Wednesday, November 20, 2019

नगलागढ़ू के रामेश्वर ताऊ


आधी सदी बीतने को है, जब हमारे नगलागढ़ू में एक रामेश्वर ताऊ अपने पूरे जलवे-जलाल पर हुआ करते थे। अब नहीं हैं। उन्हें गुज़रे पच्चीस-तीस साल तो हो गए होंगे। रामेश्वर ताऊ गॉव की, अगल-बगल के गॉवों की, तहसील और ज़िले की, राज्य और देश की राजधानी की, ख़बरों से लबरेज़ रहा करते थे। विचारों से भी प्रखर थे और ज़ुबान से भी। चिलम का सुट्टा लगाते ही उनका मन-मस्तिष्क और भी प्रखर हो जाता था।
उस ज़माने में चंद्रभानु गुप्ता से ले कर चरण सिंह तक और कमलापति त्रिपाठी से ले कर हेमवतीनंदन बहुगुणा तक उत्तर प्रदेश के सारे मुख्यमंत्रियों को वे अपने तर्क-कुतर्कों से ना-लायक़ साबित करते रहते थे। यह नहीं किया, वह नहीं किया, ऐसा करते तो बेहतर होता, वैसा करते तो बेहतर होता। करने के पीछे और न करने के पीछे ऐसे-ऐसे सियासी और सामाजिक कोण रामेश्वर ताऊ उलीच कर लाते थे कि, मेरी तो उम्र ही क्या थी, छब्बेदार मूंछों वाले हरप्रसाद पंडित भी घिन्नाटी खा जाते थे।
इंदिरा गांधी उन दिनों प्रधानमंत्री थीं और रामेश्वर ताऊ तो क्या गॉव-का-गॉव उनका ऐसा मुरीद था कि वे कुछ ग़लत कर ही नहीं सकती थीं। जवाहरलाल की बेटी पर ऐसी आस्था तब हर खलिहान में थी। रामेश्वर ताऊ अपनी धोती का छोर कमर में खोंस कर हर शाम चौपाल पर ताल ठोकते थे कि चंद्रभानु, चरण सिंह, कमलापति, बहुगुणा–जिसमें भी दम हो वह नगलागढ़ू आ कर उनसे शास्त्रार्थ कर ले। या फिर बस का टिकट कटाए और उन्हें ‘नखलऊ’ बुला ले। क्यों कि रामेश्वर ताऊ लखनऊ जाकर ‘इन मूर्खों को अपना ज्ञान भी दें और ख़ुद का पैसा भी खर्च करें’, यह उन्हें मंजूर नहीं था।
अपना पैसा लगा कर रामेश्वर ताऊ हर पूर्णिमा को गंगा जी जाने का काम भर करते थे। इसमें भी कोशिश यही होती थी कि कोई मुफ़्त की सवारी मिल जाए। गॉव में तो पक्की सड़क तब थी नहीं, सो, रामेश्वर ताऊ कोई दो कोस पैदल चल कर बगल के कस्बे में पहुंच जाते थे और ट्रक ड्राइवरों की मेहरबानी से गंगा जी नहा आते थे। सिर्फ़ पूनम का दिन ही होता था, जब वे चिलम नहीं खींचते थे। और-तो-और उस दिन-रात हुक्का भी नहीं गुड़गुड़ाते थे। पौ फटने के बहुत पहले ही गंगा जी के लिए निकल पड़ते थे और सांझ ढलने के कुछ देर बाद तक लौट आते थे।
मुझे इसलिए मालूम है कि उछाह भरे बचपन के दिनों में वे मुझे भी पकड़ कर दो-चार बार गंगा जी नहलवा लाए। ख़ुद पर खर्च करने में भले ही कंजूस थे, लेकिन मुझे जब भी ले गए, दिन भर में दसियों बार ‘लल्लू ये खा ले, लल्लू वो खा ले’ कहते रहते थे। बातों-बातों में ज़िंदगी का मर्म ऐसे समझा देते थे कि अब सोचता हूं तो लगता है कि रामेश्वर ताऊ कोई फक्कड़ संत थे। मुझे याद नहीं कि उनके कोई भाई-बंधु, बीवी-बच्चे या नाते-रिश्तेदार भी थे। यह भी नहीं पता कि हमारे परिवार की तरह उनकी भी कोई छोटी-मोटी खेती-बाड़ी थी या नहीं? मुझे नहीं मालूम कि उनका भोजन-पानी कैसे चलता था? मुझे लगता है कि गॉव की ज़िंदगी में तब सब का भोजन-पानी बिना अपनी गरिमा खोए चल ही जाता था।
रामेश्वर ताऊ की आमदनी का ज़रिया क्या है, यह सोचने की न मेरी उम्र थी, न समझ। रामेश्वर ताऊ से किसी की भी सहमति-असमहति अपनी जगह थी, मगर उनकी बातें सुनना सब चाहते थे। सात-सात कोस तक उनकी नारदीय प्रतिष्ठा थी और सई-सांझ अगर कोई उनसे मुंह फुला भी ले तो अगले दिन की चौपाल जुड़ने तक सब अपने आप ही फिर पहले जैसा हो जाता था।
आज मुझे रामेश्वर ताऊ की याद ऐसे ही नहीं आई है। मुझे यह याद इसलिए आई है कि मैं आश्वस्त हूं कि अगर वे आज होते, और हमारे नगलागढ़ू की चौपाल भी वैसी-की-वैसी ही होती, तो रामेश्वर ताऊ नरेंद्र भाई मोदी और अमित शाह के किए-कराए में अपने तर्कों की भुस भर देते और राहुल गांधी समेत समूचे विपक्ष को भी चुल्लू भर पानी में डुबो देते। वे राहुल से पूछते कि अगर इंदिरा जी हर हाल में इसलिए डटी रहीं कि वे जवाहरलाल की बेटी हैं तो तुम होते कौन हो कि इंदिरा जी का नाती होते हुए भी इस तरह विचलित हो जाओ? वे होते तो कम-से-कम हमारे गॉव की चौपाल पर तो आज का सत्ता-पक्ष, अपनी तमाम ताल-ठोकू शैली के बावजूद, उनसे शास्त्रार्थ करने के पहले दस बार सोचता और आज के विपक्ष की तो हैसियत ही नहीं होती कि रामेश्वर ताऊ की आंख-से-आंख मिला ले।
योगी आदित्यनाथ का तो वे ऐसा अजयसिंह बिष्टीकरण कर चुके होते कि स्वयं योगी अपनी यौगिक कलाएं भूल जाते। नरेंद्र भाई और अमित भाई भले ही बस का टिकट कटवा कर उन्हें दिल्ली न बुलाते और ‘बिष्ट-मुनि’ भी चाहे उन्हें ‘नखलऊ’ आमंत्रित न करते, रामेश्वर ताऊ नगलागढ़ू में हमारे वैद्य जी, शंभू जी, बापू जी और श्री चाचा की चौपाल पर तो मोहन भागवत और उनके गुरु-भाइयों के घुटन्ने ट्रंप, नेतन्याहू, पुतिन और शी जिनपिंग के साथ घुटन्ने में उतार ही डालते।
रामेश्वर ताऊ होते तो नगलागढ़ुओं की हवा में एक अलग ही ख़ुशबू तैर रही होती। वहां की नहरों में कुछ अलग ही पानी बह रहा होता। खेतों में कुछ दूसरा ही हरा-भरा पन होता। चूंकि यह सब नहीं है, इसलिए मुझे रामेश्वर ताऊ की याद आई। वे उनमें नहीं थे, जिनके नाम पर ‘वाद’ चला करते हैं। इसलिए रामेश्वर-वाद तो आप-हम कभी सुनेंगे नहीं। लेकिन एक बात मैं आप को बताता हूं। रामेश्वर ताऊ ने कभी किसी से नहीं कहा कि ‘जो घर फूंके आपना, चले हमारे साथ’। उन्होंने किसी से कहा ही नहीं कि चलो मेरे साथ। वे अकेले ही चले, अकेले ही रहे। अकेले ही आए, अकेले ही गए। कहा भी तो गंगा जी नहाने के लिए साथ चलने को कहा। कोई गया तो ठीक, नहीं गया तो ठीक। रामेश्वर ताऊ को हर पूर्णिमा का स्नान करना है तो उन्होंने किया। कभी नागा नहीं की। सब के साथ रहे, पर सब को अपने साथ रखने का कोई आयोजन-प्रयोजन नहीं किया। बस, जस-की-तस रख दीन्हीं चदरिया।
आज जब नरेंद्र भाई धरती का कोना-कोना खंगाल रहे हैं, आज जब विपक्ष के एक-से-एक धुआंधार रुस्तम कोने में दुबके बैठे हैं या दुबका दिए गए हैं, रामेश्वर ताऊ की याद में मेरी आंखों के कोने नम हैं। वे नगलागढ़ू के ताऊ थे। डेढ़-दो सौ की आबादी वाले एक गॉव के ताऊ थे। आसपास के दस-बीस गॉवों के ताऊ थे। आज जब जगत-ताउओं की ज़रूरत है तो दो-पांच गॉवों तक के रामेश्वर ताऊ हमें खोजे नहीं मिल रहे। अगर यह चिंता भी हमें नहीं सालती तो हमारा भगवान ही मालिक है। रामेश्वर ताऊ होते तो, मैं जानता हूं कि, वे ट्रैक्टर-ट्रक चालकों के सहारे ही हमारे जनतंत्र को गंगा नहलवा आते। वे होते तो संसदीय-अयोध्या पर ‘सर्वे सन्तु निरामयाः’ की गंगाजली छिड़क रहे होते। वे होते तो जो हो रहा है, वह भले हो रहा होता, मगर रामेश्वर ताऊ के चिलम की लौ भी सबसे ऊंची लपक रही होती। मैं ने बचपन में देखा ज़रूर, लेकिन बच्चा था, सो, हुक्का और चिलम भरने का किसी ने मौक़ा नहीं दिया। आज रामेश्वर ताऊ हों तो मैं जीवन भर उनका हुक्का और चिलम भरने में अपना सौभाग्य समझूं।

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