पिछले बरस अक्टूबर में जब अमेरिकी अभिनेत्री एलिसा मिलानो ने ‘मी टू’ को एक अभियान की शक़्ल दे डाली थी तो किसे पता था कि एक साल बीतते-बीतते ही हमारे चेतन भगत, मोबाशर जावद अकबर, नाना पाटेकर और आलोक नाथ जैसों की मूर्तियां यूं भरभरा कर गिर पड़ेंगी? परदे जब उठते हैं तो यही होता है। असली व्यक्ति जब अपने कपड़ों से बाहर आता है तो कई बार उसके घिनौनेपन की मवाद पूरे संसार को सडांध से भर देती है। ‘मी टू’ अमेरिका से निकल कर अगर भारत तक पहुंच गया है तो यह साफ है कि उसमें धरती के हर कोने में ऐसा हड़कंप मचाने की ताक़त है कि बड़े-बड़ों के रुख से नक़ाब उतरती जाए।
विदेश राज्य मंत्री एम. जे. अकबर, युवाओं के चहेते लेखक चेतन भगत, धारावाहिकों के बाबूजी आलोक नाथ, फिल्मी परदे के क्रंातिवीर नाना पाटेकर, तीसरे पन्ने के जुगाड़ू सुहैल सेठ, गायक कैलाश खेर, फिल्मी दुनिया की बड़ी-छोटी हस्तियां--वरुण ग्रोवर, गुरंग दोषी, विवेक अग्निहोत्री, विकास बहल, उत्सव चक्रवर्ती, रजत कपूर, पत्रकार--सिद्धार्थ भाटिया, गौतम अधिकारी, प्रशांत झा, के. आर. श्रीनिवास, मयंक जैन और न जाने कौन-कौन ‘मी टू’ के जंजाल में फंसे छटपटा रहे हैं। ऐसा भले ही नहीं है कि ये सब सामाजिक आचरण की हमारी पवित्रता के सर्वोच्च प्रतिमान माने जाते रहे हों, मगर ऐसा ज़रूर है कि इनमें से कई हमारे समय के ख़ासे प्रखर और प्रतिभावान चेहरे रहे हैं।
इनमें से कइयों के बारे में आज कही जा रही बातें सुन कर बहुतों को आश्चर्य नहीं हुआ है। मुझे भी नहीं हुआ। अपनी ललित-कलाओं के लिए इनमें से कइयों की कुख्याति के क़िस्से बरसों से मशहूर रहे हैं। लेकिन जब तक कोई सामने न आए, आसाराम बापुओं और राम-रहीमों का पूजन कैसे रुके? सो, ‘मी टू’ ने सबसे बड़ा काम यह किया है कि प्रभावित-वर्ग को मुखौटे नोचने की हिम्मत से भर दिया है। इसलिए अब यह तय है कि ‘मी टू’ बिगुल फिल्मी दुनिया और पत्रकारिता की गलियों से निकल कर राजनीतिक, सामाजिक और कारोबारी दुनिया के राजमार्गों पर भी एक न एक दिन गूंजेगा।
जिस दिन यह शुरू होगा, हम मूर्ति-भंजन से हक्काबक्का एक ऐसे युग में प्रवेश करेंगे, जिसकी आयु सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग की तरह किसी सीमा से बंधी नहीं होगी। वह एक अनंत युग होगा। अब से बारह बरस पहले समाजसेवी तराना बू्रक ने जब पहले-पहल ‘मी टू’ मुहावरा गढ़ा था तो उन्हें यह थोड़े ही पता था कि वे कलियुग में एक ऐसे उप-युग का नामकरण कर रही हैं, जिसमें लिखी इबारत पुरुषवादी समाज को अपनी औकात में रहने का चिरंतन पाठ पढ़ाएगी। अच्छा हुआ कि वह दिन जल्दी आ गया।
मैं मानता हूं कि ‘मी टू’ के छींटे जिन पर भी पड़े हैं या पड़ेंगे, ऐसा नहीं है कि वे सब सचमुच ही मानव-काया ओढ़े पिशाच हैं। उनमें से कुछ पर उठाई जाने वाली उंगलियां बेबात भी हो सकती हैं। मैं यह भी मानता हूं कि ‘मी टू’ कहने का हक़ स्त्रियों को ही नहीं, पुरुषों को भी होना चाहिए। यह सही है कि पुरुषों द्वारा स्त्रियों के शोषण की संभावनाएं बहुत ज़्यादा होती हैं। मगर ऐसा भी नहीं है कि स्त्री द्वारा किसी पुरुष के शोषण की पृथ्वी पर कहीं कोई घटना घटती ही नहीं होगी। फिर एक क़दम आगे बढ़ कर हमें पुरुष द्वारा पुरुष के और स्त्री द्वारा स़्त्री के शोषण की संभावनाओं पर भी तो ध्यान देना होगा। ‘मी टू’ के इन तमाम आयामों का सोच आपको भीतर तक नहीं कंपा रहा?
तो अब जो हो, सो हो। जब अग्निबाण कमान से निकल ही गया है तो उससे होने वाली अग्निवर्षा से संसार के झुलस जाने का डर दिमाग़ से निकाल दीजिए। इसलिए कि यह आग हमें जलाने के लिए नहीं, तपाने के लिए शुरू हुई है। इस आग में इस्पाती दिखने वाले कई लौह-पुरुष आने वाले दिनों में पिघल कर लौंदे बन जाएंगे। लेकिन पांच-दस बरस बीतते-बीतते हम देखेंगे कि हमारे समाज को सुहैल सेठों की विदाई ने पहले से कितना ज़्यादा परिष्कृत बना दिया है!
हमारी सामाजिक व्यवस्था मुलम्मा उतरने से इसलिए घबराती है कि असली चेहरे बहुत बार इतने कुरूप होते हैं कि हम उन्हें देख कर अवसाद में जाने के बजाय लिपे-पुते नकलीपन के कृत्रिम नृत्य में मग्न रहना बेहतर समझते हैं। किसी भी क्षेत्र में आगे बढ़ती किसी स्त्री के बारे में यह दावा करने वालों की कोई कमी नहीं दीखती है कि वे जानते हैं कि वह कैसे वहां तक पहुंची है। लेकिन बहुत-से पुरुष जहां पहुंचे हैं, वे किस बिचौलिया-भूमिका की बदौलत वहां हैं, यह कौन किसे बतलाए? सियासत और कारोबार की दुनिया में हर कोई अपनी प्रतिभा, योग्यता और परिश्रम के बूते ही शिखर-यात्रा नहीं कर रहा है। इनमें बहुत-से कमाठीपुर के मदारी भी हैं। उनकी डमरू-प्रतिभा के अभिनंदन का भी एक अभियान शुरू क्यों न हो?
मुझे लगता है कि ‘मी टू’ से इसलिए एक युगांतकारी शुरुआत हुई है कि पहली बार इस बात का सार्वजनिक उद्घोष हो रहा है कि भद्र वर्ग ने जो मानदंड तय कर दिए हैं, वे ही अंतिम सत्य नहीं हैं। इसलिए हम देख रहे हैं कि ‘मी टू’ की आवाज़ स्पर्धी-संसार के मध्य-वर्ग ने उठाना शुरू किया है। कुलीन और उच्च-वर्ग के शब्दकोष में ‘मी टू’ अहसास की कोई अवधारणा ही नहीं है। जिन नामी-गिरामी हस्तियों के खि़लाफ़ मुट्ठियां तन रही हैं, क्या उनके जाल में रोहू मछलियां नहीं तड़पी होंगी? मगर बोलता तो हमेशा नीचे का व्यक्ति है। अट्टालिकाओं से तो चीख नहीं, हंसी सुनाई देती है। इसलिए बावजूद इसके कि आप भी ऐसे कई प्रसंगों को जानते होंगे, जिसकी भुक्तभोगी आज की कई कद्दावर स्त्रियां रही हैं, वे न बोली हैं, न बोलेंगी।
आज के हमारे ‘युग-पुरुषों’ में से कई किस कीमत पर इतने बड़े बने हैं, वे ही जानते हैं। आज की हमारी ‘युग-स्त्रियों’ में से कई किस कीमत पर इतनी बड़ी बनी हैं, यह भी वे ही जानती हैं। किस-किस ने कहां-कहां पहुंचने के लिए किस-किस भूमिका का निर्वाह किया, कोई और जाने-न-जाने, वे खुद तो खूब जानते ही हैं। उन्हें खुद पर घिन आती हो, न आती हो, बाकियों को तो उन पर आती ही है। घिन से घिरी इन मूर्तियों के दरकने का आगाज़ हुआ, अच्छा हुआ। इन मूर्तियों की आरती हम कब तक उतारते? इसलिए वे सब, जो ‘मी टू’ कहने की हिम्मत कर रही हैं, प्रणम्य हैं। बावजूद इसके कि कुछ के द्वारा ‘मी टू’ की गंगा में अपना हाथ धोने की ग़लत संभावनाओं से इनकार नहीं किया जा सकता, आइए, इस अभियान की क़ामयाबी के लिए दुआ करें! इसलिए कि व्यक्तिगत आचरण शास्त्र और सामाजिक आचार संहिता की मज़बूती के लिए अब तक हुए सभी आंदोलनों में ‘मी टू’ सबसे मारक है। यह जितना तेज़ होगा, इसके जितने ज्यादा आयाम होंगे, पृथ्वी पर आपसी संबंधों में छीना-झपटी का कुत्सित खेल उतना ही किनारे होता जाएगा। ऐसा हो जाए तो फिर और क्या चाहिए! ( लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)
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