Sunday, March 31, 2019

गंगा मैया, प्रियंका गांधी और नया व्याकरण


पंकज शर्मा

पंकज शर्मा

    पांच साल पहले नरेंद्र भाई मोदी को गंगा ने बुलाया था या वे मान न मान, मैं तेरा मेहमान बन बैठे थे, कोई नहीं जानता; मगर कहीं इस बार प्रियंका गांधी को गंगा मैया ने बनारस बुला लिया तो सचमुच कोई नहीं जानता है कि नरेंद्र भाई का क्या होगा? अगर ऐसा हो गया तो वे अपनी छप्पन इंच की छाती पीटते-पीटते अट्ठावन साल पहले आई फिल्म ‘काबुलीवाला’ का गीत ‘गंगा आए कहां से, गंगा जाए कहां रे’ गा रहे होंगे। गंगा की लहरों से उठ रही प्रियंका के नाम की गूंज से नरेंद्र भाई के चेहरे पर उठ रही हवाइयां अब दूर से नज़र आ रही हैं।
    नरेंद्र भाई तो नरेंद्र भाई, प्रियंका के मैदान में आने की ख़बर से मैं ने अटल बिहारी वाजपेयी तक को बेतरह चिंतित होते देखा है। यह बीस बरस पुरानी बात है। तब मैं नवभारत टाइम्स में विशेष संवाददाता था। 1999 के सितंबर-अक्टूबर में लोकसभा के चुनाव होने वाले थे। सोनिया गांधी इसके डेढ़ साल पहले ही कांग्रेस की अध्यक्ष बनी थीं। वे चुनावी दौरे कर रही थीं। इसी बीच उनके एक बेहद नज़दीकी नेता ने एक शाम मुझे बुलाया और चुपचाप मेरे कान में कहा कि अटल बिहारी वाजपेयी के ख़िलाफ़ लखनऊ से प्रियंका को मैदान में उतारा जा रहा है। प्रियंका तब 27 साल की थीं, लोग तब भी उनमें इंदिरा गांधी की छवि देखते थे और सभी को लगता था कि वे राजनीति में आएंगी तो कांग्रेस के पक्ष में एक आंधी उठेगी।
    मुझे यह जानकारी देने वाले सज्जन आज भी मौजूद हैं और वे नेहरू-गांधी परिवार के इतने नज़दीक थे कि इस सूचना को नवभारत टाइम्स के पहले पन्ने की पहली सुर्खी बनाने के लालच से कौन संवाददाता या संपादक बच सकता था? सो, अगली सुबह अख़बार के सभी संस्करणों में यह ख़बर छपते ही हंगामा हो गया। अटल जी से मेरा मिलना-जुलना होता रहता था। उन्होंने मुझे फ़ोन कर के ख़बर का स्रोत्र जानने की बड़ी कोशिश की। उनकी आवाज़ में फ़िक्र का साया था। मैं ने उन्हे बताया कि मुझे जिसने बताया है, उसके बाद इतना ही बचता है कि ख़ुद सोनिया जी मुझे यह बतातीं। अटल जी की चिंता कुछ और बढ़ गई। हालांकि बाद में प्रियंका के बजाय डॉ. कर्ण सिंह से उनका मुकाबला हुआ और अटल जी क़रीब सवा लाख वोट से जीत गए।
    दो दशक बाद आज भी प्रियंका किसी भी नरेंद्र भाई की नींद उड़ा देने का माद्दा रखती हैं। इसलिए बनारस में सुनाई दे रही उनकी पदचाप से भारतीय जनता पार्टी की टांगें कांप रही हैं। मत भूलिए कि पांच साल पहले बनारस के घाटों ने जब नरेंद्र भाई को पौने चार लाख मतों के अंतर से जिता कर भेजा था, तब भी अरविंद केजरीवाल, कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी को मिला कर क़रीब साढ़े तीन लाख वोट मिल गए थे। वह नरेंद्र भाई के उफ़ान का चरम-काल था। उनकी वजह से वह भारतीय जनता पार्टी के चमचमाने का भी स्वर्ण-युग था। आज नरेंद्र भाई की वजह से नरेंद्र भाई की चुंबकीय शक्ति भी अपने सबसे निचले पायदान पर पड़ी छटपटा रही है और भाजपा भी चर्रमर्र-चर्रमर्र कर रही है। ऐसे में बनारस इस बार नरेंद्र भाई की झोली पिछली बार की तरह सवा छप्पन प्रतिशत मतों से भरने से तो वैसे ही रहा! और, कहीं अगर प्रियंका ने बनारस के घाट पर अड्डा जमा लिया तो भागीरथी की लहरें भी ऐसे धर्म-संकट में पड़ जाएंगी कि क्या कहूं!
    उत्तर प्रदेश में दो साल पहले हुए विधानसभा के चुनावों के दौरान बनारस में रहा भाजपा का अंकगणित भी ठीक से समझ लीजिए। बनारस लोकसभा की पांच विधानसभा सीटों में से चार पर भाजपा जीती थी और एक पर अपना दल। चूंकि अपना दल भाजपा के ही साथ था, इसलिए पांचों पर भाजपा को ही जीता मानें। लेकिन क्या अब अपना दल भाजपा के साथ है? सेवापुरी विधानसभा क्षेत्र में अपना दल के उम्मीदवार को क़रीब एक लाख वोट मिले थे। वहां समाजवादी पार्टी और बसपा के उम्मीदवारों को तब 90 हजार वोट मिले थे।
    बाकी चार विधानसभा क्षेत्रों में भाजपा जीती थी। रोहानिया में भाजपा प्रत्याशी को 1 लाख 20 हजार वोट मिले थे और सपा-बसपा के उम्मीदवारों को 93 हजार। बनारस-छावनी में भाजपा को 1 लाख 32 हजार वोट मिले थे। वहां कांग्रेस और बसपा के प्रत्याशी 86 हजार वोट ले गए थे। बनारस-दक्षिण से भाजपा को 92 हजार वोट मिले थे और कांग्रेस-बसपा को 81 हजार। बनारस-उत्तर से भाजपा को 1 लाख 16 हजार वोट मिले थे और कांग्रेस-बसपा को 1 लाख 3 हजार।
    यानी 2017 में पांचों विधानसभा क्षेत्रों में भाजपा और उसके समर्थक अपना दल को 5 लाख 60 हजार मत मिले और उसके विरोधियों को 4 लाख 53 हजार। सो, नरेंद्र भाई भले ही 2014 में बनारस से पौने चार लाख वोट से जीत गए हों, दो साल पहले तो उनके लोकसभा क्षेत्र में भाजपा सिर्फ़ 1 लाख 7 हजार वोट से ही आगे थी। प्रधानमंत्री के सिंहासन की तरफ़ नरेंद्र भाई को कूच करता देख बनारस ने उन्हें 5 लाख 81 हजार वोट दे डाले थे, लेकिन दो साल पहले उनकी लोकसभा सीट पर भाजपा-अपना दल के उम्मीदवारों को 5 लाख 60 हजार वोट ही मिले। ऐसे में, अब रायसीना पहाड़ी से नीचे लुढ़कते नरेंद्र भाई को बनारस कितने वोट दे देगा? और, अगर सामने बनारसी साड़ी पहने प्रियंका खड़ी मिल गईं तो बनारस क्या करेगा?
    पांच बरस में नरेंद्र भाई ने भारत को जो नाच नचाया है, उसे इस चुनाव में मतदाता कैसे भूलेंगे? आख़िर तो हम उस देश के वासी हैं, जिस देश में गंगा बहती है। गंगा के बुलावे पर बनारस आए नरेंद्र भाई से अब तो, मुझे लगता है कि, गंगा भी आजिज़ आ गई होगी। गंगा मैया इस बार नरेंद्र भाई को कैसे पार लगाएगी? गंगा मैया में पानी रहने तक भाजपा की सियासी ज़िंदगानी रहने का ख़्वाब देखने के दिन मुझे तो अब लदते दिखाई दे रहे हैं। 
    बनारस लोकसभा क्षेत्र से उम्मीदवारी के लिए नामांकन दाख़िल करने का अंतिम दिन 29 अप्रैल को होगा। तब तक एक-एक दिन कइयों पर भारी है। जिन्हें प्रियंका का क़द नरेंद्र भाई से कम लगता है, उन्हें शायद यह नहीं मालूम कि प्रियंका की सोच, नरेंद्र भाई की सोच से बहुत बड़ी है। पांच साल में हमने जैसा सियासी छिछोरापन देखा, क्या पहले कभी देखा था? सार्वजनिक तहज़ीब में ऐसे छिछलेपन का दौर क्या पहले कभी था? गरिमाहीन शूरवीरता से लबरेज़ कोई प्रतिनायक क्या हमारे जीवन में पहले कभी आया था? दूसरों की प्रतिभा और परिश्रम से मिले परिणामों को हो-हल्ला मचा कर अपने नाम लिख लेने की ऐसी हवस से क्या पहले कभी आपका साबक़ा पड़ा था? शत्रुतावादी सामाजिक विभाजन के ऐसे समय से क्या आप पहले कभी गुज़रे थे? बदलाख़ोरी के परपीड़क आनंद की शैया पर इस तरह लोटता क्या आपको पहले कोई मिला था? इस बेहाल-से मंज़र को बनारस के गंगा घाट अगर इस बार नहीं बदलेंगे तो कब बदलेंगे? इसलिए आपको दिखे-न-दिखे, मुझे तो गंगा की लहरों में एक नई रवानी दिखाई दे रही है। ऐसी रवानी, जो बनारस के ज़रिए पूरे मुल्क़ का सियासी-व्याकरण नए सिरे से लिखने वाली है। नरेंद्र भाई ने 50 दिन मांगे थे। अब सिर्फ़ 54 दिन शेष हैं। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)

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