Tuesday, June 25, 2019

जीत-हार की कथा-यात्रा और इतिहास का कूड़ेदान

PANKAJ SHARMA
25 May 2019

यह किसकी जीत है? यह किसकी हार है? भारतीय राजनीति का सदियों पुराना दर्शनशास्त्र कहता है कि यह उस हाहाकारी-राष्ट्रवाद की जीत है, जो मुल्क़ के मासूम-मानस में पिछले पांच-सात बरस में ठूंस-ठूंस कर भर दिया गया है। यह उस सर्वसमावेशी चिरंतन भारतीय परंपरा की हार है, जिसकी नरम छांह तले हम तमाम ऊबड़-खाबड़ रास्तों से गुज़र कर हौले-हौले इक्कीसवीं सदी तक पहुंचे हैं। चूंकि नरेंद्र भाई मोदी राष्ट्रवाद के प्राकृतिक झरने को सियासी-दावानल में तब्दील करने में कामयाब रहे, इसलिए सिंहासन फिर उनका हो गया। चूंकि विपक्ष राष्ट्रवाद के असली मायने लोगों को समझाने में मौजूं लोक-भाषा का इस्तेमाल नहीं कर पाया, इसलिए उसे देशद्रोही-जैसा मान लिया गया और वह खेत रहा। 
मतदाताओं के एक बड़े हिस्से ने मान लिया कि मोदी हैं तो मुमकिन है। वे भूल गए कि पिछली बार उन्हें दिखाए गए अच्छे दिनों का सपना मुमकिन क्यों नहीं हुआ? वे भूल गए कि अर्थव्यवस्था उकड़ूं बैठी मुंह छिपाए क्यों सिसक रही है? उन्होंने इस बात की अनदेखी कर दी कि बेरोज़गारी चार दशक की सबसे ऊंची दर पर किसने पहुंचा दी? उन्हें बस इतना याद रहा कि वे एक ऐसे पराक्रमी नायक के पीछे चल रहे हैं, जो बैरियों को उनके घर में घुस कर मारता है। वे एक ऐसे महामानव के अनुयायी हैं, जो कुछ करे-न-करे, उनकी उम्मीदों को ज़िंदा तो रखे ही रखेगा। सो, उम्मीद की यह मद्धम-सी लौ भी हो तो उनके लिए काफी है। 
विपक्ष ऐसा कोई भरोसा मतदाताओं के दिलों में इसलिए पैदा नहीं कर पाया कि इक्का-दुक्का को छोड़ कर उसके सभी घोड़े अपनी-अपनी दिशाओं में कुलांचे भर रहे थे। लोगों को लगा कि उन्हें मोदी-राज में फासीवाद के आगमन से लेकर पता नहीं किन-किन खतरों से आगा़ह कराने वाले जनतंत्र के ये रक्षक अगर इसी तरह अंधकार चीरना चाहते हैं तो फिर हम क्यों झंझट मोल लें? सो, बावजूद इसके कि मतदाता जानते थे कि जो लड्डू-पेड़े खिलाने का वादा कर उनके नरेंद्र भाई पांच बरस से उन्हें अपने पीछे घुमा रहे हैं, वे अब तक तो दूर का चंदामामा ही साबित हुए हैं; लोगों ने लुंजपुंज विपक्ष की बारात में जाने के बजाय एक तालठोकू के साथ लाम पर जाने में अपनी भलाई समझी।
मुझे नहीं है, लेकिन सूचनाओं और जानकारियों से खदबदाती देगची में चौबीसों घंटे तैरने वाले मेरे एकाध मित्र को यह उम्मीद जगी है कि नरेंद्र भाई का दूसरा कार्यकाल उतना बुरा नहीं होगा और संघ-भाजपा भी अपनी ग़लतियों से सीखेंगे और एक विधिवत सरकार चलाएंगे। ऐसा तो तब होने की संभावना बनती, जब पांच बरस में संघ-भाजपा ने जो किया, जानबूझ कर न किया होता। ग़लतियां तो अनजाने में होती हैं। इसलिए मेरा मानना है कि पांच साल से राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनयिक दिशाओं में बह रही हवा और उत्पाती ही होगी। जो काम अधूरे हैं, वे इन पांच बरस में पूरे होंगे। जिन्हें रोकना है, वे रोक कर देख लें।
विपक्ष की काया अधमरी पड़ी है। उसका मन मरणासन्न है। संजीवनी बूटी लेकर आने वाला कोई हनुमान दूर-दूर तक दिखाई नहीं दे रहा। राहुल गांधी थे। वे अब भी हैं। वे जीत नहीं पाए--देश में भी और अमेठी में भी। मगर जैसे भी हैं, विपक्ष के पास अब भी वे ही हैं। उनकी दृढ़ता और अनवरतता जीती है। राहुल नहीं हारे हैं, हारी तो उनकी मंडली है। यह मंडली उन्होंने ही कुछ भलमनसाहत, कुछ अनुभवहीनता और कुछ ज़िद की वजह से अपने आसपास इकट्ठी कर ली है। चंद निष्ठावानों को छोड़ दीजिए, इस मंडली के बाकी ज़्यादातर चेहरे शुरू से अपने-अपने चक्कर में हैं। उनके चक्कर में ही राहुल ने इस बार गच्चा खाया है। अपने जी का यह जंजाल जब तक राहुल नहीं तोड़ेंगे, नरेंद्र भाई अपनी मूंग दलते रहेंगे।
संघ-भाजपा की मौजूदा दैत्याकार उपस्थिति से निपटने का तंत्र कांग्रेस के पास है ही कहां? उसके सारे अग्रिम संगठन मरे पड़े हैं। सड़कों पर झंडा लहराने वाली युवा कांग्रेस प्याऊ लगाए बैठी है। छात्र संगठन में विद्यार्थियों के अलावा सब-कुछ है। महिला कांग्रेस वैचारिक किटी-पार्टी से बाहर नहीं आ पा रही। सेवादल दस साल से तो अंतर्ध्यान था और अब ज़रा जागा है तो दिग्भ्रमित है। इंटक मनमानी का स्वायत्त टापू बन गया है। राहुल को तो मालूम ही नहीं है कि उनके मुंहलगों को, बाकी तो छोड़िए, अपने अगल-बगल के कमरों में बैठे दूसरे पदाधिकारियों से ही मिलने के लिए तीन-तीन महीने फ़ुरसत नहीं मिलती है। राहुल के फ़ैसले, योजनाएं और इच्छाएं पार्टी के क्रियान्वयन-तंत्र में कब-कहां दम तोड़ देती हैं, उन्हें मालूम ही नहीं पड़ता है।
एक तरफ़ मोशा (मोदी-शाह) का अमल-तंत्र। दूसरी तरफ़ रागा (राहुल गांधी) का अमल-तंत्र। ज़मीन-आसमान का यह फ़र्क़ पाटे बिना कांग्रेस क्या कर पाएगी? राहुल के कार्यक्रम, योजनाएं और नज़रिया नरेंद्र भाई से कितने ही बेहतर हों, इसलिए कोई स्थायी छाप नहीं छोड़ पा रहे हैं कि राहुल अपने लिए एक प्रतिबद्ध परिपालन-समूह की रचना में विफल रहे हैं। तरह-तरह के करतब कर अपने को राहुल की छुअन से धन्य कर लेने वाले कांग्रेसी ज़मीन की गुड़ाई के बजाय खनखनाहट के आनंदलोक में ज़्यादा विचरने लगते हैं। राहुल के पसीने से जन्मी प्रदेश-सरकारें अपने को सियासत और नौकरशाही के तरह-तरह के बदनाम चेहरों से सजा कर बैठ जाती हैं। ऐसे में राहुल अकेले क्या ख़ाक कर लेंगे!
न्याय करने के वचन से बंधे राहुल को एक काम मगर अब करना होगा। अगर यह वे नहीं करेंगे तो ख़ुद से भी अन्याय करेंगे। उन्हें बिना देर किए अपनी पार्टी की समूची केंद्रीय, प्रादेशिक और ज़िला स्तर तक की सभी इकाइयों, समितियों, समूहों और व्यवस्थाओं को तत्काल प्रभाव से भंग कर देना चाहिए। बिना ज़्यादा देर किए उनकी पुनर्रचना को अंजाम देना चाहिए। यह काम टुकड़ों-टुकड़ों में करने की ग़लती नहीं करनी चाहिए। पिछले पांच-सात साल में कांग्रेस की जो दूसरी कतार निर्मित हुई है, उसके दो तिहाई चेहरे सतही हैं। वे कांग्रेस को जानते-समझते ही नहीं हैं। उन्हें कांग्रेस से इतना ही लेना-देना है कि लेना सब है, देना कुछ नहीं है। राजनीति उनके लिए मनोभाव नहीं, फ़ैशन है। विचारधारा उनकी चित्त-वृत्ति नहीं, पेशा है। इन घुसपैठियों से मुक्ति पाए बिना राहुल की सारी पुण्याई निरर्थक ही बनी रहेगी।
आगे का रास्ता आसान नहीं है। यह रास्ता सजे-धजे खच्चरों के सहारे पार नहीं होगा। उस पार जाने के लिए उच्चैःश्रवा अश्वों की ज़रूरत होगी। यह भारी रात ऐसे ही थोड़े कटेगी! मतलबी सिपहसालारों के भरोसे रह कर राहुल यहां तक पहुंचे हैं। अब तो ये सिपहसालार वैसे भी यहां-वहां डोलेंगे। ऐसे में आज के बेहाल मंज़र को बदलने का सोचना भी बड़ी बात है। राहुल ने सही कहा कि प्यार कभी हारता नहीं है। मगर इस प्रेम-पाती को बामे-यार तक ले जाने वाले कबूतर कहां से आएंगे? उन्हें तो आपको ही पुकारना होगा। कबूतरों के पंख ओढ़े कौओं की पहचान कौन करेगा? उन्हें तो आपको ही पहचानना होगा। 
किसी भी कारण से आए हों, मगर विपक्ष के दुर्दिन आए हैं। किसी भी वजह से हुई हो, विपक्ष की छीछालेदर हुई है। बिना दीक्षा लिए अब विपक्ष इन दुर्दिनों का सामना नहीं कर पाएगा। लेकिन उसे यह दीक्षा देगा कौन? यह दीक्षा तो उसे स्वयं ही स्वयं को देनी होगी। अब भी अगर विपक्ष को यह आत्म-बोध नहीं हुआ तो उसके लिए इतिहास का कूड़ेदान अब बहुत दूर नहीं है। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और (अभी तक) कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।

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