October 17, 2020
यह तो
ज़माने से कहा जाता रहा
है कि लफ़ंगों
का अंतिम आश्रय-स्थल राजनीति
है। मगर इसका
यह अर्थ कभी
नहीं था कि सियासत में
जो होंगे, लफ़ंगे
ही होंगे। हां,
लफ़ंगे सियासत में
अपना दायरा बढ़ाने
और अपने लिए
ज़गह बनाने की
जुगत हमेशा करते
रहे हैं, करते
रहेंगे। वे जुगत बैठा लें
तो कु़सूर किसका
है? वे ज़गह बना लें
तो दोष किसका
है?
महात्मा
गांधी, जवाहरलाल नेहरू,
इंदिरा गांधी और
राजीव गांधी की
कांग्रेस में लफ़ंगों
ने घुसपैठ की
क़ोशिशें क्या नहीं
की होंगी? श्यामाप्रसाद
मुखर्जी और दीनदयाल
उपाध्याय की जनसंघ
में और फिर अटल बिहारी
वाजपेयी की भारतीय
जनता पार्टी में
भी वे ज़गह तलाशते ज़रूर
घूमे होंगे। जयप्रकाश
नारायण की जनता पार्टी के
गलियारों में सेंध
लगाने से उन्होंने
कौन-सा ग़ुरेज़
किया होगा? पी.
सुंदरैया और ई.एम.एस.
नंबूदिरिपाद की मार्क्सवादी
पार्टी, और, एस.वी. घाटे
और एम.एन. रॉय की
कम्युनिस्ट पार्टी से
भी लफ़ंगों को
क्या परहेज़ रहा
होगा?
पिछले
दो-तीन दशक में बने
जिन राजनीतिक दलों
के संस्थापक-सदस्य
ही हरफ़नमौला रहे
हों, उनकी तो बात ही
क्या करें? मगर
आज पारंपरिक अर्थों
में राजनीतिक संगठन
माने जाने वाले
दलों के भीतर का दृश्य
देख कर भी क्या आपको
दुःख नहीं होता?
टुच्चे-लुच्चों की
ज़मात के प्रभाव
का हर सियासी
दल में यह औसत क्या
आपने पहले कभी
देखा था? क्या
आपको यह बात कभी नहीं
सालती कि हर राजनीतिक दल में क़ायदे के
लोगों की बोलती
बंद होती जा रही है
और बेक़ायदे के
लोग कर्ता-धर्ता
बनते जा रहे हैं?
क्या
यह सियासी दलों
के शिखर नेतृत्व
की कमज़ोरी के
कारण हो रहा है? क्या
यह उसके नैतिक
बल में क्षरण
का नतीजा है?
क्या इसके पीछे
इच्छा-शक्ति की
कमी एक वज़ह है? या
ऐसा इसलिए हो
रहा है कि ज़माना पूरी
तरह बदल गया है और
चुनावी राजनीति की
ज़रूरतों के आगे अच्छे-अच्छे
भी मजबूर हैं?
वे भी, जिनकी
छाती छप्पन इंच
की है?
मैं मायावती की बहुजन
समाज पार्टी की
तो बात ही नहीं करता।
मैं अखिलेश यादव
की समाजवादी पार्टी,
तेजस्वी यादव के जनता दल,
चिराग पासवान की
लोकजनशक्ति पार्टी, अरविंद केजरीवाल
की आम आदमी पार्टी, वगै़रह-वगै़रह
की भी किस मुंह से
बात करूं? लेकिन
अगर नरेंद्र भाई
मोदी की भाजपा
और राहुल गांधी
की कांग्रेस के
बारे में भी, सही या
ग़लत, लोगों में
यह धारणा बनने
लगेगी कि नगरपालिकाओं
से ले कर विधानसभा, लोकसभा और
राज्यसभा की उम्मीदवारी
सिर्फ़ योग्यता के
ही बूते तय नहीं होती
है, तो फिर हम किस
पोखर में जा कर डूब
मरें!
मैं नरेंद्र भाई को कठोर पंजों
वाला एक मज़बूत
नेता मानता हूं।
मैं राहुल गांधी
को उनसे भी ज़्यादा दृढ़-निश्चयी
मानता हूं। मैं
अमित शाह की दादा-गिरी
का क़ायल हूं।
मैं प्रियंका गांधी
की ‘दीदी’-गिरी का और भी
बड़ा प्रशंसक हूं।
मैं भाजपा की
मातृ-संस्था के
पितृ-पुरूष मोहन
भागवत की गंभीरता
के दुपट्टे से
झांकती चालाकियों से
मोहित हूं। लेकिन
कांग्रेस पार्टी की
माता-सदृश सोनिया
गांधी की ठहराव
भरी संजीदगी मेरे
लिए उससे भी ज़्यादा मनोहारी है।
इसलिए मैं सोच में पड़ा
हुआ हूं कि ऐसी-ऐसी
परम-शक्तियों के
होते हुए भाजपा
और कांग्रेस जा
किस दिशा में
रही हैं?
नरेंद्र
भाई को ईश्वर
ने जैसा अवसर
दिया, सभी को दे! नरेंद्र
भाई ने इस अवसर की
जैसे रेड़ मारी,
कोई न मारे! उनके पास
मौक़ा था कि वे एक
अभूतपूर्व भारत बना
देते। लेकिन उन्होंने
एक ‘अभूतपूर्व’ भारत बना
डाला। जिन-जिन त्रासदियों से हम कभी नहीं
गुज़रे, उन सभी से नरेंद्र
भाई ने हमें गुज़ार डाला।
ख़ुद को, और सिर्फ़ ख़ुद
को ही, मज़बूत
बनाने के चक्कर
में उन्होंने अपनी
भाजपा को ही इतना कमज़ोर
कर दिया है कि वह
सिर्फ़ तभी तक के लिए
रह गई है, जब तक
नरेंद्र भाई मीनार
के कंगूरे पर
हैं। जिस दिन वे मीनार
से उतरेंगे, और
एक दिन तो उतरेंगे ही, उसी दिन भाजपा
भुरभुर-भुरभुर बिखर
जाएगी।
राहुल
गांधी को ईश्वर
ने अवसर दिए
ही नहीं। जो
थे, वे भी छीन लिए।
बावजूद इसके वे भारत के
शाश्वत स्वभाव की
हिफ़ाज़त करने में
जुटे हुए हैं।
ढूंढने वाले उनके
फ़ैसलों में अनवरतता
और संगतता की
दैनिक कमियां ढूंढ
सकते हैं। लेकिन
मैं मानता हूं
कि हिंदुस्तान के
चिरंतन चरित्र की
रक्षा के लिए अपने को
झोंक देने के संकल्प से
ज़्यादा अनवरतता और
संगतता और क्या हो सकती
है? सो, व्यक्तिगत
प्रयासों के लिए
राहुल को सौ में से
सौ अंक मिलने
चाहिए। मगर सांगठनिक
स्तर पर उनकी भूमिका के
लिए कोई उन्हें
कितने अंक देगा?
कांग्रेस
के पुनरूद्धार का
राहुल के पास मौक़ा अब
भी है। कांग्रेस
को अभी जितना
भी बचा कर रखा है,
जनता ने अपने आप रखा
है। कांग्रेसी अंतःपुर
में पैर पसारे
पड़े बहुत-से लंपटों के
बावजूद जनता राहुल-प्रियंका के साथ है। यह
साथ ही कांग्रेस
की असली ताक़त
है। बिचौलियों की
बाहें ज़रा ढीली
पड़ जाएं तो कांग्रेस के खेत और हुलस
कर लहलहाने लगें।
मेरी तो प्रार्थना
है कि आज से आरंभ
हो रही नवरात्रि
में शैलपुत्री से
ले कर सिद्धिदात्री
तक देवी मां
के सभी नौ रूप राहुल-प्रियंका को वह शक्ति दें,
जिससे कांग्रेस के
कष्ट दूर हों!
यह भाजपा और
कांग्रेस के शुद्धिकरण
का मसला नहीं
है। यह सकल सियासत के
पवित्रीकरण का मुद्दा
है। लेकिन भाजपा
और कांग्रेस की
आंतरिक सफ़ाई इसलिए
सबसे ज़्यादा ज़रूरी
है कि इन दो पार्टियों
के चेहरे और
चरित्र से ही भारतीय राजनीति
की चाल-ढाल तय होती
है। भाजपा अगर
धन-बल की सियासत करना
नहीं छोड़ेगी तो
अपने को दौड़ में बनाए
रखने के लिए दूसरों को
भी वही करना
होगा। धन-पशुओं
के सिक्कों की
खनक से विधायी-सदनों की
शक़्ल तय होने का कोहरा
अगर इसी तरह गहरा होता
गया तो जनतंत्र
का दम पूरी तरह घुटने
में कितनी देर
लगेगी?
बिहार
में चुनाव-प्रक्रिया
शुरू हो चुकी है। 2024 के लोकसभा
चुनाव से पहले
22 और राज्यों के
विधानसभा चुनाव भी
होंगे। अगर नरेंद्र
भाई को लगता है कि
पंथ-निरपेक्षता के
विलोम-विमर्श की
स्थापना के लिए उन्हें हिंदुत्व
का सहारा ले
कर समाज को बांटने में
भी नहीं हिचकना
चाहिए तो वे अपना शौक़
पूरा करें। अगर
राहुल गांधी को
लगता है कि भाईचारा और सह-अस्तित्व के मूल्यों
की रक्षा हर
कीमत पर होनी चाहिए तो
उन्हें भी इसका हक़ है।
ऐसे बहुत-से मसले हैं,
जिन पर नरेंद्र
भाई और राहुल
की कभी एक राय नहीं
सकती है। मगर कुछ बातें
ऐसी हैं, जिन
पर दोनों एकमत
हो कर भारतीय
सियासत की पेशानी
पर सितारे जड़
सकते हैं।
सियासी
दलों को लुच्चा
टोली से मुक्त
कराने का युद्ध
साथ-साथ क्यों
नहीं हो सकता है? उम्मीदवारी
को महज़ योग्यता-आधारित बनाने
की लड़ाई एक साथ क्यों
नहीं लड़ी जा सकती है?
बागड़ को खेत खाने से
रोकने के लिए एक मचान
पर बैठ कर निगरानी क्यों नहीं
की जा सकती है? सहचर-पूंजीवाद के खि़लाफ़
नरेंद्र भाई को राहुल का
साथ देने से क्यों परहेज़
होना चाहिए?
मंज़िलें
वहीं होती हैं।
दूर और नज़दीक
तो वे नज़र भर आती
हैं। वे दूर हैं कि
पास, यह इस पर निर्भर
करता है कि आप अपने
पांवों में पड़ी ज़ंजीरों को तोड़ने
का कितना माद्दा
रखते हैं। व्यर्थता
से भरा कलश ले कर
ज़श्न में शामिल
हो जाने भर से मंज़िलें
हासिल नहीं होती
हैं। उन पर तो तब
पहुंचा जाता है,
जब मन के सारे बोझ
झटक कर कोई चल पड़े।
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