बुधवार-गुरुवार को राहुल गांधी कैलाश-मानसरोवर से जब दिल्ली लौटेंगे तो फिर एक सियासी-मगजपच्ची उनका इंतज़ार कर रही होगी। मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मिजोरम के इस साल की सर्दियों में होने वाले विधानसभा चुनावों की सर्द हवाओं ने दिल्ली को सिहराना शुरू कर ही दिया है और अगले बरस की गर्मियों में होने वाले लोकसभा चुनावों की लू भी भीतर-ही-भीतर चलने लगी है। इस बीच, ग्रह-नक्षत्रों ने, तेलंगाना में चुनावी बिसात भी बिछा दी है। सो, राहुल के लिए अगले सात-आठ महीने दिन-रात हर तरह के झमेलों का मकड़जाल भेदने के होंगे।
खारे कलियुगी समुद्र की सतह से साढ़े चार किलोमीटर ऊपर भगवान शिव के चरण-तले स्थित मानसरोवर झील की निःशब्द शांति के बाद, धम्म से सवा चार किलोमीटर नीचे दिल्ली के कोलाहल में गिर कर, अपने को राहुल तो क्या, कोई भी माथा ही पीटेगा। मगर मुझे पूरी उम्मीद है कि कैलाश पर्वत के पैर पखारते मन के सरोवर में डुबकी लगाने के बाद अपने झंझावाती-संसार में लौटे राहुल एक नई आत्म-शक्ति से सराबोर होंगे। मानस यानी मनःशक्ति। मन की यह ताकत मेधा, प्रज्ञा, ज्ञान, अनुभूति, चेतना और अंतःकरण का विलीनीकरण है। एक बार जब ये भीतर घुल जाएं तो बाहर की आंधियां बेअसर हो जाती हैं।
2013 की जनवरी के तीसरे हफ़्ते में जयपुर के कांग्रेस के चिंतन शिविर में मॉ सोनिया ने राहुल से ग़लत नहीं कहा था कि सत्ता ज़हर है। लेकिन फिर भी राहुल इस विषपान से इसलिए नहीं बच सकते थे कि सत्ता लोकतंत्र को सहेजे रखने का वाहन है और उसका संचालन सही हाथों में बनाए रखने की ज़िम्मेदारी सब की है। राहुल गांधी की भी। बल्कि उनकी जवाबदेही हम सब से ज़्यादा है। इसलिए एक नई नील-कंठी भूमिका के लिए अपना मन-कल्प राहुल को करना ही था। सो, मानसरोवर की उनकी यात्रा के बाद देश की मन्नत पूरी होने की रफ़्तार सचमुच तेज़ होगी।
नमो-धुन पर नाचती जिस मंडली ने राहुल गांधी को कांग्रेस की मुसीबत साबित करने में कोई कसर बाक़ी नहीं छोड़ी, आज वह मन-ही-मन यह मानने लगी है कि राहुल कांग्रेस की शक्ति बन गए हैं। अब देश में यह भाव भी जड़ें पकड़ चुका है कि नरेंद्र मोदी भारतीय जनता पार्टी के अलावा भारत की भी मुसीबत बन गए हैं। चार बरस बीतते-बीतते किसी और ‘हृदय-सम्राट’ को इस तरह किसी भी मुल्क़ के मन से उतरते दुनिया ने कभी नहीं देखा था। प्रायोजित-आकलन जैसी चाहें, तस्वीर दिखाएं, मगर असलियत यही है कि नरेंद्र मोदी के इशारे पर, अमित शाह की औपचारिक अगुवाई में, चल रही भाजपा के पास 2019 में अपनी लाज बचाने लायक़ वस्त्र नहीं बचे हैं। नंगई पर उतारू न होता तो शायद इतनी जल्दी नहीं होता, पर कोई कहे-न-कहे, अब राजा नंगा हो चुका है।
2014 में नरेंद्र मोदी के तूफ़ानी दिनों में भाजपा को 282 सीटें ज़रूर मिली थीं, लेकिन ज़मीनी इबारत तो तब भी उसके लिए इतनी पुख़्ता नहीं थी। देश के कुल साढ़े 88 करोड़ मतदाताओं में से पौने 55 करोड़ अपनी राय ज़ाहिर करने मतदान केंद्रों पर गए थे और उनमें से साढ़े 37 करोड़ मोदी की भाजपा के खि़लाफ़ बटन दबा कर आए थे। महज सवा 17 करोड़ मतदाताओं के समर्थन से जीते भाजपा उम्मीदवारों की बदौलत नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बन बैठे थे। इतने कम प्रतिशत-मतों के साथ इससे पहले किसी भी एक राजनीतिक दल की सरकार भारत में नहीं बनी। लेकिन तब भी इस छद्म-जीत ने हमारे प्रधानमंत्री और उनके दरबारियों की पलकें इतनी भारी कर दीं कि उनके पांव ज़मीं पर पड़ते ही नहीं हैं। सो, ज़मीन कब पांवों से नीचे से खिसक गई, इसका अंदाज़ आज भी उन्हें नहीं हो रहा है।
राहुल गांधी की कांग्रेस और पूरे विपक्ष को इसका जो स्वाभाविक लाभ मिलना है, सो मिलना ही है। मगर राहुल की नीलकंठ-भूमिका की कसौटी अब यह है कि, एक तो, वे अपनी पार्टी के भीतर बिखरी किरचों को कैसे बुहारते हैं, और दूसरे, समूचे विपक्ष में विचर रही बेचैन आत्माओं की शांति के लिए कौन-सा हवन करते हैं। इन दोनों ही मोर्चों पर राहुल के धैर्य और मुस्तैदी का इम्तहान आने वाले दिनों में होना है। मैं जानता हूं कि अगर राहुल ने अपने कुछ अगलियों-बग़लियों के चक्रव्यूह से बाहर आने के रास्तों की मशालें जला लीं तो अगले साल होली के बाद भारत को उसके चिरंतन रंग में रंगने निकल पड़े समूह के वे सूत्रधार होंगे।
कांग्रेस की मुसीबत बाहर कम, भीतर ज़्यादा है। दक्षिण-भारत में भाजपा नाम भर को है और उत्तर-भारत में लोग अब उसे एक दिन भी अपने सिर पर सवार देखना नहीं चाहते हैं। मगर दिक़्कत यह है कि कांग्रेस के ज़्यादातर प्रादेशिक क्षत्रपों को पार्टी की नहीं, खुद की चिंता है। चुनावों में जा रहे सभी राज्यों की कमोबेश यही हालत है। विधानसभा चुनावों को तीन महीने बचे हैं, मगर तालमेल के ऊपरी ढोंग तले खींचतान का पतनाला बहना थमा नहीं है। राहुल को इस से पूरी तरह बेमुरव्वत हो कर निबटना होगा, क्योंकि प्रदेशों में बारूद बिछा रहे चेहरों की कोशिशें दरअसल तो लोकसभा चुनावों में कांग्रेस-विपक्ष की संभावनाओं को पलीता लगाएंगी।
विपक्षी-बाड़े में घूम रही काली भेड़ों पर सहज-विश्वास करने का भी यह समय नहीं है। इस में कोई रहस्योद्घाटन नहीं है कि मोदी-मंडली इतनी मासूम नहीं है कि विपक्षी-एकता का रथ ऐसे ही तैयार हो जाने देगी। प्रादेशिक चुनावों में कई विपक्षी-धड़ों द्वारा उम्मीदवार उतारने के ऐलान को, जितना देख रहे हैं, उससे ज़्यादा संदेह की निग़ाह से देखने की ज़रूरत है। अपने प्रभाव-क्षेत्र से बाहर जा कर दूसरे राज्यों में भी पैठ बनाने की कोशिशें क्या ऐसे ही हो रही हैं? भाजपा-विरोधी राजनीतिक दलों का यह रवैया कांग्रेस के अलावा और किसे नुक़सान पहुंचाएगा? इसलिए राहुल गांधी को पूरी विनम्र-दृढ़ता के साथ इस समस्या से भी आर-पार की लड़ाई लड़नी होगी।
कैलाश-मानसरोवर ने और जो भी किया हो, मुझे लगता है कि, राहुल के जीवन में वह भाव ज़रूर उंडेल दिया होगा, जो कहता है कि ‘‘मनुष्यः स्व विश्वासेन निर्मितः, यत् विश्वास करोतितेन इव भवति।’’ मनुष्य का निर्माण अपने विश्वासों से होता है, वह जैसा विश्वास करता है, वैसा ही बन जाता है। बहुत बार हमारे ही बनाए राक्षस हमें खाने दौड़ते हैं। भगवान शिव के सामने भी तो ऐसा समय आया था। आइए, उम्मीद करें कि राहुल के पास भी अपने भस्मासुरों का संहार करने की कोई जुगत ज़रूर होगी। जितनी जल्दी यह बात सब की समझ में आ जाए, बेहतर है, कि जब तक धाराएं एक नहीं होतीं, नदी नहीं बनती। और, बिना नदी बने कांग्रेस अपने खेत को कैसे सींचेगी? (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)
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