Saturday, January 2, 2021

बेढब दौर के जनद्रोहियों की दास्तान


July 18, 2020

 

वाल कांग्रेस का नहीं है, सवाल भारतीय जनता पार्टी का नहीं है, सवाल सचिन पायलट का नहीं है और सवाल अशोक गहलोत का भी नहीं है। सवाल यह है कि यह हो क्या रहा है, सवाल यह है कि यह हो क्यों रहा है, सवाल यह है कि यह हो कैसे रहा है और सवाल यह है कि यह हो किस के लिए रहा है? राजस्थान की सरकार जाए-न-जाए, वहां भाजपा की सरकार बने-न-बने, सचिन पायलट अपना क्षेत्रीय दल बनाएं-न-बनाएं और वसुंधरा राजे छिटक कर भाजपा से बाहर गिरे-न-गिरें; मगर जनतंत्र की जो फ़ज़ीहत होनी थी, हो गई है, हो रही है और आगे और होगी। असली चिंता की बात यह है कि किसी को इसकी चिंता नहीं है।

 

इस पूरी सियासी दुर्घटना का सब से गहरा कलंक सचिन पायलट के माथे पर है। वे एक बेतरह बेताब, बेसब्र, बेहूदे और बेढब खलनायक के तौर पर सामने आए हैं। 42 बरस की उम्र में 16 साल से लगातार गुदगुदे सिंहासन पर बैठने का सुख भी अगर किसी के विचारों और कार्यशैली में स्थिरता न ला सके तो उसकी कामनाओं को हवस न कहें तो क्या कहें? मेरे जैसे जो लोग सचिन के पिता राजेश पायलट को ज़रा नज़दीक से जानते रहे हैं, उन्हें ‘पूत कपूत तो का धन संचय की कहावत याद आ रही है। राजेश पायलट ने कांग्रेस के भीतर तत्कालीन नेतृत्व के सामने जिस-जिस तरह के मोर्चे लिए, उसका तो बित्ता भर भी अनुगमन करना सचिन के बूते का नहीं है। मगर सीनियर-पायलट ने कभी सांगठनिक परंपराओं और मर्यादा की दहलीज़ नहीं लांघी थी। जूनियर-पायलट ने अपने पिता के सारे संचित पुण्य-धन को पलीता लगा दिया।

 

राजस्थान के गड़बड़झाले का दूसरा सब से बदनुमा दाग़ भाजपा के दामन पर है। मौक़ा मिलते ही खुलेआम अपनी कमर मटकाने पहुंच जाने की जो फूहड़ शैली भाजपा ने पिछले कुछ वर्षों में अपने भीतर उतारी है, वह उसे राजनीति के वैचारिक दर्शन का नहीं, सियासत के मुजरा-घर का पुजारी बना चुकी है। नरेंद्र भाई मोदी और अमित भाई शाह की भाजपा को अब न तो एकात्म मानवववाद से कोई लेना-देना रह गया है और न अपने चाल-चरित्र-चेहरे की उसे कोई चिंता है। ‘मोशा की विस्तारवादी मंशाओं ने दीनदयाल उपाध्याय, श्यामाप्रसाद मुखर्जी और अटल बिहारी वाजपेयी की आत्माओं का मोक्ष-भंग करने का ऐसा पाप किया है, जिसे न कोई गंगा-स्नान धो पाएगा और न कोई श्रोत या स्मार्त यज्ञ हर पाएगा। लोकतंत्र की लूटपाट का यह अध्याय भाजपा के इतिहास में सडांधयुक्त अक्षरों में ही लिखा जाएगा।

 

पिछले कुछ वर्षों में राहुल गांधी के दिल के तो इतने हज़ार टुकड़े हो चुके हैं कि वे कहां-कहां गिरे हैं, गिनना मुश्क़िल है। सो, आप उन पर सिर्फ़ यह तोहमत धर सकते हैं कि उन्होंने आंख मूंद कर बहेलियों पर भरोसा किया। लेकिन मेरा मानना है कि अगर सियासत सब पर शक़ करना सिखाती भी हो तो किसी सहज-विश्वासी को उसके रंगमंच पर अपने प्रयोग करने का पूरा हक़ है। इन प्रयोगों की नाकामी राहुल की ईमानदार कोशिशों की हार है या राजनीति के बरामदों पर कब्ज़ा कर चुके प्रवासी तनख़्वाहदारों की जीत, यह आप ही बताइए। हां, इतना ज़रूर है कि  दिल तोड़ने वाले ये तमाम फ़रेबी उनके आसपास कैसे इकट्ठे हो गए, इसकी पड़ताल तो राहुल को ही करनी है। भलमनसाहत का ऐसा भी क्या आलम कि आसपास बिछ रही सुरंगों का पता तब चले, जब वे फट जाएं! अपनी आस्तीनों को अक्षिश्रवाओं से पूरी तरह मुक्त करने के लिए राहुल को ही अपनी आंखें मसलनी होंगी, उन्हें ख़ुद ही तंद्रा से बाहर आना होगा और स्वयं ही फिर शस्त्र उठाने होंगे। इसमें देरी अब ठीक नहीं।

 

क्या अशोक गहलोत इस पूरे मामले को ज़रा बेहतर तरीके से संभाल सकते थे? इसका जवाब नहीं भी है और हां भी। नहीं, इसलिए कि सचिन शुरू से ही गहलोत के प्रति इतने तिरस्कार-भाव से भरे हुए थे कि उनके बारे में जिस भाषा का इस्तेमाल वे निजी बातचीत में पत्रकारों तक से किया करते थे, उसे सुन कर बीहड़तम मीडिया धुरंधर भी अपनी जीभ दांतों के बीच दबा लेते थे। थोड़े बुजु़र्ग और सचिन के पिता के ज़माने का होने की वज़ह से गहलोत के मन का सोता भले ही पूरा नहीं सूखा था, मगर सचिन छोटे-बड़े का लिहाज़ कभी का छोड़ चुके थे। ऐसे में जैसा कि होता है, गहलोत और सचिन दोनों के अगलियों-बगलियों को अपने-अपने खेल खेलने का मौक़ा मिला और उन्होंने दोनों को अलग-अलग लोक का वासी बना दिया। सो, जो हुआ, हो गया।

 

हां, गहलोत इस पूरे प्रसंग की उत्तरगाथा और बेहतर तरीके से लिख सकते थे। मीडिया के सामने छलके उनके दर्द को सब की सराहना मिली। उनका देसी-वक्तव्य राजनीति, समाज और मीडिया के मौजूदा प्रलय-प्रवाह पर अद्भुत अश्रुआंजलि थी।  गहलोत बोले तो थे कि ‘‘कोई अच्छा इंगलिश-हिंदी बोलना, अच्छी बाइट देना, वही सब-कुछ नहीं होता है’’, मगर मीडिया के कलाकारों ने अपने आक़ाओं के इशारे पर गहलोत के कहे से ‘हिंदी को ग़ायब कर दिया और अपने को रूपवान समझने वालों ने बखेड़ा करने में कोई कसर बाक़ी नहीं रखी। बावजूद इसके, यहां तक सब ठीक था। मगर शारीरिक आयु की परिपक्वता होते हुए भी शिशु-मनोवृत्ति लिए घूम रहे उत्साहीलालों को ऑडियो-टेप अधिकारिक तौर पर जारी करने की इज़ाज़त गहलोत कैसे दे बैठे, मेरी समझ के परे है। ये वार्तालाप हर आंगन तक वैसे ही पहुंच गए थे और लोगों का अभिमत बनाने का अपना काम कर ही रहे थे। ऐसे में सप्रयास उचक कर उड़ते तीर को अपने गले की फांस बना लेने में कौन-सी बुद्धिमानी थी? ऑडियों-टेप नकली नहीं हैं, मगर, इस सच्चाई के बावजूद, आने वाले दिनों में इनकी आड़ में उठने वाले प्रश्नों के उत्तर देना आसान नहीं होगा।

 

मध्यप्रदेश के बाद राजस्थान-क्षेपक ने भाजपा को वस्त्रहीन कर दिया है। भोपाल के ताल से बाहर आते समय तक भाजपा के अधोवस्त्र फिर भी लाज बचाने लायक़ बचे थे। लेकिन जयपुर जलमहल झील से तो भाजपा एकदम निर्वस्त्र हो कर बाहर निकली है। अब वह जनतंत्र की हर देहरी पर अपने छिछोरेपन का घंटा बजाती घूम रही है। यह मासूमियत ओढ़ लेना आसान भले लगता हो कि कांग्रेस जब अपने अंतर्विरोधों से डूब रही हो तो हम क्या करें, मगर इस दुपट्टे के पीछे से झांक रहे चेहरे की नीयत देश ने पढ़ ली है। अब तो जयपुर की रामगढ़ झील से ले कर श्रीनगर की डल झील तक की तलहटी में जमी काई उछल कर सतह पर तैरती दूर से दिखाई दे रही है।

 

भारतीय लोकतंत्र ऐसे पाषाण-युग में पहले कभी नहीं था। ऐसा नहीं है कि उसे प्रतिगामी दिशा में खींचने की कोशिशें पहले कभी नहीं हुईं। मगर वे ताने-बाने हमेशा मौजूद रहे, जिन्होंने समय-समय पर चलने वाली आंधियों का सामना किया और जनतंत्र की छत उड़ने से बचाई। आज यह ताना-बाना, अगर कहीं है भी तो, इतना विरल हो गया है कि नज़र ही नहीं आ रहा है। समय का तकाज़ा है कि प्रजातंत्र की दीवारों को थामे रखने वाली डोर में गठानें कितनी ही लगानी पड़ें, मगर वह क़ायम रहे। जो यह चारपाई बुन सकते हैं, अगर वे अब भी नहीं चेतेंगे तो दास्तानों में जन-द्रोही कहे जाएंगे। अगर उन्हें अपने लिए यह पदवी चुननी है तो शौक़ से चुन लें!

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