Sunday, March 31, 2019

देशभक्ति के अभिभावक बनिए, द्वारपाल नहीं


पंकज शर्मा

    युद्ध-उन्माद के काले माहौल में अपने प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी को झूम-झूम कर विज्ञापन-कवि प्रसून जोशी की लिखी ‘मैं देश नहीं मिटने दूंगा’ गाते देख मेरे रोम-रोम में उठी तरंगें ऐसी अमिट होती जा रही हैं कि लगता है, पांवों में किसी ने अनवरत बजते रहने वाले घुघरू बांध दिए हैं। महायोगी कृष्ण की स्मृति में पग घुघंरू बांध जब मीरा ने नाचना शुरू किया तो आज तक नाच ही रही है। युगों बाद युद्ध-योगी नरेंद्र भाई के दिए घुंघरू बांध लेने के बाद हमारे पांव भी थकने का नाम नहीं ले रहे हैं। ईश्वर करे कि इसी नृत्य-मुद्रा में हमें मोक्ष-प्राप्त हो जाए।
    नरेंद्र भाई से पहले 13 लोग भारत के प्रधानमंत्री रहे, लेकिन क्या किसी ने इस तरह हमें खुलेआम मिट्टी की सौगंध खा कर यह ऐलान करने का पराक्रम दिखाया कि वह देश को नहीं मिटने देगा, देश को नहीं झुकने देगा? आज़ादी मिलते ही पाकिस्तान ने कश्मीर में घुसपैठ कर दी, मगर तब के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इतना तक नहीं किया कि अपने देशवासियों से कहते कि देश सुरक्षित हाथों में है। 1962 में जब चीन भारत पर चढ़ बैठा तो भी नेहरू ने सौगंध नहीं खाई। 1965 में पाकिस्तान से युद्ध हुआ तो लालबहादुर शास्त्री ने भी मिट्टी की सौगंध खा कर ताल नहीं ठोकी कि वे देश को नहीं मिटने देंगे। 1971 में फिर पाकिस्तान से लड़ाई हुई तो इंदिरा गांधी ने सबसे बड़ी ग़लती ही यह की कि बिना सौगंध खाए बांग्ला देश बना दिया। 1999 में करगिल की पहाड़ी को पाकिस्तान से मुक्त कराते वक़्त अटल बिहारी वाजपेयी भी अपनी माटी की सौगंध खाना भूल गए। आखिर हमारे नरेंद्र भाई को बार-बार मिट्टी की शपथ ले कर देश को इतना आश्वस्त क्यों करना पड़ रहा है?
    नरेंद्र भाई के सत्तानशीन होने के बाद, पांच बरस में, जम्मू-कश्मीर और पंजाब में कम-से-कम दस ऐसे आतंकवादी हमले हुए हैं, जिनमें पाकिस्तान स्थित गुटों का हाथ रहा है। बुडगाम से ले कर जम्मू, गुरुदासपुर, पठानकोट, उरी, बारामूला, अमरनाथ यात्रा और अब पुलवामा तक इन हमलों के निशान अब भी बिखरे हुए हैं। ज़रा सोचिए तो सही कि अगर इस दौर में हमारे पास अपने पराक्रम के हाथी पर सवार एक प्रधानमंत्री न होता तो हमारा क्या होता? भारत का सिर न झुकने देने के लिए उन्होंने क्या-क्या नहीं किया? प्रधानमंत्री पद के अपने शपथ समारोह में तमाम गुज़ारिशें कर पाकिस्तानी हुक्मरान को लाए। बांहें फैला कर उनसे मिलने बिन बुलाए ख़ुद पाकिस्तान गए। जितने पापड़ बेल सकते थे, बेले।
    फिर नरेंद्र भाई को लगा कि भय बिन प्रीत नहीं होती है, सो, सर्ज़िकल स्ट्राइक के तमगे अपने सीने पर ज़ोर-शोर से टांगने का दौर आया। और, जैसा कि पांच साल से हो रहा है कि जो हो रहा है, पहले कभी नहीं हुआ था, तो पूरा मुल्क़ हकबका कर ये क़िस्से भी सुनता-सुनाता रहा। तब किसे पता था कि जिस राह पर हम चल पड़े हैं, वह अंततः तो उस युद्ध की तरफ़ मुड़ेगी, जिसकी शुरुआत भले ही किसी के भी हाथ में हो, उसका अंत किसी के भी हाथ में नहीं होगा। आख़िर हम वह युद्ध किस हवन कुंड से आहूत करेंगे, जो सभी युद्धों का अंत कर दे? तब युद्धोन्माद की आंच पर धधकती दो मुल्क़ों की देगचियों को फूटने से बचाने का कौन-सा नुस्ख़ा सियासी लुक़मानों के पास होगा?
    तो भले ही आज प्रसून जोशी की तुकबंदियों का ताबीज़ हम अपने गले में लटका लें, अपने गले उतार लें और दूसरों के गले भी डाल दें। इसलिए कि प्रसून की विज्ञापनी-पंक्तियों को हमारे प्रधानमंत्री के गले का स्वर मिला है, हम उनका मान रख लेंगे। ईंट-रोड़ी प्रतिभा की उपज ये पंक्तियां लिखी तो गई थीं नरेंद्र भाई के 2014 के आम-चुनाव के लिए। मगर किसे पता था कि पांच साल बाद हमसे इनका परचम माथे पर बांध कर घूमने की उम्मीद एकदम अलग संदर्भों में की जाएगी? मत-मैदान में दौड़ते हुए दूसरों से आगे निकलने की बिसात बिछाने के लिए की गई शाब्दिक पच्चीकारी को एक नए राष्ट्रगान में तब्दील करने की इस हिमाक़त पर भी जिन्हें खींसे निपोरने हों, निपोरें। मुझे तो इसकी ओट से दांत पीसता देश दिखाई दे रहा है।
    कौन कहता है कि भारत पर हमला करने वाले आतंकवादियों को नेस्तनाबूत करने में एक लमहे की भी देरी करनी चाहिए? कौन कहता है कि इस तरह की गतिविधियों के लिए अपनी ज़मीन का इस्तेमाल करने देने वाले पाकिस्तान से दो टूक बात नहीं होनी चाहिए? जब सब याद दिला रहे थे कि पाकिस्तान के साथ अंतरराष्ट्रीय राजनय के गलियारों में बहुत रूमानी होने की ज़रूरत नहीं है, तब तो नरेंद्र भाई ’तुझको पुकारें मेरे गीत’ गाते झूम रहे थे। जब सब इशारे कर रहे थे कि भारत-पाकिस्तान के संबंधों का इतिहास सुगम संगीत नहीं, पक्का राग है, इसलिए लंबे आलापों को सुनने-समझने की ज़रूरत है, तब तो नरेंद्र भाई ’मुझे रोके ना कोई’ की ताल पर थिरकने से नहीं अघा रहे थे। अब जब गोखरू के असली कांटे उनके बिछाए गलीचे की सतह फाड़ बाहर आ गए हैं तो वे किसे जतला रहे हैं कि देश नहीं झुकने देंगे?
    देश को तो देशवासी नहीं मिटने देंगे। अब तक देशवासियों ने ही देश को नहीं मिटने दिया है। हस्ती हमारी इसलिए नहीं मिटती है कि देशवासी कभी उनींदे नहीं होते। वे आज भी झपकी नहीं ले रहे हैं। वे खुली आंखों से सब देख रहे हैं। सब-कुछ। इसलिए देशवासियों के रहते देश कभी नहीं झुकेगा। देश, देशवासियों के हाथों में सुरक्षित है। नरेंद्र भाई, आप हैं, अच्छा है; कोई और भी होता तो देश सुरक्षित ही था; कोई और भी होता तो भी हम देश नहीं मिटने देते। और इसके लिए हमें किसी विज्ञापन-कवि के बिगुल-वादन से आत्म-बल हासिल करने की ज़रूरत नहीं थी। देशप्रेम की इतनी घुट्टी तो हर भारतवासी को हर मां अपने गर्भ में ही दे देती है कि बाकी पूरी ज़िंदगी उसे किसी सियासी च्यवनप्राश के सहारे की ज़रूरत न पड़े।
    नरेंद्र भाई, मैं पूरी शिद्दत से आपके साथ खड़ा हूं। भारत के उस प्रधानमंत्री के साथ, जिसने लालकिले से पहले भाषण में अपना यह दर्द बयां किया था कि ‘देश विभाजन तक हम पहुंच गए... ये पापाचार कब तक चलेगा? किसका भला होता है? बहुत लड़ लिया... बहुत लोगों को काट लिया... बहुत लोगों को मार दिया। एक बार पीछे मुड़ कर देखिए, किसी ने कुछ नहीं पाया है। ...पड़ौसी देशों के पास भी तो ग़रीबी जैसी ही समस्याएं हैं... क्यों न हम सभी सार्क देशों के साथ मिल कर ग़रीबी के खि़लाफ़ लड़ाई लड़ने की योजनाएं बनाएं... एक बार देखें तो सही कि मरने-मारने की दुनिया को छोड़ कर जीवित रहने का आनंद क्या होता है? ...मारने वाले से बचाने वाले की ताक़त हमेशा ज़्यादा होती है...।’
    लेकिन आप कहां भटक गए, नरेंद्र भाई? भारतवासी इस विचलन को भांप रहे हैं। पांच बरस में भारतीय लोकतंत्र ने अपने प्रधानमंत्री के बहकते क़दमों पर कई बार गौर किया है। बेसुरे क़दमताल पर देश ने अपने मौजूदा प्रधानमंत्री को कई बार आग़ाह किया है। लेकिन इस बार का विचलन भारत को बहुत नाज़ुक मोड़ पर ले जा रहा है। सो, देशभक्ति के द्वारपाल मत बनिए, हुजू़र; बनना है तो देशभक्ति के अभिभावक बनिए। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)

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