किसे पता था कि 67 साल की उम्र होते-होते जयप्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया, एस. एन. सिन्हा, कर्पूरी ठाकुर और विश्वनाथ प्रताप सिंह के चेले नीतीश कुमार की हालत यह हो जाएगी कि उन्हें अपने जनता दल यूनाइटेड में दूसरे क्रम की कुर्सी चुनाव प्रबंधन के एक अधकचरे विशेषज्ञ के हवाले करनी पड़ेगी? वह भी तब, जब जदयू में पवन के. वर्मा, हरिवंश सिंह, के.सी. त्यागी, विजय कुमार चौधरी, रामचंद्र प्रसाद सिंह, वशिष्ठनारायण सिंह और राजीव रंजन सिंह जैसे अनुभवी चेहरे मौजूद हों। अगर अपनी बौनी सियासत के लिए मज़बूत खूंटे उखाड़ फेंकने की गंदी आदत नीतीश को भी न लग गई होती तो जदयू में शरद यादव, जीतनराम मांझी और शिवानंद तिवारी जैसे पके-पकाए लोग अब भी उनके पास होते। मगर नीतीश की समझ-बूझ अब उतनी कद्दावर नही रह गई है कि राज-सभा में अपने आसपास विदुरों को बैठने दें।
इसलिए जब नीतीश ने जदयू की भारी-भरकम शक़्लों को दरकिनार कर यहां-वहां से टप्पे खाते हुए उनकी दहलीज़ पर पहुंचे एक स्वघोषित चुनाव विशेषज्ञ को अपने बगल वाली गद्दी पर बैठाया तो मुझे कोई हैरत नहीं हुई। नीतिश की सोच-समझ का मौजूदा स्तर इससे बेहतर फ़ैसला लेने लायक़ रह ही नहीं गया है। हैरत तो मुझे यह देख कर हुई कि जदयू के चंद बचे-खुचे जमीनी दिग्गजों के आज़ाद लबों पर ताले कैसे लटक गए? समाजवादी संस्कार छलकाते घूमने वाले, नीतिश की पसंद के चारों तरफ घूम-घूम कर तालियां कैसे बजाने लगे हैं? जयप्रकाश के ‘ज’, लोहिया के ‘ल’ और कर्पूरी के ‘क’ का भी जिसे अता-पता न हो, वह एक पूरे-के-पूरे राजनीतिक दल को लील जाए और नींव के तमाम पत्थर करवट तक न लें तो इसे हम क्या समझें?
क्या हमने कभी सोचा है कि विदेशों में रह कर अपने पल्लू में शिक्षा की कम, दीक्षा की ज़्यादा गांठ बांध कर पिछले एक दशक के दौरान भारत लौटे हमारे नौनिहालों में राजनीतिक दलों के सचिवालयों को चंगुल में लेने की इतनी ललक क्यों है? सचिवालय में काम करते हुए राजनीतिक नीति-निर्णयों को अपने सांचे में ढालने की उनकी सफल कोशिशे क्या आपको दिखाई नहीं देतीं? मौक़ा मिलते ही अपना सचिवालयीन गणवेष उतार कर बाक़ायदा सियासी वेषभूषा ओढ़ कर क़दमताल का अगला चरण शुरू कर देने की उनकी चालबाज़ियां क्या किसी से छिपी हैं? क्या राजनीति-विज्ञानियों के लिए यह ऐसा मुद्दा नहीं होना चाहिए, जिसके तहखाने में वे उतरें और हमें बताएं कि आन गांव के ये सिद्ध अगले दस-बीस बरस में भारतीय राजनीति को कहां ले कर जाने का इरादा रखते हैं?
कोई कहीं से आता है और हमें बताता है कि उसने फलां अंतरराष्ट्रीय संस्था में इतने साल ऐसा-ऐसा काम किया है और हम इतने ढब्बू हैं कि मान लेते हैं। बावरों का गांव ऊंट के आगमन का ज़श्न मनाने लगता है। वैश्विक शब्दावली के तीखे गिटार के शोर में हमारे सितार का संगीत गुम हो जाता है। भारतीय जनमानस की नब्ज़ समझने वाले बरसों पुराने वैद्य अफ्रीका के सबसे पिछड़े देशों की सड़क नाप कर आए किसी ‘सार्वजनिक स्वास्थ्य विषेषज्ञ’ से इलाज़ के गुर सीखने लगते हैं। भारत जैसे महान जनतंत्र को यह नीम-हकीमाई कहां ले जाकर छोड़ेगी, कौन जाने! पिछले एकाध दशक में विचारधारा के अंत का मिथक ऐसे ही नहीं गढ़ा गया है। इस धारणा को तेज़ी से फैलाने का काम बेबात नहीं हो रहा है कि राजनीति में विचारधारा का अब कोई स्थान नहीं है। चुनावों को विचार-प्रकटन का माध्यम मानने के बजाय उत्सव-प्रबंधन काम समझने का चलन बढ़ता जा रहा है।
सियासत में देशज संस्कृति के तत्वों को किनारे कर उसे अमेरिकी, यूरोपीय और सिंगापुरी आकलनों के तरणताल में धकेला जा रहा है। हमारा नया मीडिया उसका संवाहक है। इस वाहक को सिर्फ़ अपने वाहन का भाड़ा चाहिए। उसे इससे कोई मतलब नहीं है कि वाहन में किसका माल लद रहा है और कैसा माल लद रहा है। उसे तो माल पहुंचाने का शुल्क मिल गया। बस, माल मंज़िल पर पहुंच जाएगा।
अपनी अस्मिता की श्रेष्ठता का आग्रह करना हमारी राजनीति का स्वभाव जब रहा होगा, रहा होगा। अब तो उसमें पिछलग्गूपन का पुट हावी होता जा रहा है। अपने को अलग-अलग सियासी-पहलुओं के काले जादू का तांत्रिक बताने वालों के पीछे जब हमारे राजनीतिक-पुरोधा दौड़ लगाने लगे हों तो लोकतंत्र का क़ब्रिस्तान क्या आपको ज़्यादा दूर लगता है? नागरिक-नज़रिए के गढ़न की स्वाभिवक प्रक्रिया को लात मार कर जब उसे अपने रंग में रंगने की ज़िम्मेदारी ‘गिली-गिली गप्पा’ गाने वालों को सौंप दी जाए तो क्या आपको नहीं लगता कि हमें जिस राह पर ले जाया जा रहा है, उस पर चलने के लिए तो हम घर से नहीं निकले थे?
मैं एक स्वयंभू चुनाव रणनीतिकार को नीतिश-छुअन के बाद एक राजनीतिक का स्वांग भरते देख रहा हूं। मैं अपने समय की सबसे प्रखर एक महिला पत्रकार को दक्षिण भारत से निकलने वाली एक अंग्रेज़ी पत्रिका में इंटरव्यू के ज़रिए उसे महामना की तरह पेश करते देख रहा हूं। मैं देख रहा हूं कि साहस और पराक्रम को राजनीति का पहला गुण बताने वाले इस नौसिखिए-राजनीतिक को इसका अंदाज ही नहीं है कि समावेशिता और हमदर्दी का अहसास राजनीति को राजनीति बनाता है। पराक्रम और साहस से युद्ध भले ही जीते जाते हों, हृदय तो अपनेपन से ही जीते जा सकते हैं। बड़ा-से-बड़ा जोख़िम लेने की अपार क्षमता के लिए नरेंद्र भाई मोदी से गदगद और राहुल गांधी को यथास्थितिवादी बताने वाले इस नवोदित को कौन समझाए कि सियासत परंपराओं के शीलहरण का नहीं, अर्वाचीन संस्कारों की रक्षा का विज्ञान है! लोकतंत्र की राजीति भले ही सत्ता की राजनीति है, लेकिन जो इसे मेला-ठेला मानते हैं, वे हमारे लिए खतरा हैं। नैतिकता और शुचिता का रास्ता जिन्हें झंझट भरा लगता है और जो उसे छोड़ कर राजनीतिक दलों को कूदते-फांदते जल्दी-से-जल्दी मंज़िल हासिल करने के गुर सिखा रहे हैं, वे हमारे लिए खतरा हैं। विदेशी परखनलियों से हमारे आंगन में उतरे ये कलंदर हमारी मिट्टी की सोंधी सुगंध बर्बाद कर देने की साज़िश का हिस्सा हैं। उनके हथकंडों की गोद में जा बैठने वाले नीतिश कुमारों पर मुझे रहम आता है। इन नीतिश कुमारों की विद्वत-परिषद के युधिष्ठिरों की लाचारी पर मुझे तरस आता है।
मैं इसलिए हैरान हूं कि हमारी राजनीति के बरामदे में दबे पांव घटी इस घटना की गंभीरता पर कोई हैरान नहीं है। सबसे बड़ा अपशकुन यह है कि जदयू के धाकड़ों ने हाथ बांधे सब स्वीकार कर लिया है। जो अपनी लुटिया आप डुबोने में लगे हों, ईश्वर भी उन्हें कैसे बचाए! उनकी सलामती के लिए हम कौन-सी प्रार्थना करें? व्यक्तिवादी मानसिकता को पुष्ट करती आज की राजनीति से सामाजिक सरोकारों के निर्वाह की उम्मीद जिन्हें नहीं रह गई है, वे अपनी जानें; मेरी उम्मीद की यह दुनिया तो अभी क़ायम है कि सियासत पर मंडरा रहे इन खतरों को समय रहते समझ लेने वाले घर से ज़रूर निकलेंगे। नहीं निकलेंगे तो जनतंत्र के किले को खंडहर तो होना ही है। ये दूर की बात हम आज नहीं समझेंगे तो देर करेंगे। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी है।)
No comments:
Post a Comment