Saturday, March 2, 2019

मोदी का बघनखा बनाम राहुल का व्याकरण



पंकज शर्मा
    प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी को यह अहसास हो गया है कि उनकी सरकार इस बार का सावन नहीं देखेगी। सो, गुरुवार को लोकसभा में राष्ट्रपति के बजट अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर बोलते हुए उनके मुंह से निकल गया कि अब तो ‘महा-मिलावट’ आने वाला है। हालांकि चंद लमहों बाद उन्होंने अपनी बात संभालने की कोशिश की और कहा कि कोई भी स्वस्थ लोकतंत्र मिलावटी व्यवस्था को स्वीकार नहीं करेगा, मगर तब तक बात दूर तलक जा चुकी थी। देश समझ गया था कि नरेंद्र भाई अपनी वापसी को ले कर उतने आश्वस्त नहीं हैं और उनके मन में आशंकाओं के काले बादल घुमड़ रहे हैं।
    मुझे इस बात की ख़ुशी है कि, फिसल कर ही सही, प्रधानमंत्री की ज़ुबान से यह बात निकली। यह इसलिए सुखद है कि हमारे प्रधानमंत्री असलियत से नावाकिफ़ नहीं हैं। मैं तो अब तक समझता था कि नरेंद्र भाई को ज़मीनी सच्चाई का पता ही नहीं है और ऐसा नहीं है कि वे अनजान होने का ढोंग भर रहे हैं। इसलिए यह देश के लिए राहत की बात है कि प्रधानमंत्री को सब पता है। वे जानते हैं कि उनकी लोकप्रियता चरमरा गई है। वे जानते हैं कि उनके साथ भारतीय जनता पार्टी डूब रही है। आप ही बताइए, कौन-सी स्थिति ज़्यादा खतरनाक होती? वह कि प्रधानमंत्री माने बैठे हैं कि उनका सिंहासन अडिग है? या वह कि प्रधानमंत्री को अहसास है कि पाए बुरी तरह हिल चुके हैं? 
    ज़ाहिर है कि अपने स्वर्ग में रह रहे एक प्रधानमंत्री से वह प्रधानमंत्री बेहतर है, जो यथार्थ की मुंडेर पर खड़ा है। अपने में ही मस्त रहने वाले प्रधानमंत्री को अगर आगामी लू की लपटों का अहसास हो गया है तो मैं तो इसे अच्छा लक्षण मानता हूं। दूसरों को ठेंगे पर रखने वाले प्रधानमंत्री को अगर आगे की ऊबड़-खाबड़ राह दिखने लगी है तो मैं तो इसे सकारात्मक संकेत मानता हूं। लेकिन मैं थोड़ा डरा हुआ भी हूं। इसलिए कि यह तो नरेंद्र भाई पर ही निर्भर करता है कि अपने इस अहसास को वे भारतीय लोकतंत्र का शास्त्रीय नृत्य बनने देंगे या उनमें जागा यह आत्म-बोध हमें अपने प्रधानमंत्री की तांडव-मुद्राओं का दर्शन कराएगा? क्योंकि, अगर नरेंद्र भाई अपनी गुदगुदी रजाई में ही बैठे होते तो कम-से-कम इतना तो होता कि वे कुछ भी ठीक करने की कोशिश नहीं करते और जो होना था, हो जाता। मगर अब तो उन्हें मालूम हो गया है कि महागठबंधन उनकी देहरी तक पहुंच गया है, इसलिए वे इस ‘महा-मिलावट’ से अपनी रसोई को बचाने के लिए सब-कुछ करने में कोई कसर बाकी नहीं रखेंगे। और, हमने देखा है कि जब हमारे प्रधानमंत्री चीज़ों को दुरुस्त करने पर आमादा हो जाते हैं तो आगा-पीछा सोचे बिना ऐसी तलवार भांजते हैं कि मुल्क़ का रोआं-रोआं ज़ख़्मी हो कर कितना ही विलाप करे, वे अपने कानों पर कोई जूं नहीं रेंगने देते हैं। पौने पांच बरस में अपने प्रधानमंत्री की हंटरबाज़ी से देश की देह पर पड़े फफोले अब तक रिसते हम देख ही रहे हैं।
    ऐसे में ‘चोरों से निपटने’ के लिए हर कीमत पर अपनी हुकूमत वापस लाने की ताब ने हमारे ‘ग़रीबनवाज़’ प्रधानमंत्री को अगर अपने इरादों के घोड़े पर सवार कर दिया तो समझ लीजिए कि इस बार के लोकसभा-चुनाव तक बचे इन महीनों में भारत वह सब देखेगा, जो उसने कभी नहीं देखा होगा। महागठबंधन की आहट सुन लेने के शब्द भले ही नरेंद्र भाई की ज़ुबान ने बत्तीस दांतों का पहरा तोड़ कर बाहर ठेल दिए, मगर इसका मतलब यह नहीं है कि उनमें इस सच्चाई का सामना जनतांत्रिक तरीके से करने की नैतिक उदारता भी घुल गई है। उनके पोर-पोर में वह विचार मौजूद है, जिसे अक्षरशः लागू करने में ही वे अपना जन्म सफल मानते हैं। लोकतंत्र की उनकी अपनी परिभाषा है, समाजतंत्र की उनकी अपनी परिभाषा है और जनजीवन में अनुशासन की उनकी अपनी परिकल्पना है। अपने सपनों का भारत बनाने के लिए वे भारत के किसी भी सपने को क़ुर्बान करने में कतई हिचक नहीं दिखाएंगे।
    इसलिए हम सभी तुच्छ देशवासियों के लिए यह समय अपने पराक्रमी प्रधानमंत्री की एक-एक पदचाप पर गहरी निगाह रखने का है। पलक झपकी नहीं कि नरेंद्र भाई अपनी वापसी का रास्ता साफ कर लेंगे। वे तो आंखों में धूल झोंक कर मंजिल पर प्रकट होने की विद्या जानते हैं। सो, उनींदे पहरेदारों की बगल से तो वे चुटकी बजाते गुज़र जाएंगे। ममता बनर्जी के सत्याग्रही धरनों, अरविंद केजरीवाल के जिद्दी अभियानों, चंद्राबाबू नायडू के सूक्ष्म जंजालों, शरद पवार की कुशाग्र डुबकियों, शिवसेना के जटिल गलियारों और प्रियंका गांधी के आगमन से कांग्रेस में आई तीक्ष्णता को भोथरा करने का जो विज्ञान हमारे प्रधानमंत्री के पास है, वह नियमों और परंपराओं की किसी भी दीवार से बंधा हुआ नहीं है। असली चिंता यही है।
    आगामी आम-चुनाव के कुरुक्षेत्र में नरेंद्र भाई के रथ को रोकने के लिए देश के चारों कोनों से वैचारिक समानता के सिपाही निकल तो पड़े हैं, लेकिन उन्हें भाजपा के इस वाजिब प्रश्न का उत्तर भी देना होगा कि आख़िर उनका अखिल भारतीय सेनापति कौन है? जिन्हें लगता है कि नरेंद्र भाई के जानबूझ कर फेंके इस जाल में फंसने से बेहतर है सवाल की अनदेखी, वे ग़लती पर हैं। पूरे चुनाव को दो विचार-समूहों के बजाय दो व्यक्तियों के बीच चयन का मुद्दा बनाने की नरेंद्र भाई की चाल किसी को कितनी ही डरावनी लगती हो, मुझे तो लगता है कि उनकी यह गेंद महागठबंधन को तुरंत लपक कर राहुल गांधी की तरफ लुढ़का देनी चाहिए।
    इसलिए कि जब बाकी सब के पास मज़ाक और उपहास था, राहुल के पास दृढ़ता थी। मई-2014 में शुरू हुए मोदी-युग के बाद एक साल पहले तक हम सब को लग रहा था कि इस युग ने अवाम से उसका लड़ाकूपन बड़ी कामयाबी से छीन लिया है। आज अगर यह लड़ाकूपन लौटा है तो उसमें राहुल की अनवरत दृढ़ता का सबसे बड़ा योगदान है। उन्होंने नरेंद्र मोदी के ‘चरखावतार’ का पर्दाफ़ाश किसी भी और से ज़्यादा शिद्दत के साथ किया। मोदी का लात खा कर लस्तपस्त पड़ी कांग्रेस को जब सोनिया गांधी फिर अपने पैरों पर खड़ा कर रही थीं तो राहुल ने अपने संगठन को वैचारिक और सांस्कृतिक तानाशाही के खि़लाफ़ लड़ने के लिए तैयार करने में अपनी महती भूमिका अदा की। 
    आज के राहुल में जो तेवर हैं, उन्हें देख कर कोई भी मानेगा कि अगर अगला आम-चुनाव ‘मोदी-बनाम-राहुल’ हो जाए तो नरेंद्र भाई बुरी तरह थर्रा जाएंगे। मैं जानता हूं कि पूरा संघ-कुनबा किस तरह इस कोशिश में लगा है कि कहीं लोकसंभा चुनाव मोदी-राहुल के बीच चयन की जंग न बन जाए। क्योंकि, मोदी की परछाईं से भयभीत देश को राहुल के साए में सुकून नज़र आने लगा है। क्योंकि, नरेंद्र भाई बघनखे के साए में सहमा देश, बैर-भाव के बिना सियासत का शाश्वत व्याकरण साधते राहुल की गोद में अपने को ज़्यादा सुरक्षित महसूस करने लगा है। यही आम-चुनाव का जीव-द्रव्य है। नरेंद्र भाई तो इसे समझ गए हैं, महागठबंधन के क्षत्रप इसे जितनी जल्दी समझ जाएं, उतना ही बेहतर! (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)

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