Tuesday, February 27, 2018

दो मुस्टंडों की घूंसेबाज़ी से ज़ख्मी जनतंत्र


पंकज शर्मा
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    मुस्टंडे दो तरह के होते हैं। ज़िस्मानी और दिमाग़ी। इंद्रप्रस्थ की रज़िया इन दोनों के बीच फंस गई है। दोनों हाथों से उसका शीलहरण हो रहा है। जिन्हें गंगा ने बुलाया था, वे गंगा-पुत्र होठों-ही-होठों में मुस्कराते हुए एक हाथ को शह दे रहे हैं। अपनी देवव्रत-भूमिका उन्हें पहले ही कभी याद नहीं थी, सो, आज क्यों रहेगी? राजधर्म निभाने की उम्मीद हम उनसे इसलिए नहीं कर सकते कि यह सलाह तो उन्होंने अपने पितृ-तुल्य तक की 16 साल पहले ठुकरा दी थी।
    आम आदमी के नाम पर दिल्ली की सत्ता में आए अराजक खिलंदड़ों की हाथापाई हम कौन-सा पहली बार देख रहे हैं? उनसे इसके अलावा कुछ और उम्मीद करना ही बेकार है। उनका वश चले तो वे मुख्य सचिव ही क्या, पूरे जनतंत्र को पीट-पीट कर अधमरा कर दें। आधी रात आते-आते अगर ये ज़िस्मानी मुस्टंडे अपनी-अपनी खोह से बाहर नहीं निकलेंगे तो और कौन निकलेगा? इसलिए निर्वाचित होने का साफा बांधे घूम रहे मुक्केबाज़ों के साथ जो हो रहा है, ठीक हो रहा है।
    लेकिन जो दिमाग़ की खाते हैं, वे भी कौन-से कम हैं? इन दिमाग़ी मुस्टंडों को भी हम अधमरे जनतंत्र को जिलाने के लिए संजीवनी बूटी की खोज में जुटा कैसे मान लें? अड़ंगेबाज़ी सरकारी अफ़सर का जीवन-तत्व है। लेकिन अफ़सर दो तरह के होते हैं। एक सकारात्मक मीन-मेखी होते हैं। वे न हों तो सेंधमार सब लूट ले जाएं। दूसरे नकारात्मक ढेलेबाज़ी के उस्ताद होते हैं। वे अन्यान्य कारणों से हर काम रोकने की ख़ुराफ़ात में ही लगे रहते हैं। वे होते ही इसलिए हैं कि क़ायदे का कोई काम न हो पाए।
     ‘जन-प्रतिनिधियों’ के हाथों दोनों ही तरह के अफसरों की पिटाई होती रहती है। कभी फ़ाइलों पर क़लम चला कर, कभी सचमुच दौड़ा-दौड़ा कर। यह जांच का विषय है कि दिल्ली के मुख्य सचिव किस तरह के अड़ंगेबाज़ हैं? वे अपनी गांधीगिरी की वज़ह से इस कथित मरम्मत का निशाना बने या अपनी दिमाग़ी दादागिरी की नटबाज़ी करते-करते गिर पड़े? एक मुख्यमंत्री के घर पर एक मुख्य सचिव से विधायकों की तू-तू-मैं-मैं के दर्जनों क़िस्से पता नहीं कितने प्रदेशों में पिछले सत्तर साल में हुए होंगे। लेकिन तब अफ़सरशाही के हल्लाबोल को हवा देने वाले ऐसे पराक्रमी केंद्र की सरकार में नहीं हुआ करते थे।
    अराजकता के जीवन-दर्शन को गांठ बांधे आधी रात विचर रहे मुख्यमंत्री को तो कल के बजाय आज ही रुखसत कर देने के लिए सब-कुछ होना चाहिए। लेकिन इसके लिए विधायिका और कार्यपालिका को आमने-सामने खड़ा करने के पाप में हम कैसे भागी हो सकते हैं? समाज को समुदायों में बांट कर सियासी सीढ़ियां चढ़ना जिनका अन्न-पानी है, जब वे मुल्क़ को अफ़सरशाही बनाम लोकशाही में बांटने के धंधे में लग गए हों तो मेरा मन तो डर से कांपने लगा है। हमें यह सुनिश्चित करना है कि निर्वाचन प्रक्रिया से किस तरह के लोग चुन कर आने चाहिए और किस तरह के नहीं या देश को विधायिका और कार्यपालिका की कबड्डी का मैदान बनाना है?
    यही वह रास्ता है, जिस पर चल कर मुल्क़ अंततः फ़ौजी हुकूमतों की खाई में जा समाते हैं। जिन देशों ने नौकरशाही को यह निष्कर्ष निकालने का एकाधिकार देने की ग़लती की कि चुने हुए जन-प्रतिनिधि ठीक से काम नहीं कर रहे हैं, वहां आगे चल कर फ़ौज ने यह ऐलान किया कि विधायिका और कार्यपालिका दोनों ही नाकारा हो गए हैं और अब देश बचाने का ज़िम्मा तब तक वह संभालेगी, जब तक हालात नहीं सुधरते। और, हालात उसके बाद कभी नहीं सुधरते।
    भारत जैसे व्यापक जनतंत्र में यह बात सुनने में अजीब लग सकती है। लेकिन कई बीज अपने बोए जाने के दशकों बाद उगते हैं। अब से छह दशक पहले किसने अंदाज़ लगाया था कि सामाजिक नफ़रत के अंकुर जिस दिन फूटेंगे, रायसीना की पहाड़ियों पर बबूल का जंगल लहलहाने लगेगा? क्या हमने इस नियति के बारे में सोचा था कि छह-सात दशक बाद जब एक नई सुबह के इंतज़ार में हम आंख मसलते हुए जागेंगे तो हमें भारत के 80 फ़ीसदी भूगोल पर सियासी-कीकर के झाड़ देखने को मिलेंगे? 
    इसलिए विधायिका-कार्यपालिका की धींगामुश्ती की लपटों में छिपी आशंकाओं को अपनी सबसे तेज़ खुर्दबीन से देखिए। मन-मुताबिक़ तात्कालिक नतीजे हासिल करने की हवस ने ही हमें यहां तक पहुंचाया है। दिल्ली के मुख्यमंत्री के गरिमामयी सिंहासन पर अगर बौनी समझ का एक व्यक्ति आ कर बैठ गया है तो आइए, हम-सब मिल कर, जल्दी-से-जल्दी उसकी विदाई करें। उससे भी बौने उसके दरबारियों से मुक्ति पाएं। लेकिन एक निर्वाचित सरकार को उसका जायज़ काम करने से रोकने के लिए इस्तेमाल हो रहे हथकंडों की अनदेखी अगर हमने की तो भी हम बाद में खुद की ही छाती पीटेंगे। केंद्र में सत्तारूढ़ दल को किसी भी राज्य में उसके विपक्षी दल की सरकार से निपटने के लिए क्या हम कार्यपालिका का इसी तरह इस्तेमाल करने की इजाज़त आगे भी देना चाहेंगे?
    ज़हर, ज़हर है। वह कितना ही धीमा हो, एक दिन अपना काम कर देता है। आज जो हो रहा है, ज़हर की बुआई है। इसके पहले कि हम लोकतंत्र को अंतिम हिचकियां लेते सुनें, हमें चेतना होगा। निर्वाचित अराजकतावादियों के अपराध की मक्खी अगर जनतंत्र की नाक पर बैठी दिख रही है तो क्या हम निरंकुश कार्यपालिका की तलवार चला कर नाक ही काट दें? यह काम या तो बुद्धिहीन तन कर सकते हैं या वे जिनकी अक़्ल बहुत घुटी हुई है। इसलिए ज़िस्मानी मुस्टंडों की मुश्कें कसते वक़्त हमें दिमाग़ी मुस्टडों की कलाबाज़ियों पर पर भी निग़ाह रखनी है। दूध के धुले दोनों ही नहीं हैं। दोनों के पाप बराबर हैं।
    सो, हमें तो दोनों से जनतंत्र बचाना है। कांटों से भी, और, कांटे को कांटे से निकालने वाले बाज़ीगरों से भी। राहुल गांधी ने दो दिन पहले मेघालय में सही कहा है कि हमारे प्रधानमंत्री ऐसे बाज़ीगर हैं कि लोकतंत्र को भी ग़ायब कर सकते हैं। नरेंद्र भाई मोदी की बुनावट का अध्ययन करने वाले जानते हैं कि उनके पास वह सिफ़त है कि लोकतंत्र के खरगोश को अपनी झोली में डालें और उसमें से एकतंत्र का भेड़िया बाहर निकाल दें। हाथ की इस सफाई को देखने में देश की आंखें अगर चूकेंगी तो सब भरभरा कर ढेर हो जाएगा। आखि़र इससे पहले कब यह हुआ था कि कोई प्रधानमंत्री सचिवों और संयुक्त सचिवों की बाक़ायदा बैठक बुला कर उन्हें यह शह दे कि वे विभागीय मंत्रियों की परवाह न करें और सीधे उनके संपर्क में रहें? आज भारत का गृह मंत्री क्या आपको गृह मंत्री जैसा लगता है? आज भारत की विदेश मंत्री क्या आपको विदेश मंत्री जैसी लगती हैं? आज भारत की रक्षा मंत्री क्या आपको रक्षा मंत्री जैसी लगती हैं? वे सब निर्वाचित जन-प्रतिनिधि हैं। लेकिन इतने ज़िम्मेदार पदों पर बैठ कर भी कार्यपालिका की तरफ़ नदीदों की तरह देखने को क्यों मजबूर हैं? क्या अब से पहले भारत का सेनाध्यक्ष इस तरह की बयानबाज़ी करता तो कोई रक्षा मंत्री दूसरी तरफ़ देखता रहता? इसलिए दिल्ली के मुख्य सचिव प्रसंग को ज़रा संजीदगी से लीजिए। यह हमारी राजनीति को दरिद्र बनाने की प्रक्रिया का नया अध्याय है। और, यह जानबूझ कर हो रहा है। बाकी आप जानें! (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)

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