Monday, October 15, 2018

अटल जी का देवव्रत-भाव और ये ठट्ठामार



अपने पितृ-पुरुष की इससे ज़्यादा फ़जीहत कोई और क्या कर सकता है कि स्वर्ग-गमन के बाद उसे इस कलियुगी पृथ्वी पर एक ऐसे तमाशे का केंद्र बनाने की कोशिश करे, जिसे देख कर दूसरों की नम आंखें दर्द के समंदर में डूब जाएं? भारतीय जनता पार्टी ने किया या नहीं, पता नहीं, लेकिन भारतवर्ष के प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई दामोदर दास मोदी और दुनिया के सबसे बड़े राजनीतिक दल के मुखिया अमित भाई अनिलचंद्र शाह ने, भरत-खंड के राजनीतिक सपूतों की सबसे अगली कतार में पूरी शालीनता से बैठे, अटल बिहारी वाजपेयी के अस्थि-कलशों को ठट्ठामारों के हाथ सौंपने का जो मंचन किया, उसे देख कर मेरा तो भेजा फिर गया है। ठीक है कि अटल जी संघ के थे, जनसंघ के थे, भाजपा के थे; मगर बावजूद इसके कि इन संगठनों में से हरेक के विचारों पर मैं जीवन भर लानत भेजता रहा हूं, अटल जी मेरे भी थे। इसलिए कि देवव्रत की तरह अगर उन्होंने भी भाजपाई-हस्तिनापुर की रक्षा के लिए प्रतिज्ञा कर के खुद को भीष्म में तब्दील न कर लिया होता तो, मैं जानता हूं कि, वे कब के खुल कर ताल ठोक चुके होते।
जो अटल जी को जानते थे, वे जानते हैं कि 1990 का सितंबर आते-आते उनके दूधिया मन में दरार पड़ चुकी थी। वे अपना मन मसोसने लगे थे। एक दशक से भी ज़्यादा वे इसी मनोदशा में कसमसाते रहे और 2002 की गर्मियां शुरू होते-होते तो अटल जी का भीतरी उबाल खुल कर बाहर भी रिसने लगा था। मैं जानता हूं कि भाजपा में वे अपने को कितना असहज महसूस करने लगे थे। अटल जी से मेरी पहली मुलाकात पत्रकार के नाते 1981 की सर्दियों में हुई थी। एक साल पहले ही वे भाजपा के अध्यक्ष बने थे और तब किसी भी राजनीतिक दल के अध्यक्ष से मिलना आज की तरह मानसरोवर यात्रा पर जाने जैसा नहीं था। 
2004 में अटल जी का बतौर प्रधानमंत्री कार्यकाल ख़त्म होने के एक बरस बाद हालांकि उन्होंने राजनीति से संन्यास ले लिया था, मगर मैं 2007 की शुरुआत में तब तक उनके संपर्क में बना रहा, जब तक कि मैं ने पत्रकारिता की नौकरी से तकनीकी-विदा ले कर बाक़ायदा कांग्रेस में प्रवेश नहीं कर लिया। बहुतों की तरह मैं अटल जी का बग़लगीर तो नहीं था, मगर वे मांगने पर मिलने का समय हमेशा दे देते थे, पूरे स्नेह और विश्वास से मिलते थे और मेरे कई निजी क़िस्म के बाल-सुलभ सवालों के जवाब भी बेहद अंतरंगता से दे देते थे। शरारत भरे सियासी सवालों पर भी नाराज़ नहीं होते थे। यह सिलसिला रायसीना रोड के उनके बंगले से शुरू हो कर रेसकोर्स रोड होता हुआ कृष्ण मेनन मार्ग तक पसरा हुआ है। 
इसलिए मुझे लगता है कि कहां अटल जी और कहां मोदी-शाह? 1968 में अटल जी जब भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष बने थे, तब नरेंद्र भाई सन्यासी बनने की नाकाम कोशिशें कर कोलकाता के बेलूर मठ और अल्मोड़ा के रामकृष्ण आश्रम की सीढ़ियों उतर कर वडनगर और अहमदाबाद के रास्ते में थे। 1972 तक अटल जी जनसंघ के अध्यक्ष रहे और इस दौरान, अगर सच है तो, नरेंद्र भाई अपनी चाय-यात्रा पूरी करने के बाद, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्णकालिक प्रचारक बन गए थे। जनसंघ के अध्यक्ष पद का कार्यकाल जब अटल जी ने पूरा किया, तब अमित भाई तो दूसरी-तीसरी कक्षा में पढ़ रहे होंगे।
जब अटल जी भाजपा के पहले अध्यक्ष बने तो नरेंद्र भाई को स्वयंसेवक संघ गुजरात से दिल्ली लाया-ही-लाया था और उन्हें संघ के नज़रिए से आपातकाल का इतिहास रचने का ज़िम्मा सौंपा गया था। नरेंद्र भाई को जब संघ ने भाजपा में काम करने भेजा, तब तक अटल जी अपना अध्यक्षीय कार्यकाल क़रीब-क़रीब ख़त्म कर रहे थे। अमित भाई तो तब तक छात्र-नेता ही थे और अपनी महत्वाकांक्षाओं की उड़ान पूरी करने के लिए अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से विदा ले कर भाजपा में आने की कगार पर थे। अटल जी के अस्थि-कलश वितरण प्रसंग की नरेंद्र भाई और अमित भाई की संकल्पना से भाजपा के कितने लोग सहमत हैं, मैं नहीं जानता, मगर मैं इतना जानता हूं कि देश भर के ऐसे तमाम लोग, जो भाजपा से असहमत होते हुए भी, अटल जी के व्यक्तित्व को विराट मानते हैं, इस उपक्रम के बौनेपन से आहत हैं। हमारे प्रधानमंत्री से अटल जी 26 साल तो उम्र में बड़े थे और कम-से-कम 104 साल अनुभव में। अमित भाई का तो मैं कहूं क्या? वे अटल जी से उम्र में 40 साल छोटे हैं। अनुभव में, मुझे लगता है कि, ज़्यादा नही तो 320 साल छोटे तो होंगे ही। वह राजनीति, जो राजधर्म का पालन करने की नीयत से होती है, उसका तुलनात्मक दृश्य तो यही है। हां, कलियुगी सियासत में दोनों अटल जी के सामने इस आंकड़े का संपूर्ण उलटबांसी-नृत्य दिखाने की क़ाबलियत रखते हैं। आख़िर उनके उपासकों की तादाद ऐसे ही इतनी थोड़े है! नरेंद्र भाई की बलैयां लेने वाले ही तो आज अटल जी के अस्थि-कलशों को थामे ठट्ठा लगाने में नहीं लजा रहे हैं।
मैं इसमें नहीं जाना चाहता कि अटल जी की भतीजी पूरे अस्थि-कलश मामले पर क्या कह रही हैं। इसलिए कि तलाशने वाले इसमें सियासी-बू सूंघे बिना भला कैसे मानेंगे? लेकिन सियासत की शतरंज के ऊंट-हाथी-घोड़ों में भावनाएं ढूंढने वाले मूर्ख माने जाते हैं। फिर प्यादों की संवेदनाओं का तो मतलब ही क्या? अटल जी की अस्थियों को देश भर की नदियों में विसर्जित करने की मूल-अवधारणा से मेरा कोई विरोध नहीं है। नरेंद्र भाई बुलाते तो मैं खुद भी अटल जी की अस्थियों का एक कलश लेने ज़रूर जाता और ओंकारेश्वर में पूरी श्रद्धा से प्रवाह-कर्म करता। मेरा विरोध सिर्फ़ इस बात से है कि इस पूरे स्वांग में शामिल लोगों को इतना भी शऊर भी नहीं है कि उन अटल बिहारी की अस्थियां अपनी झोली में ले कर ‘दे ताली मुद्रा’ में कुलांचे न भरें; जिन्होंने, कैसी भी सही; एक विचारधारा को लोकसभा में दो से दो सौ बयासी आसनों तक बिछाने में, चाहे-अनचाहे, इसलिए अपनी अस्थियां गला दीं कि वे प्रतिज्ञाबद्ध थे।
अटल जी के जाने के बाद लोगों को उनकी बहुत-सी कविताएं याद आईं। मगर मुझे उनकी जो कविता याद है, वह कहती है: ‘क्षमा करो बापू तुम हमको, वचन-भंग के हम अपराधी; राजघाट को किया अपावन, मंज़िल भूले, यात्रा आधी।’ मुझे उनकी एक और कविता भूले नहीं भूलती, जिसमें वे ‘शव के अर्चन’ और ‘शिव के वर्जन’ की बात करते हैं और जिसमें वे ‘वैभव दूना’ और ‘अंतर सूना’ की तरफ़ खुल कर इशारा करते हैं। यह अटल जी की वह कविता है, जो ‘शिव ही सत्य है और सत्य ही सुंदर है’ की शाश्वत आधारभूमि पर लिखी गई है। इसलिए मैं नरेंद्र भाई और अमित भाई के गलियारों में बज रहे आत्म-मुग्ध संगीत के बीच यह कर्कश-घ्वनि छेड़ने की हिमाकत कर रहा हूं कि शिव की वर्जना कर शव का अर्चन करने से अटल जी को मोक्ष कैसे मिलेगा? दूने वैभव तले सिसकते सूने अंतर से आगे की राह कैसे तय होगी? अटल जी की स्मृति तक सौदा बन जाए तो भी आपको चिंता नहीं हो रही है क्या? ऊॅ शातिः ! (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)

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