पंकज शर्मा
हरियाणा और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव नतीजों से नरेंद्र भाई मोदी शैली की ढोल-ढमाकाई और घुड़कीबाज़ सियासत के ख़िलाफ़ असहमति में उठे हाथ का औपचारिक ऐलान हो गया है। यह विपक्ष की वजह से नहीं, मतदाताओं की वजह से मुमकिन हुआ है। अगर मतदाता घरों से निकल कर विपक्ष के पैरों की बेड़ियां नहीं तोड़ते तो वह अब भी अपनी लूली घिसटन लिए बिलबिला रहा होता। सो, जब लोगों को लगा कि यह तो हद ही हो गई कि ‘मोशा-दौर’ पर लगाम लगाने में सब की हिम्मत जवाब देती जा रही है तो वे ख़ुद अपने-अपने गांवों से यह संदेश देने निकले कि किसी को यह ग़लतफ़हमी न रहे कि देश एक रंग में रंग गया है और जनता में अभी बहुत जान बाकी है।
हरियाणा और महाराष्ट्र से आए नतीजे पूरे मुल्क़ की बानगी हैं। अब तय विपक्ष को करना है कि इसके बाद भी वह उठ कर खड़ा होना चाहता है या नहीं, अपने को एकजुट करना चाहता है या नहीं और जनता की उम्मीदों पर खरा उतरना चाहता है या नहीं? 2014 में नरेंद्र भाई के आगे-पीछे गरबा करते उन्हें दिल्ली तक लाने वाली बारात के बारातियों का बड़े हिस्से को 2016 की सर्दियों में ही ठिठुरन ने अपनी लपेट में ले लिया था। नोट-बंदी ने उन्हें बुरी तरह सहमा दिया। लेकिन वे राष्ट्रवाद के अलाव के सामने अपनी हथेलियां आपस में रगड़ कर किसी तरह ख़ुद को गर्म रखने की कोशिशों में लगे रहे। फिर 2017 में 30 जून की आधी रात, जब तारीख़ 1 जुलाई हो रही थी, तो संसद के केंद्रीय कक्ष में नरेंद्र भाई के जीएसटी-घंटनाद ने फिर एक ऐसा थपेड़ा दिया कि मुल्क़ का जबड़ा हिल गया। मगर सर्जिकल स्ट्राइक की आतिशबाज़ी से कुछ वक़्त फिर लोगों ने अपने दिल बहला लिए।
2019 की गर्मियां आते-आते हालांकि देशवासियों का मन राजकाज की मोशा-शैली से भीतर-ही-भीतर भिनभिनाने लगा था, मगर खुल कर ‘राजद्रोही’ बनने की हिम्मत किसी की नहीं पड़ रही थी। सो भी ऐसे माहौल में, जब सरकार पर सवाल उठाने का मतलब देश पर सवाल उठाना बना दिया गया हो। बोलते ही आपके माथे पर देशद्रोही होने का कलंक लगाने के लिए आस्तीन में कालिख लिए घूम रहे दस्तों से निपटना आम-जन के लिए लंका-विजय जैसा दुरूह था। ऐसे में परत-दर-परत अहसास भीतर तो गहरा होता गया, मगर बाहर आने की दुविधा से भी घिरा रहा। नतीजा हुआ कि नरेंद्र भाई आम-चुनाव में ‘थ्री-नॉट-थ्री’ जीत लहरा कर दोबारा दुगने जोश से लोकसभा में घुस गए।
विपक्ष को कुचलने में वैसे भी ‘मोशा’ कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे, बाकी का स्व-नाश करने में विपक्ष ख़ुद जुटा हुआ था। दूसरी बड़ी हार के बावजूद, राहुल गांधी ने 2019 के आम-चुनाव में नरेंद्र भाई की नींद जिस तरह उड़ा दी थी, उसकी सब तारीफ़ कर रहे थे। वे ‘पराक्रमी’ नरेंद्र भाई का ‘सतत सनातनी’ विकल्प बनने की दहलीज़ पर आ कर पूरी दृढ़ता से खड़े हो गए थे। मगर बीहड़ संघर्ष के दिनों में अपनों के रवैए की चुभन राहुल को इतनी साल रही थी कि वे कांग्रेसी-यशोधरा को रातों-रात छोड़ गए। इससे नरेंद्र भाई के मन की पूरी हो गई। कांग्रेस में आए शून्य से पूरे विपक्ष पर एक अजीबो-ग़रीब कुहासे के बादल घिर आए। क्षत-विक्षत विपक्ष ने नरेंद्र भाई को बिना किसी से पूछेताछे धारा 370 हटाने जैसे कामों के दुस्साहस से भर दिया। उन्हें लगा कि देस-परदेस में इसे ले कर उनके जयकारे लग रहे हैं। मगर वे समझ नहीं पाए कि दीवाने-ख़ास में बज रहे नगाड़ों के शोर में दीवाने-आम के घंुघरुओं की आवाज़ अभी सुनाई नहीं दे रही है। सो, वे 370 हटाने का श्रेय स्वयं को देते हुए हरियाणा और महाराष्ट्र में पिल पड़े। सोचा कि इस खाद से तो मतों की फ़सल ऐसी लहलहाएगी कि लोग चकित रह जाएंगे।
लेकिन भारत के लोग नरेंद्र मोदी से ज़्यादा बुद्धिमान हों, न हों; वे उनसे ज्यादा विवेकवान तो निश्चित ही हैं। भारत के लोग किसी साकार-विपक्ष के मोहताज़ भी नहीं हैं। वे अपना राजा भी ख़ुद ही गढ़ते हैं और समय आने पर उसका प्रतिलोम भी ख़ुद ही रचते हैं। हरियाणा और महाराष्ट्र से आई चिट्ठी में लिखा है कि शहंशाह की मनमानी हम अब नहीं चलने देंगे। मैं जानता हूं कि नरेंद्र भाई ने तो इस चिट्ठी को तार समझ कर ग्रहण किया है। मगर विपक्ष अगर अब भी निराकार ही रहना चाहे तो इसका मतलब है कि उसकी क़िस्मत ही फूटी है। अगर किसी को लग रहा है कि महाराष्ट्र में एनसीपी के शरद पवार और कांग्रेस के बालासाहब थोराट के नायकत्च को वोट मिले हैं तो मैं हंसने के अलावा क्या करूं? अगर किसी को लग रहा है कि हरियाणा में भूपिंदर सिंह हुड्डा और कुमारी सैलजा के प्रति आस्था को यह दक्षिणा मिली है तो मैं रोने के अलावा क्या करूं? जो हुआ वह राजकाज की मोदी-शैली से इनकार की बौछार है। इसके छींटों ने प्रतिपक्ष के गाल स्वयमेव गुलाबी कर दिए हैं।
यह सवाल उठाने वालों को, कि क्या धारा 370 हटने से महाराष्ट्र की ज़मीनी समस्याएं हल हो जाएंगी, नरेंद्र भाई ने ‘डूब मरो-डूब मरो’ कह कर धिक्कारा था। महाराष्ट्रवासियों ने इसका जवाब उस परली विधानसभा क्षेत्र से पंकजा मुंडे को करारी शिक़स्त दे कर दे डाला, जहां से नरेंद्र भाई ने अपने चुनाव अभियान की शुरुआत की थी और अमित शाह भी जहां घनघोर प्रचार के लिए गए थे। यह जवाब है कि आसमान की सुल्तानी अपनी जगह है, ज़मीनी मसले अपनी जगह। हरियाणा में भी भाजपा-सरकार के आठ मंत्रियों को बुरी तरह हरा कर वापस भेज देने के पीछे इसी सोच ने काम किया। पांच महीने पहले हुए लोकसभा के चुनावों के समय महाराष्ट्र में विधानसभा की 140 सीटों पर भाजपा को बढ़त मिली थी और हरियाणा में 80 पर। अब विधानसभा के चुनाव हुए तो महाराष्ट्र में भाजपा को 105 सीटें मिली हैं और हरियाणा में सिर्फ़ 40। डेढ़ सौ दिन के भीतर-भीतर महाराष्ट्र में भाजपा का वोट 23.2 प्रतिशत कम हो गया और हरियाणा में 2.1 प्रतिशत।
यह हालत तब हुई है, जब विपक्ष के सारे घोड़े ज़ख़्मी थे, जब उसके योद्धाओं के हाथों में टूटी तलवारें थीं और जब उसकी मंज़िल की तमाम दिशाएं घने कोहरे की वजह से अदृश्य थीं। पिलपिले मनोबल और अनमने विपक्ष के सामने भी अगर मतदाताओं ने भाजपा की यह हालत कर दी तो तब क्या होता, जब विपक्ष ने भी जनता की ताल से ताल मिला ली होती? क्या मेरे साथ आप ऐसे मतदाताओं को सलाम नहीं करेंगे, जो विपक्ष के अष्टावक्री आकार-प्रकार से हताश नहीं हुए? सकल-विपक्ष को यह तथ्य अपनी आत्मा में बसा लेना चाहिए कि 2019 के जिस लोकसभा चुनाव में नरेंद्र भाई की दुंदुभी बजी है, उसमें भी मतदान केंद्रों तक गए 61 करोड़ मतदाताओं में से 38 करोड़ भाजपा के ख़िलाफ़ वोट दे कर लौटे थे। और, ऐसा उन्होंने अपने आप किया था। उनमें से साढ़े ग्यारह करोड़ मतदाताओं ने यह काम राहुल गांधी और उनकी कांग्रेस के भरोसे किया था। इसके बाद भी अगर चंद चुनमुनियों के चलते राहुल उन्हें छोड़ चलें तो मैं राहुल से क्या कहूं? मैं तो इतना ही जानता हूं कि हरियाणा और महाराष्ट्र में आए जनादेश ने विपक्ष की जवाबदेही और भी बढ़ा दी है। बाकी विपक्ष जाने!
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