Wednesday, November 20, 2019

वैराग्य, संन्यास और मुक्ति का असली मार्ग


राहुल गांधी चाहते क्या हैं? यह मानने को तो उनके दुश्मनों का भी मन नहीं करेगा कि वे चाहते हैं कि कांग्रेस ख़त्म हो जाए। वे तो कह रहे थे कि मेरी शादी तो अब कांग्रेस से हो गई है। अब कांग्रेस ही मेरा जीवन है। तो फिर भरी जवानी में बेबात कोई क्यों विधुर होना चाहेगा? लेकिन कांग्रेस की तबीयत जब इतनी नासाज़ चल रही है तो राहुल उसके इलाज़ पर ठीक से ध्यान क्यों नहीं दे रहे हैं? उसे झोला-छाप चिकित्सकों की मेज पर उन्होंने क्यों छोड़ रखा है?
प्रियंका गांधी क्या चाहती हैं? अपनी दादी और पिता के ज़माने से कांग्रेस के जिस अहसास के साथ वे बड़ी हुई हैं, कौन मानेगा कि आज के हालात उन्हें ग़मज़दा न करते होंगे? उनके पैर उत्तर प्रदेश की सरहद से बांध दिए गए हैं। सो, सांगठनिक मर्यादा की शराफ़त का वे पालन कर रही हैं और अपने मतलब-से-मतलब रखने के अलावा और कुछ करने को तैयार नहीं हैं। कांग्रेस में मौजूद प्रतिभाओं की ऊर्जा के न्यूनतम-उपयोग की इस वक़्त वे सबसे बड़ी मिसाल हैं।
सोनिया गांधी क्या चाहती हैं? दो दशक पहले के अंधकूप से जिस कांग्रेस को बाहर ला कर उन्होंने रायसीना की पहाड़ियों पर दोबारा आसीन करा दिया था, क्या उसकी ऐसी अधमरी हालत उन्हें सुख पहुंचाती होगी? राहुल के अध-बीच इस्तीफ़े के बाद अंतरिम-कमान संभालने के लिए तैयार होना क्या उनके लिए आसान फ़ैसला रहा होगा? मगर फिर भी अगर उन्होंने यह किया तो उनकी यह मंशा साफ़ है कि अपने होते तो वे कांग्रेस को लुट-पिट जाने देंगी नहीं।
कांग्रेसी नेता क्या चाहते हैं? ज़्यादातर को कांग्रेस से पहले भी कोई लेना-देना नहीं था, आज भी नहीं है। वे आज की कमज़ोर हालत का फ़ायदा उठा कर और ज़ोर-शोर से बची-खुची नोंच-खसोट में लग गए हैं। इनेगिने हैं, जो पहले भी दधीचि थे और अब भी सोचते हैं कि रही-सही हड्डियां भी अगर कांग्रेस को जिलाने के काम आ जाएं तो इतना आत्म-संतोष ही काफी है। मगर उन्हें पूछ कौन रहा है?
कांग्रेस के आम कार्यकर्ता क्या चाहते हैं? अगर यह सवाल कभी कांग्रेस का केंद्रीय-प्रश्न रहा होता तो आज की नौबत ही क्यों आती? इसलिए, हालांकि इसकी कोई अहमियत नहीं है कि वे क्या चाहते हैं, वे बेचारे चाहते हैं कि कांग्रेस किसी तरह कफ़न फाड़ कर आज के मुर्दाघर से बाहर आ जाए। वे इसके लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। लेकिन कोई उन्हें बताए तो कि करना क्या है? कोई मतलब, राहुल, प्रियंका और सोनिया में से कोई। वे चाहे जिस बांसुरी-गोपाल के पीछे चलने को तैयार नहीं हैं।
चार महीने पहले हुए आम चुनावों के नतीजो से भी ज़्यादा विचलित राहुल को उनके सहयोगियों के व्यवहार ने किया। जवाबदेही के उनके मार्ग पर साथ चलने को सचमुच में जब कोई भी राज़ी नहीं हुआ तो राहुल ने भी उस राह से लौटने से पूरी तरह इनकार कर दिया। मुझे नहीं मालूम कि राहुल को यह मालूम था कि नहीं कि यह झटका कांग्रेस को ले बैठेगा। लेकिन अब तो उन्हें यह पता है कि उनके इस मूसल ने कांग्रेस को चूर-चूर कर दिया है। कांग्रेस का यह दर्द किसी और की दी दवा से ठीक नहीं होने वाला है। इसलिए रात के सन्नाटे में ‘तुम्हीं ने दर्द दिया है, तुम्ही दवा देना’ की दूर से आती धुन सुनाई दे रही है।
चुनावों के नतीजों से आहत हो कर वन-गमन कर देने से क्या होगा? नतीजे तो 2024 के आम चुनावों से पहले अभी और आएंगे। हरियाणा और महाराष्ट्र में चुनाव हो रहे हैं। क्या कांग्रेस वहां सरकारें बना लेगी? अगले साल जनवरी और फरवरी में झारखंड और दिल्ली के चुनाव होंगे और नवंबर में बिहार के। 2021 के मई-जून में पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल और पुदुचेरी के चुनाव आ जाएंगे। 2022 के मार्च-मई में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पंजाब के चुनाव-मैदान में जाना होगा। 2023 गुजरात, हिमाचल, मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और पूर्वोत्तर के चुनावों का साल होगा। इन सब की तैयारियां अगर नेतृत्व-शून्यता के माहौल में ही हुईं तो कांग्रेस में कब-कब और कौन-कौन वानप्रस्थी होता रहेगा?
इसलिए कांग्रेस के कर्ताधर्ताओं को जल्दी ही सोचना होगा कि अब उन्हें करना क्या है? राहुल गांधी अध्यक्ष के पद पर वापसी के कितने ही ख़िलाफ़ हों, मेरा मानना है कि कांग्रेस को उन्हें यह मनमानी करने का हक़ कतई नहीं देना चाहिए। उनकी निजता का, उनकी भावनाओं का और उनकी ताजा मनःस्थिति का पूरा सम्मान करते हुए, मुझे खुलेआम यह कहने में कोई हिचक नहीं है, कि अपनी ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी से किनारा कर के राहुल बुनियादी जवाबदेही के तमाम सिद्धांतों की अवहेलना कर रहे हैं। फ़ौरन लौट कर अगर वे कांग्रेस की खर-पतवार साफ़ नहीं करेंगे तो इस अन्याय का पाप उनके सिर पर चढ़ कर आजीवन बोलता रहेगा।
राहुल-प्रियंका-सोनिया कितना जानते हैं, मैं नहीं जानता; लेकिन जानने वाले यह जानते हैं कि पिछले चार महीनों में, ग़ैर-कांग्रेसी जड़ों से जन्मे घुसपैठियों की, कांग्रेसी बरामदों में कैसी बहार आ गई है! यह घेराबंदी जब अपनी सफलतम स्थिति को हासिल कर लेगी तो कांग्रेस उस सियासी-रसातल की तलहटी छू लेगी, जहां से उबरना उसके लिए मुमकिन ही नहीं होगा। इसलिए इतना भी क्या ग़रीब की जोरू होना? राहुल को असली झटका तो कांग्रेस को अपनी वापसी का देना चाहिए। इसकी घोषणा भर से कांग्रेस नक़ाबपोशों के चंगुल से बाहर आ जाएगी।
लोकतांत्रिक राजनीति के मूल में जन-जुड़ाव का सिर्फ़ कारण होता है–ख़ुशहाली का पूर्वानुमान। जो विवेकवान हैं, वे इसमें देश की ख़ुशहाली ढूंढते हैं। जो आत्मकेंद्रित हैं, वे ख़ुद की। लेकिन दोनों के लक्ष्य तभी सधते हैं, जब उनका राजनीतिक दल मज़बूत होता है। कांग्रेस के बारे में तरह-तरह के संशय तो इन चार महीनों में ज़रूर उपजे हैं, मगर अभी ऐसा नहीं हुआ है कि उसके भविष्य पर लोगों ने पूर्णविराम लगा दिया हो। इसके पहले कि ऐसा हो, राहुल-प्रियंका को अपनी जवाबदेही तय करनी होगी।
सिर्फ़ अपना लक्ष्य-वेधन कर लेने से तमाम जवाबदेहियां पूरी हो जातीं तो फिर बात ही क्या थी? लेकिन ऐसा होता नहीं है। महाभारत के अर्जुन को पानी की परछाई में भी मछली की आंख तो दिखाई दे गई, लेकिन भरी सभा में द्रोपदी की डबडबाई आंखें उन्हें भी नहीं दिखी थीं। इसलिए यह प्रश्न आज भी क़ायम है कि क्या निजी लक्ष्य-संधान ही जीवन है? सो, जो विपासना यह भी न समझा सके कि जीवन इससे बहुत आगे की चीज़ है, वो विपासना किस काम की? कांग्रेस के भीगे नयन राहुल को अगर आज भी नहीं दिखेंगे तो कब दिखेंगे?
राहुल को अगर वैराग्य लेना ही है तो किनाराक़शी से लें। उन्हें अगर संन्यास लेना ही है तो अपने अनमनेपन से लें। उन्हें अगर मुक्त होना ही है तो आसपास की अमरबेलों से हों। उनके कल्याण का यही एक मार्ग है। कांग्रेस के कल्याण का भी यही एक मार्ग है। इसी मार्ग पर चल कर वे कांग्रेस का पुनरोदय कर पाएंगे। वरना रही-सही कांग्रेस भी तिल-तिल कर नष्ट हो जाएगी। इसलिए राहुल को तय करना है कि वे नई सृष्टि के रचयिता के तौर पर हम सब की स्मृतियों का हिस्सा बनेंगे या विनाश के देवता बन कर? राहुल-प्रियंका बुरा न मानें, मगर छद्म-मित्रों से स्वयं को विलग कर वापसी की दृढ़-प्रतिज्ञा किए बिना वे भारत के लोकतंत्र को नहीं बचा पाएंगे।

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