आपको दिख रहा है या नहीं कि वैश्विक सियासत के समंदर में प्राकृतिक न्याय की लहरें उफ़नने लगी हैं। जो बाइडन का आना और डॉनल्ड ट्रंप का जाना अमेरिका में ही नहीं, पूरे संसार में नए वसंत के आगमन का क़ुदरती पैग़ाम है। आने वाला समय बहुत-से देशों में पतझर लाएगा और वहां की राजनीतिक शाखों पर नए पत्ते लहलहाएंगे। यह सियासत के भीष्म-पर्व का आरंभ है। यह ‘अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृज्याम्यहम’ का शंखनाद है। इसे रूमानी फ़लसफ़ा न समझें। यह आगामी यथार्थ का षिला-पूजन है।
इस वक़्त दुनिया भर में मोटे तौर पर 50 मुल्क़ों में तानाशाह राज कर रहे हैं। सहारा रेगिस्तान के दक्षिण में बसे 19 अफ़्रीकी देशों में, उत्तरी अफ़्रीका और मध्य-पूर्व के 12 देशों में, एशिया-प्रशांत के 6 देशों में, यूरेशिया के 7 देषों में, अमेरिकी महाद्वीप के 3 देशों में और यूरोप के 1 देश में तानाशाही सल्तनतें हुकू़मत कर रही हैं। दुनिया भर के देशों में स्वतंत्रता का वार्षिक आकलन करने वाले ख्यात संस्थानों की ताज़ा सूची में चीन, उत्तरी कोरिया और रूस से ले कर सऊदी अरब, टर्की, कंबोडिया, वियतनाम, सूडान म्यांमार, अंगोला और बु्रनेई तक के शासनाध्यक्षों के नाम दर्ज़ हैं। आप देखना कि 2021 में शुरू हुआ इक्कीसवीं सदी का इक्कीसवां साल अगले एक दशक में इनमें से कई मुल्क़ों का सियासी-चरित्र बदल कर रख देगा। इसलिए अगले पांच बरस प्रकृति की अंगड़ाइयों को आंख भर कर देखने के लिए अपने को तैयार कर लीजिए।
बाइडन तो प्रतीक हैं। उनका देश अमेरिका उस सूची में शामिल नहीं है, जिस पर कोई तानाशाह राज कर रहा था। मगर इससे क्या होता है? तानाशाही झेल रहे मुल्क़ों की सूची में तो बहुत-से ऐसे देश शामिल नहीं हैं, जहां के लोग तानाशाही-घुटन में जी रहे हैं। और, इस सूची में तो बहुत-से ऐसे देश शामिल हैं, जहां तकनीकी तौर पर कोई तानाशाह राज कर रहा है, लेकिन नागरिकों की स्वतंत्रता बाधित नहीं है। ट्रंप इस तकनीकी हिसाब-किताब से तानाशाह नहीं थे। मगर क्या वे व्यवहार में किसी भी तानाशाह से उन्नीसे थे? सो, हुक़ूमत में बैठा कौन तानाशाह है, कौन नहीं, इसका फ़ैसला उसे चुने जाने के तरीके से नहीं हो सकता। यह तो शासन कर रहे व्यक्ति की प्रवृत्तियों से तय होगा कि वह तानाषाह है या नहीं। इस लिहाज़ से ट्रंप तानाशाह थे, तानाशाह थे, तानाशाह थे।
इसलिए सुबह-दोपहर-शाम सिर्फ़ अपना रौब जमाते रहने में मशगूल रहने वाले ट्रंप का जाना अमेरिका से तानाशाही की विदाई है। इसलिए सुमधुर देह-भाषा और उदार विचारों के धनी 78 बरस के बाइडन का आना अमेरिका में जन के तंत्र की बहाली है। यह एक लठैत दादा की रुख़सत के बाद दुलार भरे बड़े भैया के प्रवेश का दृष्य है। ऐसे दृश्य देखने को दुनिया के पता नहीं कितने देश तरस रहे हैं। इसलिए क़ुदरत के इंसाफ़ का यह दौर आरंभ हुआ है। जब आंसू इतने ग़र्म हो जाते हैं कि उबलने लगें तो उनकी वाष्प चट्टानों को फोड़ कर बाहर आ जाती है। सो, यक़ीन मानिए, यह दशक चट्टानों के दरकने का दशक साबित होगा।
किसी भी तानाशाह को सबसे ज़्यादा डर किस बात से लगता है? वह तब सबसे ज़्यादा ख़ौफ़ज़दा होता है, जब उसे लगता है कि लोगों ने अब उससे डरना बंद कर दिया है। अपने आसपास निग़ाह दौड़ा कर देखिए कि किस-किस मुल्क़ में पिछले कुछ वक़्त से यह माहौल बनना शुरू हो गया है? आप पाएंगे कि जहां-जहां जनता के पैर मज़बूत हो रहे हैं, वहां-वहां के सुल्तानों की टांगें कांपने लगी हैं। प्रकृति का नियम है कि जिन पेड़ों की जड़ें मज़बूत होती हैं, उनकी डालों पर सिरफ़िरे पत्ते नहीं उगा करते। कमज़ोर जड़ों का फ़ायदा उठा कर जब कभी वे उग जाते हैं तो जड़ों में खाद-पानी पड़ते ही फिर झड़ने लगते हैं। बाइडन और कमला हैरिस की सियासी-जोड़ी ने इसी व्याकरण की पुनर्स्थापना की है। एक चौथाई संसार अभी तो इस राह पर हौले-हौले चलता दिखाई दे रहा है, मगर इस साल शुक्रवार को शुरू हुआ यह दशक अपने अंतिम मंगलवार तक जब पहुंचेगा तो दुनिया का नया नज़ारा देख कर आप चकित रह जाएंगे।
जिस पृथ्वी के इतिहास पर चंगेज़ ख़ान से ले कर पोल पोट तक और शाका जुलू से ले कर एडॉल्फ़ हिटलर और जोसेफ़ स्तालिन तक के छींटे हैं, उस पृथ्वी पर ऐसा भरत-खंड आख़िर यूं ही तो मौजूद नहीं है, जहां सुशासन का पैमाना राम-राज्य को माना जाता है। जहां पुरुषों में सर्वोत्तम उसे माना जाता है, जो मर्यादा का पालन करता हो। जहां भटके हुए शासकों को समय आने पर उनके अपने भी राज-धर्म का पालन करने की सलाह देने को विवश हो जाते हैं। इसीलिए भारत धृतराष्ट्र और दुर्योधन के बावजूद विदुर का देश है। इसीलिए भारत हिरण्यकश्यप के बावजूद प्रह्लाद का देश है। भारत की इस बुनियादी तासीर को समझने से जिस-जिस ने इनकार किया, उस-उस को इतिहास ने कूड़ेदान के हवाले कर दिया। यही हमारी राज-नीति का केंद्र बिंदु है।
पिछले कुछ वर्षों से हम मानो हामितताई के क़िस्सों के बीच से गुज़र रहे हैं। इन क़िस्सों में एक शहर के हाक़िम का चेहरा नज़र आता है, जो कभी तो मसखरा-सा दिखाई देता है और कभी एकाएक विद्रूप-भरा हो जाता है। हातिमताई कितने नेकनीयत और दरियादिल थे, यह यमनवासी जानते होंगे। मैं तो इतना जानता हूं कि हातिमताई के तिलस्मी क़िस्सों की सच्चाई आसमानी थी। उनसे हमारा नन्हा-मुन्ना मन भले ही बहल जाता रहा हो, लेकिन समझ-बूझ सकने की उम्र आते ही हमने अपने को ऐसा ठगा महसूस किया कि तब से अपना सिर पीट रहे हैं। अच्छे दिनों के आगमन-युग का बचपन बीत जाने के बाद आज समूचा भारत अपना माथा ऐसे ही थोड़े पीट रहा है। अपना बावनवां गणतंत्र दिवास मनाते वक़्त भारतमाता का पल्लू अगर आंसुओं से भीगा हुआ है तो इसकी जवाबदेही मौजूदा अनुदार हुक़्मरानों के अलावा किस की है?
बेमुरव्वत होना क्या किसी की श्रेष्ठता का लक्षण है? अकड़ू होना क्या किसी को बेहतर मनुष्य बना देता है? फरसाधारी होने भर से क्या कोई पराक्रमी बन जाता है? ऐंठू होने से क्या कोई अविजित हो जाता है? एकलखुरा होना किसी को परिमार्जित करता है या और ज़्यादा मनोविकारों से भर देता है? उत्सवधर्मी होने भर से क्या किसी की सामाजिकता का विस्तार हो सकता है? क्या किसी-न-किसी तरह सिंहासन पर कब्जा जमाए रखने में कामयाब होने से कोई सर्वज्ञान और सर्वगुण संपन्न भी बन सकता है? अगर इन सारे सवालों का जवाब ना है तो क्या इस मसले पर संजीदगी से विमर्श नहीं होना चाहिए कि हमारे इंद्रप्रस्थ को हम किस के हवाले कर हाथ-पर-हाथ रखे बैठे हैं?
प्रकृति ने तो अपनी न्याय प्रक्रिया प्रारंभ कर दी है। लेकिन क्या हम भी इंसाफ़ की इस डगर पर चलने को तैयार हैं? मुद्दा इस या उस व्यक्ति का नहीं है। मुद्दा इस या उस प्रवृत्ति का है। मुद्दा यह है कि भारतीय समाज के अर्थवान वर्ग इससे पहले इतने सहमे हुए क्यों नहीं थे? मुद्दा यह है कि वैचारिक बाहुबलीपन का ऐसा बोलबाला हम कब तक बर्दाश्त करेंगे? मुद्दा यह है कि नए वसंत के स्वागत में हम कतारबद्ध होंगे या नहीं? और, मुद्दा यह है कि कोई पूछे-न-पूछे, हम चिल्ला-चिल्ला कर बताएंगे या नहीं कि मुद्दा क्या है?
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