यह दिसंबर 2020 के तीसरे शनिवार की बात है। भारत के किसान आंदोलन के समर्थन की आड़ में वाशिंगटन में भारतीय दूतावास के पास लगी महात्मा गांधी की प्रतिमा को कुछ तत्वों ने नुक़सान पहुंचाया और खालिस्तान ज़िंदाबाद के नारे लगाए तो श्वेत-भवन की तरफ़ से प्रेस सचिव कैली मैकेनी ने बयान ज़ारी किया कि शांति, न्याय और स्वतंत्रता के पुजारी का अपमान क़तई बरदाश्त नहीं किया जाएगा। पिछले साल जून में एक अश्वेत जॉर्ज फ्लायड की पुलिस के हाथों हुई मौत के बाद भी गांधी की इस प्रतिमा को कुछ लोगों ने बेसबब तोड़ डाला था।
वाशिंगटन में गांधी-प्रतिमा और दिल्ली में लालकिले की पवित्रता इसलिए एक-सी है कि वे उन मूल्यों के प्रतीक के तौर पर देखे जाते हैं, जिनका ताल्लुक हमारी आज़ादी से है। इसलिए प्रतीकों का अपमान भारत के शाश्वत मूल्यों की अवमानना है। इस नाते लालकिले पर इस गणतंत्र दिवस को तिरंगे के अलावा कोई और झंडा नहीं लहराया जाता तो बेहतर होता। इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है कि वह झंडा सिखों का पावन ‘निशान साहिब’ था या कुछ और। इससे भी कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है कि उसे लहराते वक़्त मन में कौन-सा जज़्बा हिलोरें ले रहा था। फ़र्क़ सिर्फ़ इस बात से पड़ता है कि जब हमारा मन अपनी हुक़ूमत के रवैए पर क्षोभ, कुंठा और गुस्से से बलबला रहा हो, तब भी हमने मर्यादाओं का पालन किया या नहीं। सरकारें राजधर्म की मर्यादा से बाहर चली जाएं, कोई बात नहीं; मगर जनता को प्रजा-कर्तव्य की लक्ष्मणरेखा का दायरा इत्ता-सा भी नहीं लांघना चाहिए।
यह वह युग नहीं है, जब हमारे पत्रकारीय संसार में दीन-ईमान हुआ करता था। आज मीडिया की दुनिया उचक्कों के हाथ में चली गई है। इक्कादुक्का को छोड़ कर मुख्यधारा मीडिया के तमाम चेहरों से गलाज़त का ऐसा मवाद टपक रहा है, जिसे धोने के लिए हमें उस वैषाख के शुक्ल पक्ष की सप्तमी का इंतज़ार करना होगा, जब कोई भगीरथ अपनी तपस्या से गंगा को अवतरित होने के लिए राज़ी कर ले। जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक हम उस गिद्ध-मंडली के बीच रहने को मजबूर हैं, जो मौक़ा मिलते ही अपने चोंच-पंजे लिए भुक्खड़ों की तरह सब कुछ चीथड़ा-चीथड़ा करने के लिए टूट पड़ेगी। आपने देखा न कि बित्ते भर का बहाना मिलते ही मीडिया-जमींदार जानबूझ कर यह भूल गए कि 64 दिनों से किसान कितने संयम, धैर्य और शांति से सरकारी और कुदरती मौसम के बर्फ़ीलेपन को झेल रहे थे।
चौथे स्तंभ के अर्थवान टुकड़े-टुकड़े एकजुट रह कर अपनी फ़र्ज़ अदायगी न करते रहते तो हमारे प्रजापालकों ने तो बागड़ खाने में कोई कोताही बाकी रखी ही नहीं थी। राज्य-व्यवस्था के भृतक-मीडिया ने मुद्दे की बात उठाने वाले हर एक को देशद्रोही होने का प्रमाणपत्र जारी करने का जैसा धंधा छह-सात साल से शुरू किया है, वैसा तो अंग्रेजों के ज़माने में भी नहीं था। होता तो बंगाल में नील पैदा करने वाले किसान लड़ पाते? पाबना के किसानों की कोई सुनता? तेभागा के किसानों का क्या होता? केरल में मोपला के किसान कहां जाते? बिहार के चंपारण में गांधी कुछ कर पाते? गुजरात के बारदोली में सरदार वल्लभ भाई पटेल कैसे कामयाबी पाते? सो, सिंघू, टीकरी और गाज़ीपुर इसलिए रेखांकित किए जाने चाहिए कि अनुचर-मीडिया के ज़रिए हमारे हुक़्मरानों द्वारा किए गए दंद-फंदों के बावजूद किसानों ने ददनी-प्रथा के सामने हारने से अंततः इनकार कर दिया। उन्होंने तिनकठिया पद्धति के पुनर्जन्म की आशंकाओं के रास्ते में ठोस अवरोध खड़ा कर दिया।
जिन्हें नहीं मानना है, उन्हें कौन मनवा सकता है, मगर सच्चाई यही है कि किसान-आंदोलन ने पूरे भारतीय समाज के अंतर्मन को झकझोर कर रख दिया है। अपने सहचर-पूजीपतियों की मंशाओं पर फिर रहा पानी सुल्तान की सुल्तानी को नागवार गुज़र रहा है। वरना इतने ज़िद्दड़ तो यूरोपीय बाग़ान मालिकों की नुमाइंदगी करने वाले फर्ग्यूसन भी नहीं थे कि नील-किसानों पर ज़रा-सा भी रहम न खाएं। उन दिनों के एश्ली ईडन और हर्शेल जैसे अंग्रेज़ ज़िलाधिकारियों के तो नाम भी आज के कारकूनों को मालूम नहीं होंगे। अगर होते तो अपने सलामी शस्त्रों पर उन्हें यह सोच कर शर्म आ रही होती कि परायों की तुलना में वे अपने ही किसानों के आंसुओं की कितनी बेशर्मी से अनदेखी कर रहे हैं।
उस तोता-मैना युगल की कहानी जिन्होंने पढ़ी है, वे जानते हैं कि कैसे उल्लू द्वारा एक रात की दावत के फेरे में फंस कर तोता अपनी मैना को तक़रीबन गंवा बैठा था और फिर कैसे उल्लू ने उन्हें समझाया कि बस्ती में वीरानी तब नहीं आती, जब वहां उल्लू आ कर बस जाते हैं, बल्कि तब आती है, जब इंसाफ़ फ़ना हो जाता है। संवैधानिक न्याय चूंकि दरकता जा रहा है, ईश्वरीय न्याय की गुंज़ाइश बढ़ती जा रही है। इसलिए हमने देखा कि जब राज्य के सारे अस्त्र किसानों पर एकतरफ़ा प्रहार कर रहे थे तो किस तरह आंसुओं ने नए सैलाब को जन्म दे दिया। प्राकृतिक आपदाएं तो किसान की हमसफ़र हैं। उनसे तालमेल बिठा कर, लड़-झगड़ कर जीवन जीना वह जानता है। लेकिन अप्राकृतिक सियासी आपदाओं से दो-दो हाथ करने की सिफ़त का काइयांपन चूंकि किसानों में नहीं होता है, सो, वह चूक जाता है। लेकिन यही वह समय होता है, जब एकाएक कहीं दूर से ‘अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मनं सृज्याम्यहम’ का बिगुल बजने लगता है।
आपको तो सुनाई दे ही रहा होगा, मगर, जो अपने कानों में रुई ठूंसे बैठे हैं, वे भी अगर ध्यान से सुनेंगे, तो उन्हें भी उलटी गिनती का नाद-स्वर ठीक से सुनाई देने लगेगा। अपनी राजनीतिक दीर्घजीविता को सुनिश्चित करने के चक्कर में नरेंद्र भाई मोदी समूची भारतीय जनता पार्टी के अल्पायु-योग को लगातार मज़बूत कर रहे हैं। उनके किए की आंच से अब भाजपा का पितृ-संगठन भी झुलसने लगा है। जैसे, अगर नरेंद्र भाई के राजनीतिक दर्शन में उनके लंगोटिया-साझीदार डॉनल्ड ट्रंप दोबारा अमेरिका के राष्ट्रपति बन जाते तो उनकी सियासी-ज़िंदगी भले ही थोड़ी और लंबी हो जाती, मगर रिपब्लिकन पार्टी आने वाले चार बरस में अपना आधार बुरी तरह खो देती; उसी तरह, पिछले साल की गर्मियों में हुए चुनावों से नरेंद्र भाई की राजनीतिक पारी ज़रूर लंबी हो गई है, लेकिन उसके बाद से भाजपा के प्रति लोगों का भाव-आधार लगातार भुरभुरा होता जा रहा है। सो, अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा के भीतर यह खदबदाहट तेज़ होती जा रही है कि नरेंद्र भाई की राजकाज-शैली को आयुष्मान भवः कहें या भारतीय समाज में स्वयं की सांगठनिक जड़ें पिलपिली होने से बचाएं!
मेरी यह बात आपको अजीब लगेगी, मगर इसे गांठ बांध लीजिए कि मौजूदा सत्ताधीशों की राजनीति का अंतःप्रवाह जिस दिशा में जा रहा है, उससे उभर रही तसवीर में नरेंद्र भाई मोदी 2022 के स्वतंत्रता दिवस पर लालकिले पर तिरंगा लहराते दिखाई नहीं दे रहे हैं। वे 2024 में भाजपा के चुनाव-सारथी की भूमिका में नज़र नहीं आ रहे हैं। उन्होंने पिछला चुनाव जीतने के फ़ौरन बाद भाजपा के नवनिर्वाचित सांसदों की बैठक में 10 अगस्त 2019 को ही कह दिया था कि 2024 के लिए वे अभी से ख़ुद मेहनत करें और उनके नाम-काम के संदर्भ पर अब निर्भर न रहें। वे हर अहम काम 2022 के मध्य तक पूरा कर लेने की हड़बड़ी में यूं ही नहीं हैं। वे मुझे 2022 की जुलाई में राष्ट्रपति भवन जाते दीख रहे हैं। संघ-भाजपा के बस्ते में उनसे निज़ात पा कर ख़ुद सलामत रहने का इससे न्यूनतम साझा कार्यक्रम और क्या हो सकता है?
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