Saturday, August 21, 2021

मुक्ति-वाहिनियों को पुनर्नमन का समय

 


मरते रहें तो भी मारने के लिए हाथ नहीं उठाने की राह पर चलते रहना आसान नहीं होता है। शाहरुख ख़ान को बादशाह ख़ान समझने वालों में से पता नहीं कितनों को यह पता होगा कि 131 बरस पहले आज ही के दिन जन्मे असली बादशाह ख़ान तो ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ान थे, जिन्होंने अपनी ज़िंदगी के 35 साल शांति से जेलों में गुज़ार दिए, मगर बलूचिस्तान के उबाल खाते ग़र्म पठानी ख़ून को दूसरों के रक्त का प्यासा नहीं बनने दिया। आज के आंदोलनों को बदनाम और बर्बाद करने की हर मुमकिन कोशिश करने वाले अगर सच्चे आंदोलनों का व्याकरण जानते होते तो उन्हें मालूम होता कि आंदोलनकारियों के अंतर्मन में कैसे हमेशा एक सरहदी गांधी मौजूद होता है, जो लंबी-से-लंबी लड़ाई को बिना विचलित हुए अहिंसक तरीके से जीतने का माद्दा रखता है।

दिल्ली की सरहद पर जो घट रहा है, क्या उसमें आपको लाखों-लाख सरहदी गांधी नज़र नहीं आ रहे? कारोबारी फ़ायदों से प्रेरित सियासती मसलों के विरोध की भावना में जब आध्यात्मिक पुट आ जाए तो महात्मा और सरहदी गांधी जन्म लेते हैं। आंदोलनों से हमेशा हिटलरों का ही जन्म नहीं होता है। आंदोलनों से नेल्सन मंडेला और मार्टिन लूथर किंग जूनियर भी जन्म लेते हैं। इसलिए जिन्हें रामचरित मानस की चौपाइयों का धर्म नहीं मालूम, जिन्हें गीता के श्लोकों का मर्म नहीं मालूम, जिन्हें गुरु ग्रंथ साहिब के सबद का अर्थ नहीं मालूम, जिन्हें क़ुरान की आयतों का पैग़ाम नहीं मालूम और जिन्हें बाइबल के पदों का पयाम नहीं मालूम; उन्हें तो हर सकारात्मक आंदोलन में भी बग़ावत की बू ही आएगी। उन्हें तो जनक्षोभ से उपजे हर अभियान के पीछे देसी-विदेशी साज़िशें ही दिखाई देंगी।

इसलिए यह ख़ुदाई ख़िदमतगार की स्थापना की स्मृतियों को और पुख़्ता करने का वक़्त है। इसलिए यह लालकुर्ती आंदोलन की यादों को फिर ताज़ा करने का वक़्त है। इसलिए यह बच्चाख़ान के बच्चा मन के पुर्नअघ्ययन का समय है। इसलिए यह असहयोग आंदोलन के इतिहास को दोबारा पढ़ने का समय है। इसलिए यह रंगभेद और नस्लवाद के खि़लाफ़ हुए आंदोलनों के स्मरण का समय है। इसलिए यह मुक्ति-वाहिनियों के पुर्नअभिनंदन का वक़्त है। इसलिए यह तीसरी दुनिया के हक़ों को महफ़ूज़ रखने के लिए लड़ी गई राजनयिक लड़ाइयों के योद्धाओं को पुनर्नमन करने का समय है। इसलिए उनकी परवाह करना छोड़िए, जो षड्यंत्रों और रक्तपात से सने नकारात्मक आंदोलनों की उपज हैं। उनमें असहमतियों के सुरों की पावनता का संगीत सुनने का शऊर ही कहां है?

42 बरस पहले इसी फरवरी महीने की शुरुआत में अटल बिहारी वाजपेयी भारत के विदेश मंत्री के नाते चीन की यात्रा पर गए थे। 1962 के चीन-भारत युद्ध के बाद किसी मंत्री की यह पहली चीन यात्रा थी। 1979 में फरवरी के दूसरे रविवार को वाजपेयी बीजिंग (तब पीकिंग) के लिए रवाना हुए और यात्रा के आठवें दिन जब केंटोन में थे तो चीन ने वियतनाम पर हमला कर दिया। इसके विरोध में वाजपेयी अपनी यात्रा अधूरी छोड़ उसी दिन फ़ौरन भारत लौट आए। दिल्ली में चीनी दूतावास के सामने कई दिन जंगी प्रदर्शन होते। क्या यह चीन के आंतरिक मामलों में हमारी दख़लंदाज़ी थी? क्या हम तिब्बत और शिंगज़ियांग के मसले उठा कर चीन के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करते हैं? क्या रंगभेदी नीतियों के विरोध में 40 साल तक राजनयिक संबंध न रख कर भारत ने दक्षिण अफ़्रीका के आंतरिक मामलों में दख़ल दिया था? क्या नाज़ी जर्मनी में यहूदियों से हुए बर्ताव का ज़िक्र कर हम जर्मनी के अंदरूनी मामलों में दख़ल देते हैं? क्या पाकिस्तान में हिंदुओं, सिक्खों, अहमदियों और ईसाइयों से हो रहे बर्ताव के ख़िलाफ़ आवाज़ उठा कर हम पाकिस्तान के अंदरूनी मसलों पर बोल रहे हैं? क्या पश्चिमी पाकिस्तान द्वारा पूर्वी पाकिस्तान पर किए जा रहे ज़ुल्मों का विरोध कर भारत ने उसके आंतरिक मामले में हस्तक्षेप किया था? क्या हम नेपाल, श्रीलंका और मालदीव जैसे पड़ौसियों के आंतरिक मामलों में दख़लंदाज़ी करते रहे हैं?

क्या हमारे हिंदू हृदय सम्राट ने ’अब की बार, ट्रंप सरकार’ की धुन पर ठुमका लगा कर अमेरिका के आंतरिक मामलों में दख़ल दिया था? मैं तो नहीं मानता कि भारत की सरकार या भारत के किसी नागरिक ने कभी भी किसी भी देश के भीतरी मसलों में दख़ल दिया हो। लेकिन अगर सच कहने का साहस किसी को अपने आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप लगता हो तो लगता रहे। यह तो नहीं चल सकता कि जब हम चाहें धरती को वैश्विक-गांव मान लें और जब चाहें, अपने निजी दड़बे में तब्दील कर लें। अगर हमारे सुख सार्वजनीन हैं तो हमारे दुःखों को भी सार्वजनीन होने का हक़ है। अगर हम अपने सार्वजनीन आनंद का उत्सव मनाने की उम्मीद सारे संसार से करते हैं तो हमें हमारे सार्वजनीन ग़मों पर एकाध आंसू बहाने का हक़ भी तो दुनिया को देना होगा। इसलिए हमें रिहाना और ग्रेटा थनबर्ग की भावनाओं के पीछे टूल-किट और लता मंगेशकर और सचिन तेंदुलकर की टिप्पणियों के पीछे अटूट देशभक्ति का दर्शन कराने वालों से सावधान रहना सीखना भी बहुत ज़रूरी है।

पहले कभी-कभी लगता था, अब रोज़-रोज़ लगता है कि मेरा जनम अमोल भले ही नहीं था, लेकिन जा तो कौड़ियों के बदले ही रहा है। वे सचमुच पराक्रमी होते हैं, जो सियासत की डोरियों का संचालन करते हैं। मैं तो उनमें हूं, जिनसे यह सियासत देखी भी नहीं जा रही। जिनके लिए राजनीति का कीचड़ ही उनका स्वर्ग है, मैं उन्हें दाद देता हूं। इतने बहरे कानों, इतनी अंधी आंखों, इतनी गेंडा-चमड़ी, इतने सूखे दिल और इतने बट्ठर दिमाग़ का बोझ ले कर जीना और मुस्कराते हुए जीते चले जाने का आसुरीपन सौभाग्य की श्रेणी में आता है कि दुर्भाग्य की, आप ही बताइए? जिनकी राह में दुआओं के नहीं, बद्दुओं के ही दीप जलते पाए जाएं, उन्हें आप ख़ुशक़िस्मत मानेंगे या बदक़िस्मत? इतनी माथाफोड़ी के जीवन में ही जिन्हें रस मिलता है, उनका अभिवादन करें कि उन्हें लानत भेजें, आप ही बताइए? जिन्हें सुकून ही ढाई घर की चाल चलने में मिलता है, पिछले कुछ बरसों से उनकी बनाई दुनिया, सच बताइए, आपको कितनी रास आ रही है?

मैं चाहता हूं कि उन परिंदों पर लिखूं, जिनकी चहचहाट मैं बचपन में सुनता था। मैं चाहता हूं कि उन सुरीली धुनों पर लिखूं, जिन्हें किशोर-वय में मैं गुनगुनाता था। मैं चाहता हूं कि उन रूमानी दिनों पर लिखूं, जो मैं ने युवावस्था में गुज़ारे। मैं चाहता हूं कि उन बाड़ियों और अमराइयों पर, ताल और नदियों पर, झीलों और झरनों पर, टेकरियों और परबतों पर, मेड़ों और पगडंडियों पर लिखूं, जिनसे हो कर इस ज़िंदगी में गुज़रा हूं। मगर सात बरस से इन सब पर लिखने को तरस गया। ज़िंदगी के इस चिरंतन हुस्न की वे ओस-बूंदें हमेशा की तरह अब भी दिलक़श हैं, मगर लौट आती है इधर को भी नज़र, क्या कीजे! प्रभु से रोज़ यही मांगता हूं कि जल्दी वह समय लाएं कि मेरी क़लम हर सप्ताह सियासी कचड़कांध पर चलने से मुक्ति पाए और उसकी स्याही से शाश्वतता का श्रंगार आरंभ हो! आप भी मेरे लिए यही दुआ कीजिए। सचमुच बहुत उकता गया हूं। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक हैं।)

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