Saturday, January 2, 2021

अथ श्री बिच्छू-पुराण कथा…

 

November 21, 2020

 

बिच्छू जब जन्म लेता है तो उसकी मां नवजात बच्चे को पीठ पर बैठा कर सुरक्षित स्थान तक ले जाती है। मां की पीठ पर लदा यह बच्चा अपनी भूख मिटाने के लिए मां की पीठ को ही खाने लगता है। पीठ कुतर-कुतर कर वह ज़िंदा रहता है। मां मर जाती है। शिशु-बिच्छू तब तक पीठ से नहीं उतरता है, जब तक मां के शरीर का ज़रा-सा भी हिस्सा बाक़ी रहता है। वह अपनी मां को पूरा चट कर जाता है। तब तक बिच्छू का ख़ुद का ज़िस्म अपनी स्वतंत्र ज़िंदगी बसर कर सकने जितना बड़ा  और मज़बूत हो चुका होता है।

 

यह कोरा क़िस्सा नहीं है। बिच्छुओं के जन्म की सच्चाई है। शिशु-बिच्छुओं को जन्म देने के बाद बिच्छू-मां को मरना ही होता है। यही क़ुदरत का दस्तूर है। बिच्छू दोनों ही हैं। मां भी बिच्छू, बच्चे भी बिच्छू। दोनों की प्रकृति एक-सी है। दोनों का स्वभाव एक-सा है। दोनों पीछे से डंक मारते हैं। बच्चों को जन्म देकर बिच्छू-मां की अलविदाई चूंकि उसकी कुंडली में ही लिखी है, सो, वह एक बार में एक नहीं, चार-आठ बच्चों को जन्म देती है। तब जा कर बिच्छुओं का वंश आज तक क़ायम है।

 

पारस्परिक-भक्षण की यह परंपरा, मुझे नहीं लगता कि, ब्रह्मांड की किसी और जीव-प्रजाति में हो। बारिश का मौसम आने लगता है तो मादा-बिच्छू अपने नर-साथी के साथ किसी पत्थर के नीचे छोटा-सा गड्ढा खोद कर सहवास के लिए चली जाती है। संभोग संपन्न होते ही मादा अपने नर को निगल जाती है। इसके कुछ दिनों बाद वह बच्चों को जन्म देती है। फिर उसके बच्चे उसे लील जाते हैं। यानी बिच्छुओं को ज़िंदगी का चरम-सुख जब पहली बार मिलता है तो वही अंतिम बार भी होता है। बाद में उनकी ज़िंदगी पांच बरस की रहे या पच्चीस बरस की, काम डंक मार कर दूसरों का जीना हराम करने का ही रह जाता है।

 

बिच्छू इसलिए बिच्छू हैं कि उनकी दो हज़ार से ज़्यादा प्रजातियों में एक भी ऐसी नहीं है, जो ज़हरीली हो। उनसे तो भले सांप हैं, जिनकी बहुत-सी प्रजातियों में ज़हर पाया ही नहीं जाता। शायद इसीलिए बिच्छुओं के विष की कीमत ज़हर-बाज़ार में किंग-कोबरा के विष से भी बहुत ज़्यादा है। बिच्छू एक रंग के नहीं होते। अलग-अलग रंग के होते हैं। नीले रंग के बिच्छुओं का तो एक लीटर ज़हर 75 से करोड़ रुपए तक में मिलता है।

 

बिच्छुओं का जनम-मरण चक्र सृष्टि में मौजूद भावुकता, कू्ररता और स्वार्थ का सबसे तीखा त्रिकोण है। इस कथा को ज़रा ध्यान से देखिए तो! इसमें एक नवजात है, जो अपनी ही जननी का भक्षण कर स्वयं के प्राण बचाने को हतभागी है। एक नर है, जो अपनी कर्तव्यपूर्ति के फ़ौरन बाद अपनी ही प्रिया द्वारा निगले जाने को अभिशप्त है। एक मादा है, जो अपनी तृप्ति के बाद स्वयं के प्रिय को ही लील जाने के लिए शप्त है। और, एक मां है, जो यह जानते हुए भी अपनी संतानों को जन्म देती है कि वह उनका ही ग्रास बनेगी। यह सिलसिला ज़ारी रहता है। शिशु-बिच्छू ही नर-मादा बनता है, प्रिय-प्रिया बनता है, मां बनता है। क़ायनात की चदरिया पर बिच्छुओं की लीला डायनासोर से भी पहले से ऐसे ही चलती आई है, ऐसे ही चलती चलेगी।

 

लपलपाती स्वार्थपरकता और घनघोर बेबसी में लिपटी इस वृश्चिक-गाथा पर मेरा ध्यान तो आज बैठे-ठाले यूं ही चला गया, लेकिन अब मुझे डर लग रहा है कि भाई लोग कहीं  मेरी इन बातों में भी मौजूदा राजनीति और राजनीतिकों की झलकियां तलाश लें? अब, तलाश लें तो तलाश लें! मेरी बला से! तो आज की सियासत ने मेरी वज़ह से आकार-प्रकार ग्रहण किया है और आज के सियासतदानों का रूप-रंग मेरे कारण बदरंग है। देखने वालों को आज के राजनीतिक संसार में बिच्छुओं की दुनिया दिखाई दे रही हो तो क्या तो आप करें और क्या मैं करूं? बिच्छुओं की जन्म-मृत्यु प्रक्रिया के काले साए अगर मौजूदा सियासत के झरोखों से झांक कर किसी को डरा रहे हैं तो गहरी मैं उसे कैसे रोकूं?

 

बिच्छू तो, चलिए, बिच्छू हैं। वे शायद अभिशप्त हैं, सो, अपने दुर्भाग्य से बाहर आने को कौन-सा यज्ञ करें? मगर ब्रह्मा ने तो स्वयं कहा है कि मनुष्य तो अपने कर्मों से अपना भाग्य बदल भी सकता है। मनुष्य के लिए तो परमात्मा ने कर्म-प्रधान विश्व रचि राखा है। तो फिर वह ख़ुद ही, ख़ुद को, अभिशप्त करने पर क्यों तुला हुआ है? वह क्यों बिच्छू-भाव से बाहर आने के बजाय उसी में और ज़्यादा लिप्त होता जा रहा है? हमारे सियासतदानों को बिच्छुओं से भी गया-बीता होने में आख़िर कौन-सा सुख मिल रहा है?

 

मैं आपको बताऊं, कौन-सा सुख मिल रहा है? यह पर-पीड़ा का सुख है। पूरी सियासत पर पर-पीड़कों का कब्ज़ा हो गया है। उन्हें स्वयं के बिच्छू होने पर गर्व है। उन्हें गर्व है कि वे अपने जन्मदाता को निगल कर बड़े हुए हैं। वे इतरा रहे हैं कि काम पूरा होते ही वे अपने प्रिय को लील जाने की विद्या जानते हैं। वे इठला रहे हैं कि उनकी पूंछ में ज़हर का डंक है। वे अपने बिच्छू होने पर आंसू नहीं बहा रहे, ठट्ठा लगा रहे हैं। साढ़े छह करोड़ साल पहले पृथ्वी से टकराई उल्का ने लहीम-शहीम डायनासोरों की पूरी वंशावली हमेशा-हमेशा के लिए लुप्त कर दी, मगर बिच्छुओं का डंक भी वह बांका नहीं कर पाई थी। हमारे राजनीतिक अपने को ऐसे अमरत्व का अणुवंश मान कर प्रसन्न हों या दीदे बहाएं?

 

इसलिए आज के हालात पर बुक्का फाड़ कर रोना है तो आप रोइए। ख़ैर मनाइए कि अभी तक आपको रोने का हक़ है, सो, जल्दी रो लीजिए। आप शायद आगे ज़ोर-ज़ोर से रो भी पाएं, सो, अभी रो लीजिए। यह सोच कर रोइए कि आपका रोना सुनने वाला आज भी कोई नहीं है। यह मान कर रोइए कि आपके अरण्य-रोदन से जंगल के बेचारे पेड़ चाह कर भी विह्वल नहीं हो पाएंगे। आपके आंसुओं से उनके विचलित होने पर पाबंदी है। फिर भी आप इसलिए रो लीजिए कि इससे आपका जी हलका हो जाएगा। और कोइ सुने--सुने, आपका अंतर्मन तो आपका रोना सुनेगा। सो, बाद में भीतर से यह कचोट नहीं उठेगी कि आप रोए तक नहीं थे। वरना कल को जब रोना तो दूर, सिसकियां तक लेना भी, देश-विरोधी या पार्टी-विरोधी गतिविधि माना जाने लगेगा तो यह मन मे रह जाएगा कि तभी ज़रा सुबक लेता तो ठीक था।

 

बावजूद इसके कि कई प्रार्थनाओं का परिणाम हम सभी को पहले से ही पता होता है, आइए, प्रार्थना करें कि हमारी सियासत बिच्छू-गति से मुक्त होने की दिशा में प्रस्थान करने लायक़ बने! हमारे सियासतदांबिच्छू तन-मन, बिच्छू जीवन, रग-रग बिच्छूका परिचय देते धमाचौकड़ी मचाते कूद-फांद करने से बचें! बिच्छू-शिशु, बिच्छू-मां और बिच्छू-युगल की कहानी में ऐसे बदलाव आएं कि उसे लोरियों के साथ सुनाया जा सके! मैं जानता हूं कि ऐसा भला कहां होने वाला है? लेकिन उम्मीदों के दरख़्त भी अगर पूरी तरह कट जाएंगे तो राम की शरण में जाने पर भी सूरज से जलते हुए तन को तरुवर की छाया कहां से मिलेगी? लहरों से लड़ती हुई नाव को किनारा कहां से मिलेगा? लगातार प्यासी होती जा रही मरुभूमि को सावन का संदेसा कौन देगा? पतझड़ के मौसम में कभी डगमगाने की हिम्मत कहां से आएगी? सो, आइए, बिच्छू-वंश के ध्वंस का संकल्प लें!

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