Tuesday, June 25, 2019

चार दृश्यों से झांकता नए प्रधानमंत्री का चेहरा


PANKAJ SHARMA
18 May 2019

हमारी-आपकी क़िस्मत के पिटारे की सप्तपदी अगले पांच बरस के लिए कल पूरी हो जाएगी। इस बार गांठ फिर नरेंद्र भाई मोदी के अंगरखे से बंधेगी या किसी और की निग़हबानी में हम अपने अगले सफ़र पर निकलेंगे, किसे मालूम? बृहस्पतिवार को ईवीएम की टोंटियों से अगर गंगाजल बहा तो नतीजे कुछ भी हो सकते हैं। लेकिन अगर मटमैलेपन का झरना फूटा तो मोदी-कार्यकाल के समर्थन में बह रही लहर के झूठे-सच्चे दावों की फ़सल लहलहाएगी। जो हो। चूंकि अभी तय नहीं है कि क्या होगा, और यह भी कोई कम बड़ी बात नहीं है कि नरेंद्र भाई के पांच पराक्रमी वर्षों के बाद भी यह तय नहीं है कि क्या होगा, सो, कुछ दृश्यों पर ग़ौर कीजिए।
दृश्य एक: भारतीय जनता पार्टी को नरेंद्र भाई की अर्राहट और अमित शाह की खुर्राहट पिछली बार से भी ज़्यादा यानी तीन सौ सीटों तक के आंकड़े पर पहुंचा देती है। ज़ाहिर है कि नरेंद्र भाई फिर प्रधानमंत्री हो जाएंगे। वैसे ही जुगल-जोड़ी को पांच साल में किसी की ज़रूरत नहीं पड़ी तो ऐसे में तो किसी और की तरफ़ उनकी नज़र जाने का सवाल ही नहीं है। लेकिन चूंकि दोनों ज़ुबान के पक्के होने की अपनी छवि पर खरोंचें लगवाना पसंद नहीं करते हैं, इसलिए छुटुर-पुटुर सहयोगी दलों पर मेहरबानी करेंगे और उन्हें सरकारी बरामदे के कोने में पड़ी कुर्सियां दे देंगे। लेकिन असली मुसीबत होगी शिवसेना को समायोजित करने में। देखना दिलचस्प होगा कि अपने दैत्याकार बहुमत की बंदूक के बूते नरेंद्र भाई शिवसैनिकों की अड़ीबाजी को मिमियाहट में बदल पाएंगे या नहीं।
दृश्य दो: पांच न सही, मगर ढाई साल से बेतरह त्रस्त मतदाता भाजपा को दो सौ के आंकड़े से नीचे पटक देता है। ऐसे में इससे उठे बादलों को पार कर नरेंद्र भाई का राडार प्रधानमंत्री के सिंहासन को पकड़ पाएगा या नहीं, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्यवाह-मंडल और भाजपा का विदुर-समूह जाने! इतना पक्का है कि इन हालत में बिना उठापटक के कुछ नहीं होगा। रुस्तम-ए-हिंद का ख़िताब फिर हासिल करने के लिए नरेंद्र भाई को अपने अखाड़े के कई पहलवानों से ज़ोर-आज़माइश करनी होगी। नितिन गड़करी इस कतार में सबसे पहले क्रम पर हैं। उनके बाद राजनाथ सिंह मुग्दर घुमा रहे होंगे। मेरी यह बात अभी आपको चंडूखाने की गप्प लगेगी, मगर संघ के अंतःपुर में देवेंद्र फड़नवीस भी एक पसंदीदा वैकल्पिक चेहरा हैं। शिवराज सिंह चौहान को भी निरा-भाग्यहीन मान कर मत चलिए।
दृश्य तीन: कांग्रेस को 125 से 140 के बीच सीटें मिल जाती हैं। ऐसे में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद पुराने कर्ज़दार के बजाय अगर निष्पक्ष साहूकार की भूमिका का निर्वाह करने पर आमादा हो गए तो कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों की परेड की सलामी मंजूर कर सकते हैं। सीटों का अंकगणित तय करेगा कि प्रधानमंत्री कांग्रेस से हो या सहयोगी दलों से। बवाल इस पर होगा कि अगर सरकार का मुखिया कांग्रेस से हो तो राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनना चाहिए या नहीं। पिछले दो बरस में राहुल ने अकेले अपने दम पर नरेंद्र भाई के छक्के जिस तरह छुड़ाए हैं, किसी के भी दिल पर हाथ रख कर पूछो तो विकल्प तो राहुल ही हैं। मगर आजकल दिल की सुनता कौन है? राहुल भी फिर राहुल हैं। कर्तव्यपरायण तो वे हैं, मगर होड़-दौड़ की ललक उनमें नहीं है। वे अपने को परे कर लें तो फिर कांग्रेस से कौन प्रधानमंत्री बनेगा? मेरी समझ में तीन नाम हैं। डॉ. मनमोहन सिंह, मीरा कुमार और मल्लिकार्जुन खड़गे। 
दृश्य चार: कांग्रेस 100 सीटों से नीचे रह जाती है। ज़ाहिर है कि तब उसके सहयोगी दलों में से किसी चेहरे को प्रधानमंत्री बनने का मौक़ा मिलेगा। किस के पास कितनी सीटें होगी, यह बेमानी होगा। जो सर्वसम्मति जुटा लेगा, उसकी ताज़पोशी हो जाएगी। शरद पवार, ममता बनर्जी, मायावती, चंद्राबाबू नायडू और हरदनहल्ली देवेगौड़ा के चेहरे अपने-अपने परदों से झांक रहे हैं। गड्डमड्ड राजनीतिक हालात के घोड़े को जो राह सबसे ज़्यादा समतल दिखाई देगी, वह उस पर चल देगा। तब नवीन पटनायक, जगन रेड्डी और के. चंद्रशेखर राव भी इस घोड़े की सवारी कर सकते हैं। कोई हैरत नहीं कि नीतीश कुमार और उद्धव ठाकरे भी उसकी पूंछ थामने की ललक लिए मैदान में आ जाएं। 
चुनाव नतीजों की टोपी से मोटे तौर पर इन चार संभावनाओं का खरगोश निकल कर बाहर आएगा। भारत के अगले पाच साल कैसे बीतेंगे, यह इससे तय होगा कि राज-कमान किसके हाथ में जा रही है। जब आप चौराहे पर खड़े हों तो किसी भी तरफ़ जा सकते हैं। इस बार के चौराहे की तीन राहें खुली हैं। नरेंद्र-अमित मार्ग बंद है। भाजपा अपने बूते पर सरकार बनाने की स्थिति में आई तो नरेंद्र भाई हमारे आका होंगे और अगर वे हमारे सर्वेसर्वा होंगे तो देश उसी दिशा में चलेगा, जिसमें पिछले पांच बरस चला है। ऐसे में अंधेरा और गहरा ही होगा, क्योंकि नरेंद्र भाई बाकी सबसे तो पूछते हैं कि सुधरोगे कि नहीं सुधरोगे, मगर वे ख़ुद से यह सवाल कभी नहीं करेंगे। और, असलियत यह है कि प्रधानमंत्री के नज़रिए में सुधार के बिना अब मुल्क़ में कोई बदलाव आना मुमक़िन ही नहीं रह गया है।
पांच बरस के विलोम को अनुलोम में बदलने का मौक़ा जनतंत्र को मिला तो कुछेक किंतु-परंतुओं के बावजूद भारत फिर संभल कर चलने लगेगा। राहुल गांधी प्रधानमंत्री बन गए तो राजनीतिक-सामाजिक संतुलन का एक नया व्याकरण रचने का दौर तेज़ी से शुरू होगा। कमान किसी और कांग्रेसी चेहरे के हाथ में रही तो भी पार्टी-संगठन के पास ऐसी यंत्रावली हमेशा-से मौजूद है, जो सत्ता को उसके बुनियादी मार्ग से भटकने न दे। सो, देश की नैया बिना डगमगाए आगे बढ़ती रहेगी।
कांग्रेस के सहयोगी दलों के किसी चेहरे को प्रधानमंत्री की कुर्सी मिलने पर सरकार के दीर्घजीवी होने के संदेह खड़े होना स्वाभाविक है। जिन्हें लगता है कि मोदी-मुक्त सिंहासन का लक्ष्य पूरा हो जाने के बाद आपसी एकजुटता का रसायन पता नहीं कितना और कब तक गाढ़ा रह पाएगा, वे पूरी तरह ग़लत भी नहीं हैं। गठबंधनीय-प्रेम की अब तक की कथाएं अगर बहुत रमणीय नहीं रहीं तो आगे वे कैसे रह पाएंगी? इसलिए फूलों की गुदगुदी सेज तो इस बार का गठबंधन भी शायद ही बन पाए। लेकिन यह मैं नहीं मानता कि चुनाव नतीजों से अगर अष्टावक्र ने जन्म लिया तो वह अल्पजीवी ही होगा। क्योंकि टेढ़े-मेढ़े ज़िस्मों में भी बुनियादी बुद्धि और विवेक का एक ऐसा ‘ऑटो-पायलट’ तो होता ही है, जो ख़़राब-से-ख़राब मौसम में भी क़दमों को मंज़िल की तरफ़ लिए चलता है।
कोई दो राय नहीं कि देश को एक शक्तिशाली सरकार चाहिए। लेकिन क्या देश को एक बाहुबली सरकार चाहिए? भारत वेदों की मूल चेतना और गीता की वाणी का देश है। भारत कबीर की साखी, तुलसी की चौपाई, मीरा की पदावली और रसखान के दोहों का देश है। इसलिए कोई मदमस्त और अपने को सर्वज्ञ समझने वाला राजा भारत पर राज करता किसी को नहीं सुहाता। जब सूट-बूट के तले किसी मुल्क़ के सपने टूटते हैं तो वह होता है, जो इस बार के चुनाव में हुआ है। सरकार किसी की बने, प्रधानमंत्री कोई बने, इतना भी क्या कोई कम है कि बीस बरस राज करने आए हमारे नरेंद्र भाई ढाई बरस बाद ही भरभराने लगे थे और आज पांच बरस बीतते-बीतते हमें यह सोचना पड़ रहा है कि उनकी जगह कौन ज़्यादा बेहतर होगा!(लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)

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