Sunday, March 31, 2019

बीजिंग की दूरबीन से दिखती रायसीना पहाड़ी

 
पंकज शर्मा
पंकज शर्मा

    पिछले पूरे हफ़्ते मैं चीन की राजधानी बीजिंग में था। चीन की संसद--नेशनल पीपुल्स कांग्रेस--का सत्र चल रहा था। चीन की सर्वोच्च राजनीतिक सलाहकार समिति की बैठक भी इसी बीच बीजिंग में हो रही थी। राष्ट्रपति शी जिनपिंग से लेकर तमाम बड़ी हस्तियों की यहां-वहां आवाजाही के चलते मुख्य सड़कें यातायात-जाम से कराह रही थीं। इसी आपाधापी के बीच मैं ने बीजिंग के 108 साल पुराने शिंघुआ विश्वविद्यालय के नेशनल स्ट्रेटजी इंस्टीट्यूट की एक संगोष्ठी में प्रमुख वक्तव्य दिया, चाइना इंस्टीटृयूट ऑफ कंटेपररी इंटरनेशनल रिलेशन्स की गोल-मेज चर्चा में शिरकत की और चीन में भारतीय मसलों की विशेषज्ञता रखने वाले आधा दर्जन अध्येताओं से अलग-अलग बातचीत की। 
    शिंघुआ विश्वविद्यालय ने अपने राष्ट्रीय रणनीति संस्थान का गठन छह साल पहले ही किया है। इसका काम एक वैश्विक संचालन मंडल की देखरेख में चलता है। अपनी शुरुआत के चंद बरस के भीतर ही इस संस्थान ने मशहूर थिक टैंक की विश्व-सूची में अपनी जगह बना ली है। मेरे लिए गोल-मेज चर्चा आयोजित करने वाला समकालीन अंतरराष्ट्रीय संबंध संस्थान तो दुनिया के इनेगिने थिंक टैंक में से एक है ही। इसमें 400 शोध-अध्येता और उनके सहकर्मी काम करते हैं। भारी सुरक्षा व्यवस्था के बीच एक बड़े परिसर से संचालित होने वाले इस संस्थान में 11 अलग-अलग विभाग हैं। दक्षिण-पूर्व एशिया के मसलों पर गहन शोध के लिए एक अहम विभाग भी इनमें शामिल है। हालांकि इस संस्थान से जुड़ा कोई भी व्यक्ति आपको यह नहीं बताएगा, लेकिन असलियत यह है कि वह चीन के राष्ट्रीय सुरक्षा मंत्रालय से संबद्ध है और उसके पूरे कामकाज की देखरेख सीधे चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की केंद्रीय समिति करती है।
    शिंघुआ विश्वविद्यालय की संगोष्ठी का विषय यह था कि चीन और भारत के बीच मीडिया के क्षेत्र में सहयोग की कितनी गुंज़ाइश है और इस दिशा में दोनों देश क्या कर सकते हैं? मैं ने अपने वक्तव्य में भारतीय मीडिया जगत के बारे में विस्तार से जानकारी दी। मुद्रित समाचार माध्यमों, टेलिविजन, रेडियो, ऑनलाइन मीडिया, सोशल मीडिया, वगैरह की प्रभावशाली उपस्थिति के बारे में बताया। पत्रकार संगठनों और मीडिया मालिकों के संगठनों के कामकाज पर अपनी बात कही। मीडिया संचालन से संबंधित नियम-क़ानूनों का ज़िक्र किया। भारत-चीन के बीच मीडिया-सहयोग की असीम संभावनाओं की बात करते हुए चीनी अध्येताओं को खुल कर बता दिया कि मेरे हिसाब से मीडिया के क्षेत्र में सहयोग सीधे तौर चीन और भारत के बीच बाकी संबंधों की सौहार्द्रता से जुड़ा है।
    संगोष्ठी के बाद मुझ से पूछे गए सवालों और मेरे जवाबों की एक बानगी देखिएः
    सवालः भारत का मीडिया चीन के ख़िलाफ़ एक मुहिम-सी क्यों चलाए रहता है?
    जवाबः ऐसी कोई मुहिम तो कभी हमारे मीडिया ने नहीं चलाई। लेकिन क्या हम अपने देश को यह नहीं बताएं कि चीन मसूद अज़हर को वैश्विक आतंकवादी घोषित करने में अड़ंगे लगा रहा है? अगर आप डोकलाम में गड़बड़ करेंगे तो भारतीय मीडिया की ज़िम्मेदारी है कि वह देश को असलियत बताए।
    सवालः लेकिन यह एकतरफ़ा नज़रिया है। ऐसे मसलों पर चीन की सोच कुछ और है।
    जवाबः तो आप भी अपनी सोच को अपने मीडिया में ज़ोरशोर से प्रचारित करते ही हैं। मेरा मानना है कि आतंकवाद जैसे मसलों पर अलग-अलग सोच होनी ही नहीं चाहिए। अगर भारतीय मानस में यह भावना पनपेगी कि चीन आतंकवाद के मामले में भारत के साथ नहीं है तो दूरियां बढ़ेंगी। इसीलिए मैं ने कहा कि जब तक बाकी क्षेत्रों में दूरियां दूर नहीं होतीं, मीडिया-क्षेत्र में सहयोग कहां से होगा?
    सवालः भारतीय मीडिया को दुराग्रही होने के बजाय सकारात्मक होना चाहिए।
    जवाबः भारत का मीडिया दुराग्रही नहीं है। मीडिया का काम तथ्यों को सामने लाना है। वही हम करते हैं। सकारात्मकता को नकारात्मकता में तब्दील करने का काम हमने कब किया? जब हमारे प्रधानमंत्री और आपके राष्ट्रपति की वुहान में अनौपचारिक बातचीत हुई तो भारत का मीडिया कई दिनों तक दोनों नेताओं की बलैयां लेता रहा। मैं ने देखा कि तब चीन के मीडिया ने उतना गर्माहट भरा रुख नहीं दिखाया था। वुहान भारत और चीन के संबंधों में सुधार का एक बड़ा क़दम था। चीन का मैं नहीं जानता, लेकिन इससे भारत के आम लोगों में आपके लिए अच्छे भाव उपजे। आपकी मजबूरियां होंगी, मगर ताज़ा आतंकवाद के मामले में पाकिस्तान के साथ खड़े हो कर चीन ने भारतीय भावनाओं को फिर आहत कर दिया। ये हालात बदलने के लिए बहुत कुछ करने की ज़रूरत है।
    समकालीन अंतररराष्ट्रीय संस्थान की गोल-मेज चर्चा के केंद्र में राजनीतिक मुद्दे ज़्यादा थे। शोध-अध्येताओं के सवालों पर भारत में होने वाले आम चुनावों का घना साया था। वे मुझ से मेरा आकलन जानने की जुगत लगा रहे थे और मैं उनसे उनका आकलन जानने की कोशिशों में लगा था। इस चर्चा के दौरान चीनी अध्येताओं की कही बातों से मेरे सामने उनके आकलन के कुछ बिंदु स्पष्ट हुए। 
    एक, भारतीय जनता पार्टी की लोकप्रियता काफी नीचे चली गई है, लेकिन सबसे बड़ा राजनीतिक दल वही होगी और जोड़-तोड़ के ज़रिए उसी के सरकार में आने की संभावनाएं ज़्यादा हैं।
    दो, नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री की कुर्सी भाजपा के किसी और नेता के लिए खाली करनी पड़ सकती है और इस दौड़ में नितिन गड़करी सबसे आगे हैं। हालांकि मोदी आसानी से यह नहीं होने देंगे।
    तीन, कांग्रेस पहले से काफी बेहतर नतीजे लेकर तो आएगी, मगर भाजपा से टक्कर में वह अभी काफी पीछे ही है।
    चार, राहुल गांधी पहले की तुलना में बहुत परिपक्व हो गए हैं, मेहनत भी बहुत कर रहे हैं, मगर उनकी पार्टी का संगठन इस मेहनत की फ़सल काटने में सक्षम नहीं है।
    पांच, भाजपा-विरोधी विपक्ष एकजुटता के मामले में पूरी तरह नाकाम साबित हो गया है, इसलिए भाजपा की अगुआई में फिर सरकार बनने की राह आसान हो गई है।
    छह, किसी भी राजनीतिक विचारधारा की हो, मगर भारत में किसी ढुलमुल गठबंधन की कमज़ोर सरकार के बजाय मज़बूत गठबंधन की सरकार बननी चाहिए ताकि पारस्परिक संबंधों से जुड़े मसलों पर त्वरित फ़ैसले लिए जा सकें। चीन की सोच है कि आख़िर तो पांच साल का समय बहुत लंबा समय होता है, जिसे अनिर्णय के झूले पर बैठ कर ज़ाया करना दोनों देशों में से किसी के लिए भी बुद्धिमानी नहीं होगी।
    हालांकि भारतीय मीडिया पिछले पूरे सप्ताह चीन से आ रहे इन संकेतों पर ख़ुशी बिखेर रहा था कि मसूद अज़हर के मसले पर 13 मार्च को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में चीन तटस्थता दिखा सकता है, लेकिन भारतीय मसलों के कई चीनी विशेषज्ञों से मेरी अलग-अलग मुलाक़ातों में हुई बातचीत के बाद मेरे सामने यह साफ हो गया था कि चीन इस बार भी अपने पुराने रुख पर ही क़ायम रहेगा। वही हुआ।
    दिल्ली की सिंहासन-बत्तीसी का एक-एक अक्षर, बाकी दुनिया के साथ, बीजिंग की दूरबीनें भी बेहद संजीदगी से पढ़ रही हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, उसके सहयोगी संगठनों, भाजपा, कांग्रेस, ममता बनर्जी, मायावती और दक्षिण भारत के राजनीतिकों की हर क़दमताल को चीन के शोधार्थी इतनी गहरी नज़र से परख रहे हैं कि उनकी बातें सुन कर मैं ने कई बार अपनी ठोड़ी खुजाई। यह अलग बात है कि चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे, बेल्ट रोड इनीशिएटिव और हिंद महासागर से लेकर श्रीलंका, मालदीव और नेपाल तक पर मेरी टिप्पणियों ने उन्हें भी बार-बार अपना सिर खुजलाने पर मजबूर किया। सो, चलते-चलते मैं ने उनसे कहा कि कहा-सुना माफ़। भूल-चूक लेनी-देनी। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)

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