Tuesday, June 25, 2019

बारहवें दिन का सूरज ढलने के इंतज़ार में

बारहवें दिन का सूरज ढलने के इंतज़ार में

 Pankaj Sharma
11 May, 2019 

इतने बौखलाए हुए हुक़्मरान से भारतीय लोकतंत्र का सामना पहले कभी नहीं हुआ था। चुनाव आते हैं, चुनाव जाते हैं। सूरमा जीतते हैं, सूरमा हारते हैं। ताज लुढ़कते हैं, सिंहासन धराशायी होते हैं। मगर इस सब में लोकतंत्र की लय इतनी बेसुरी कभी नहीं हुई, जितनी एक अकेले नरेंद्र भाई मोदी की बदौलत इस बार हुई है। अपने किले से खिसकती ईंटों को देख कर एक प्रधानमंत्री इस क़दर बिलबिलाने लगेगा कि राजनीतिक-सामाजिक जीवन की तमाम आचार-संहिताओं की धज्जियां बिखेरने पर आमादा हो जाएगा, ऐसा तो जनतंत्र के चरवाहों ने कभी नहीं सोचा होगा।
इस आम चुनाव के नतीजे कुछ भी हों, एक बात साफ़ हो गई है कि ‘हिंदू हृदय सम्राट’ हिंदुओं के एक बड़े वर्ग के दिल से भी अब उतर चुके हैं। 69 प्रतिषत लोगों ने तो नरेंद्र भाई को पांच साल पहले भी अपने दिल में जगह नहीं दी थी। इन पांच बरस में बाकी के 31 फ़ीसदी लोगों में से भी ज़्यादातर के दिल टूट गए हैं। विकल्पहीनता के नकली आभास के बढ़-चढ़ बखान की पूंछ पकड़ कर इस बार की चुनाव-वैतरिणी पार करने की आस लगाए बैठे नरेंद्र भाई की बेहाली तरस खाने लायक़ है। 
पहली बार ऐसा हो रहा है कि भारतीय जनता पार्टी की अंतर्धारा का बहाव उसके शिखर-नेतृत्व से विपरीत दिशा में जाता दिखाई दे रहा है। भाजपा के समझदार और सक्रिय पैदल-सैनिक भी अपने सेनापति की हाय-हाय से परेशान नज़र आ रहे हैं। वे भाजपा को सत्तारूढ़ देख कर तो ख़ुश होंगे, मगर वे मोदी-शाह के चंगुल में फंसे संगठन की ताजपोशी को लेकर अनमने हैं। जब आज के माहौल को पांच साल और बर्दाश्त करने में उन्हीं के छक्के छूट रहे हैं तो यह सोच-सोच कर बाकी सबके मन पर क्या बीत रही होगी, समझना मुश्किल नहीं है।
राजीव गांधी को लपेटे में लेने के चक्कर में नरेंद्र भाई ख़ुद ऐसे लपेटे में आ गए कि भाजपा के लोग भी नाक-भौं सिकोड़ रहे हैं। अपनी आदत से मजबूर प्रधानमंत्री अपनी इस चूक पर लीपापोती करने के लिए अब राजीव गांधी पर पूरी ही तरह पिल पड़े हैं। मगर ऐसा करने में उनके बौद्धिक-स्खलन ने और भी बड़े सियासी पतनाले में प्रवेश कर लिया। मैं जानता हूं कि भाजपा और संघ की कई अहम हस्तियां नरेंद्र भाई को इस सबसे बचने की समझाइश देना चाहती हैं, लेकिन यह लाल कपड़ा ले कर उनके सामने कौन आए! हमारे प्रधानमंत्री इस वक़्त जिस मनो-दशा से गुज़र रहे हैं, उसे देख कर उनके अपने भी किंकर्तव्यविमूढ़-दशा में हैं।
अब नरेंद्र भाई को कौन समझाए कि सीना छप्पन इंच का हो या छब्बीस इंच का, सीना हो तो ऐसा हो कि कोई उस पर सिर रख कर रो तो सके! ऐसे सीने का क्या फ़ायदा कि अपने भी डर के मारे उसके सहारे सुबक न सकें! तो छप्पन इंच का होते हुए भी आपका सीना तो बेकार ही गया नरेंद्र भाई! प्रधानमंत्री तो इसलिए हुआ करता था कि यहां-वहां से परेशान हो कर लोग उसके दालान में पहुंच कर अपने जी का बोझ हलका कर लें। यह तो पहली बार हो रहा है कि पांच साल से एक राजा अपनी प्रजा पर ख़ुद ही हंटर बरसा रहा है और उसके दरबार का बहुमत भी चंद जी-हुज़ूरियों के जयकारों के तले कसमसा रहा है। अब से बारहवें दिन का सूरज ढलते-ढलते भारत के सियासी आसमान पर जो इबारत नरेंद्र भाई लिखी देखेंगे, उसे पढ़ कर वे माथा पकड़ कर धम्म से नीचे बैठ जाएंगे।
वे हैं या नहीं, वे जानें, मैं तो उन्हें देश का प्रधानमंत्री ही मानता हूं। इस नाते शायद मुझे उनसे कुछ ज़्यादा अपेक्षाएं हों। लेकिन जो जानते हैं कि वे सिर्फ़ भाजपा के प्रधानमंत्री हैं, वे भी इतनी उम्मीद तो नरेंद्र भाई से रखते ही हैं कि भले ही राजनीतिक विमर्श को कंचनजंघा तक ले जाने का माद्दा उनमें न हो, उसे धारावी के नाले तक ले जाने के लिए दिन-रात एक करने की कोशिश भी उन्हें नहीं करनी चाहिए। मैं सोचता था कि हमारे नरेंद्र भाई तो नेहरू को भी पीछे छोड़ने की लालसा लिए घर से निकले हैं। अब मैं कहां जाकर अपना मुंह छिपाऊं कि वे तो सार्वजनिक संस्कारों के पाताल की तरफ़ सरपट रपट रहे हैं!
जब मैं ने एक समाचार चैनल के नूरा-मंच पर अपने प्रधानमंत्री को ख़ुद इस बात का ज़ोर-शोर से ज़िक्र करते सुना कि कैसे दो अक्षर पूरी दुनिया में एक नारा बन गए तो कुछ लमहों के लिए मेरी तमाम संज्ञाओं को लकवा-सा मार गया। ‘मो’ और ‘दी’ अक्षरों के विश्व नारे में तब्दील होने से मुग्ध प्रधानमंत्री के मुल्क़ का ताज़ा हाल भी तो नरेंद्र भाई को कोई रजत-पटल पर लिख कर बताए! लेकिन कोई क्यों इस झमेले में पड़े? यह दौर ‘तब तक चले चलो, जब तक चली चले’ का है। सो, किसी को न बुरा देखना है, न बुरा सुनना है और बुरा कहने का तो कोई सवाल ही नहीं।
जिन्हें नहीं मानना, वे कभी नहीं मानेंगे; लेकिन सब देख रहे हैं कि चुनाव के इन दो-तीन महीनों में राहुल गांधी ने अपने को व्यवहार, आचरण, वाद-विवाद और बुनियादी मसलों की समझ के मामले में नरेंद्र भाई से कहीं बेहतर साबित किया है। वे लंबी उड़ानों के योद्धा की तरह पेश आ रहे हैं। उनके उलट मोदी ओछे पड़ावों में उलझ कर रह गए हैं। पांच साल में हमारे प्रधानमंत्री देश के लिए कोई नया सकारात्मक विचार लेकर नहीं आए। वे संहारक की भूमिका में ज़्यादा दिखाई देते हैं। उनकी कही बातों ने और उनके उठाए क़दमों ने निर्माण कम, विनाश ज़्यादा किया है। इसलिए राहुल ने उनके लिए ग़लत नहीं कहा कि आपके कर्म आपका इंतज़ार कर रहे हैं।
पिछला चुनाव जीतते ही भाजपा ने 2019 के चुनाव में 50 प्रतिशत वोट हासिल करने का लक्ष्य तय कर लिया था। देखते हैं, वह इस बार 31 प्रतिशत के आंकड़े पर भी टिकी रह पाती है या नहीं? यह भाजपा को अब तक मिला सबसे ज़्यादा मत-प्रतिशत है। कांग्रेस को सबसे ज़्यादा 49 प्रतिशत वोट 1984 के चुनाव में मिले थे। वे भले ही परिस्थितिन्य थे, मगर क्या भाजपा को कोई भी परिस्थिति कभी इतना मत-प्रतिषत दिलाने का माद्दा रखती है? अगर नरेंद्र भाई में अच्छे दिन लाने की कुव्वत होती और उनके अच्छे दिन भारत की धरा पर उतर भी गए होेते तो क्या इस आम-चुनाव में वे भाजपा के मत-प्रतिशत में पांच-सात की भी बढ़ोतरी करा पाते?
हर तरह की कूद-फांद के बावजूद भाजपा को इस चुनाव में 2014 से कम मत-प्रतिशत हासिल होगा। इसी असलियत के अहसास ने नरेंद्र भाई को ऐसा ताताथैयी बना दिया है कि वे गरिमा का हर वस्त्र त्याग देने में भी कोई हिचकिचाहट नहीं दिखा रहे हैं। चुनाव को सियासी भरतनाट्यम के बजाय स्ट्रिपटीज़ की नृत्यशाला में तब्दील कर देने का नरेंद्र भाई का योगदान इतिहास में याद किया जाएगा। वे दोबारा देश की छाती पर सवार हो गए तो भी और विदा हो गए तो भी--मैं तो अपने प्रधानमंत्री का इतिहास-पट्ट लिखने के लिए रामलला से उस स्याही का वरदान मांगूंगा, जो कभी न सूखे।  (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)

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