नवीन पटनायक भी 71 साल के हैं। इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा कि 2019 इसलिए हाथ से चला जाए कि सब को अपने-अपने राज्यों में भी सिरमौर रहना है और केंद्र में भी बढ़-चढ़ कर अपना हिस्सा चाहिए? ऐसे में अकेली कांग्रेस का दधीचि-भाव क्या कर लेगा? कांग्रेस इसी बार भाजपा से भिड़ंत के लिए अधिकतम त्याग करने से कतरा भी जाए तो 48 साल के राहुल गांधी के पास लोकसभा के 300 बंजर क्षेत्रों में ज़मीन की गुड़ाई करने के लिए 2024 तक का समय है। इसलिए जो बदलते मौसम की नब्ज़ नहीं पहचानेंगे, पाप करेंगे।
(लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)
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