पंकज शर्मा
पिछले पांच साल में हम एक अजीबोग़रीब विरोधाभास के बीच से गुज़रे हैं। एक तरफ़ हमारे पास घनघोर ऊर्जा से लबालब ऐसा प्रधानमंत्री है, जिसने अपने देश का चप्पा-चप्पा नापने के साथ पूरी धरती का कोना-कोना भी छान मारा है। जो बस्ती-बस्ती, जंगल-जंगल, अपनी ही धुन में, पता नहीं क्या गाता, चला जा रहा है। जिसे लगता है कि उसने अपने मुल्क़ में एक ऐसा सतयुग स्थापित कर दिया है कि जहां अब न कोई ग़म है, न कोई आंसू और बस प्यार-ही-प्यार फल-फूल रहा है।
लेकिन दूसरी तरफ़ भारत एक ऐसा देश बनता जा रहा है, जिसने अपनी स्वाभाविक तरंग खो दी है, जिसके भीतर की प्राकृतिक ऊष्मा फ़ना होती जा रही है और जिसके बाशिंदे रह-रह कर सिसकियां ले रहे हैं। भारत के लोग ख़ुद को मनुष्य से मशीन में तब्दील होते देख रहे हैं। वे किसी शासन-व्यवस्था को चलाने वाला पुर्ज़ा भर बनते जा रहे हैं। उनकी ख़्वाहिशों का, उनकी भावनाओं का और उनकी उमंगों का, उनके ही जीवन में, स्थान सिमटता जा रहा है।
ऐसा क्यों हो रहा है? अगर भारत का राजा अर्थवान है, अगर उसके राज-काज की दिशा जनोन्मुखी है, अगर उसके भीतर की ताब सकारात्मक है तो मुल्क़ की टहनियों पर टेसू के फूल क्यों नहीं खिल रहे? टहनियां सूख क्यों रही हैं? अगर हमारा शहंशाह अपने हाथों से ख़ुद हमारे छप्परों की फूस सहेज रहा है तो हमारी छतें बेतरह ऐसे क्यों टपक रही हैं? हमारे आंगन में सन्नाटा-सा क्यों पसरता जा रहा है?
यह मानने को मेरा मन नहीं करता कि कोई राजा अपने ही राज्य को बर्बाद करने का काम करता होगा। आख़िर क्यों कोई ऐसा करेगा? राज्य है तो राजा है। राज्य ही नहीं होगा तो राजा कहां से होगा? क्या कोई राजा इतना मूढ़ हो सकता है कि इस राज़ को न जानता हो? यह मानने को भी मेरा मन नहीं करता कि किसी राज्य की प्रजा बेबात अपने राजा से अप्रसन्न रहने लगती होगी। अगर सब-कुछ ठीक-ठाक चल रहा हो और तमाम घोड़े राजा के रथ को सही दिशा में ले जा रहे हों तो क्यों कहीं की भी प्रजा अपने राजा से उदास रहेगी?
सो, इन पांच वर्षों ने राजा-प्रजा समीकरण की सारी स्थापित मान्यताओं पर प्रश्नचिह्न लगा दिया है। राजा तो आया ही अच्छे दिन लाने के सपनीले घोड़े पर सवार हो कर था। उसका दावा है कि अच्छे दिन बहुत-कुछ तो आ ही गए हैं और बचे-खुचे भी कुछ ही दिन दूर हैं। राजा की दैनंदिनी में भाग-दौड़ ही भाग-दौड़ है। इस डाल से उस डाल तक, उस डाल से उस डाल तक–वह दिन-रात एक किए हुए है। उसने भीतर तक क़रीब-क़रीब सब बदल डाला है। हमें सोच-विचार के नए विकल्प दिए हैं। हमें रहन-सहन और खान-पान के नए विकल्प सुझाए हैं। हमें खर्चा-पानी करने के नए तौर-तरीक़ों में ढाला है। हमें मोह-माया से विलग होने को प्रेरित किया है। और-तो-और, हमें अपने अतीत को देखने के लिए भी एक नई दृष्टि प्रदान करने में कोई कसर बाक़ी नहीं रखी है।
तो एक राजा और क्या करे? पांच साल में इतना तो अपने राज्य के लिए पांच हज़ार साल में किसी राजा ने नहीं किया। इसलिए मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि प्रजा फिर भी भुनभुना क्यों रही है? अब सदियों से जो देश नहाया-धोया नहीं था, सदियों से जिसने दातुन नहीं की थी, सदियों से जिसके कपड़े नहीं धुले थे, उसे आज की वैश्विक दुनिया के लायक़ बनने में कुछ तो कष्ट प्रजा को भी उठाने पड़ेंगे। बेढब पत्थरों को सुंदर प्रतिमाओं में बदलने का काम करने के लिए राजा ने छैनी-हथौड़ी अपने हाथ में ली है तो इतना भी क्या रोना-पीटना?
आपको इससे कोई फ़र्क़ पड़े या न पड़ें कि आपका वंश-वृक्ष आर्य है या अनार्य, द्रविड़ है या अ-द्रविड़, मूल-वासी है या अ-निवासी; आपके राजा को इससे बहुत फ़र्क़ पड़ता है। इसलिए कि जो आप हैं, वही वह है। उसे इस धरती पर गर्व है। उसे इसी धरती का होने पर गर्व है। राजा के साथ मुझे भी इस धरती पर गर्व है। मुझे भी इसी धरती का होने पर गर्व है। आपको नहीं है तो आप जानें। मैं तो अपने राजा के साथ यह भूलने को तैयार हूं कि मेरे पूर्वज कहां से आए थे। अब जब मैं मनुष्य से अर्द्ध-मनुष्य हो ही गया हूं और पूर्ण-मशीन बनने के गरमा-गरम प्रक्रिया-कुंड में खदबदा रहा हूं तो अपनी वंश-जड़ों को कब तक चाटता रहूंगा? मशीन कहां से आई है, इससे क्या? मशीन जिस काम के लिए बनाई गई है, उसे वह काम करना है।
सो, मैं एक संवेदनहीन रोबोट बनने को तैयार हूं। अपने राजा की छत्र-छाया में अपनी संवेदनाओं को मारने का अभ्यास कर रहा हूं। लेकिन चूंकि अभी मेरी संवेदनाएं पूरी तरह मरी नहीं हैं, इसलिए मुझे अहसास है कि प्रजा अपने राजा से इतनी अनमनी क्यों होती जा रही है। ऐसा इसलिए हो रहा है कि भारत को सवा अरब पुतलों का मुल्क़ बना देने के राजकीय-अभियान पर प्रजा को आपत्ति नहीं, घोर आपत्ति है। वह नहीं चाहती कि भारत भी ऐसा देश बने, जहां राजा कहे सावधान तो सावधान और विश्राम तो विश्राम। भारत की तो पहचान ही उसकी आज़ादख़्याली से है। जो भी राजा जब-जब यह स्वतंत्रता छीनता दिखा, प्रजा ने उसका अश्वमेध अपने खूंटे पर बांध डाला। भारतीय मानस आज इसी देहरी पर बैठा दिखाई दे रहा है।
ज़ाहिर है कि राजा को यह दिखाई नहीं दे रहा है। राजाओं को आदत हो जाती है कि न तो उन्हें दूर का दिखाई देता है और न पास का। राजमहल में बैठने से ही कोई राजा नहीं हो जाता है। राजा एक वृत्ति है। राजा एक प्रवृत्ति है। बहुत-से हुए, जो राजमहल में रहे, मगर राजा नहीं हुए। बहुत-से हैं, जो राजमहल छूट जाने के बाद भी राजा ही बने रहे। जब राजा की प्रवत्ति से भरा-पूरा कोई व्यक्ति राजमहल भी हासिल कर लेता है तो करेला नीम पर चढ़ जाता है। इतिहास ने हमें बताया है कि राजा और राजमहल के ऐसे गठजोड़ों ने बड़े-बड़े राज्य तबाह कर डाले। भरत-भूमि की अंतः-तपस्या उसे कब तक बचा कर रख पाएगी, देखना अभी शेष है।
ऐसा तो अभी नहीं है कि प्रजा घरों से निकल पड़ी है। लेकिन ऐसा ज़रूर है कि प्रजा अपने घरों से आहिस्ता-आहिस्ता बाहर निकलने लगी है। इतना भी क्या कम है? साल भर पहले तक तो लोग अपनी खिड़कियों से बाहर झांकने को भी तैयार नहीं थे। बाहर कभी धार्मिकता का, कभी राष्ट्रवाद का और कभी अपने भक्तिवाद का सायरन बजाते सनसनाते घूम रहे दस्तों से भयभीत समाज ने अब दीवारों की ईंटें हिलाना शुरू कर दी हैं। प्रजा ने इतना तो साफ कर दिया है कि उसे कोड़े फटकारता राजा नहीं चाहिए। सो, या तो राजा अपने को बदले। नहीं तो प्रजा अंततः राजा को बदलेगी। देर-सबेर यही होना है। आप देखेंगे कि जनतंत्र की रेल अब अगले जिन-जिन स्टेशन पर रुकेगी, अपने सपनों की गठरियां ले कर उसमें इतनी नई सवारियां चढेंगी कि 2024 की गर्मियां आते-आते वह भीतर से छत तक ठसाठस भर चुकी होगी। चार साल हैं, लेकिन चार साल कौन-से ज़्यादा होते हैं?
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