दो महीने बाद 44 के होने वाले चेतन भगत भारतीय इतिहास के सबसे ज़्यादा बिकने वाले अंग्रेज़ी उपन्यासकार भले ही हों और शहरी मध्यमवर्गीय युवाओं के बारे में लिखी उनकी क़िताबों पर रीझने वाली बेपैंदी के लोगों की कतार भले कितनी ही लंबी हो, मैं ने उन्हें कभी बुद्धिवतार नहीं माना। राजनीति पर लिखे उनके लेखों से तो मुझे उनकी बुद्धि पर संदेह-सा ही होने लगा था। अभी दो दिन पहले छपे उनके एक लेख ने तो मेरा यह संदेह भी पूरी तरह गायब कर दिया और मैं अंतिम तौर पर इस नतीजे पर पहुंच गया कि चेतन भारतीय राजनीति की समझ के मामले में मूर्खता की हद तक अ-चेतन हैं।
बाज़ारवाद की तिकड़मों से तात्कालिक ख्याति हासिल कर लेने वालों को समूचा ज्ञान-पुंज मान लेने वाली अपनी नौजवान पीढ़ी के भोलेपन पर तरस खाते हुए मैं विनम्रतापूर्वक चेतन से यह निवेदन करना चाहता हूं कि भविष्य में उन्हें अपने उपन्यासों के कथानकों में जो उड़ानें भरनी हों, भरें, मगर देश की राजनीति पर रहम खाएं। इसलिए कि राजनीति उन्हें ऐसा हलका-फुलका विषय लगती होगी कि वे भी अपने को रायबहादुर समझने लगें, मगर ऐसा है नहीं। भारतीय राजनीति की गलियों की समझ इसी जनम में विकसित करने के लिए चेतन जैसी गई-बीती बुद्धि रखने वालों को अभी कम-से-कम 44 साल अध्ययन करना होगा। अपने ताजा लेख में चेतन ने हमें बताया है कि कांग्रेस 2019 का आम चुनाव कैसे जीत सकती है। आगे चल कर इस लेख के ज़रिए स्थापित की जाने वाली अवधारणाओं को लेकर उनके मन में इतना भय है कि वे लेख की शुरुआत ही यह सफाई देने से करते हैं कि उनके इस लेख का मतलब भारतीय जनता पार्टी को कम आंकना नहीं है। वे दूर बैठे निगा़हबानों से यह चिरौरी भी कर लेते हैं कि उनके लेख का मक़सद कांग्रेस का समर्थन करना नहीं है और वे तो सिर्फ़ यह सवाल उठा रहे हैं कि क्या वाकई कांग्रेस 2019 में जीत सकती है?
चेतन खुद को महज एक विश्लेषक बताते हुए आगे कहते हैं कि नरेंद्र मोदी के हारने के मौक़े कम हैं, लेकिन अगर कांग्रेस कुछ बदलाव करे तो वह अगला चुनाव जीत सकती है। आप सोचेंगे कि जब चेतन इतनी अच्छी बात कह रहे हैं तो मुझे वे मूर्खता की हद तक अ-चेतन क्यों लग रहे हैं? इसलिए कि मैं ने उनके पूरे लेख में ‘नियम एवं शर्तें लागू’ के महीन अक्षरों को बेहद ध्यान से पढ़ा है। चुनाव जीतने के लिए ज़रूरी बदलावों की पेंचदार दलीलों के पीछे से झांकती चेतन की अवधारणा हमें सिर्फ़ यह बताना चाहती है कि राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस लोकसभा का अगला चुनाव नहीं जीत सकती। वाह रे चेतन भगत!
और, सुनिए। चेतन भगत हमें बता रहे हैं कि अगर कांग्रेस सचिन पायलट को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित कर दे तो 2019 का चुनाव जीत जाएगी। मुझ से न हंसा जा रहा है और न रोया। सचिन हममें से बहुतों के मित्र रहे राजेश पायलट के बेटे हैं, उन्हीं की तरह ऊर्जावान हैं, समझदार हैं और उनका भविष्य सचमुच उज्जवल है। लेकिन कांग्रेस उन्हें अपना प्रधानमंत्री-चेहरा बना कर चुनाव जीत जाएगी, यह कहना वैसा ही है, जैसे कोई कहे कि चेतन भगत को भारतीय साहित्य का प्रतिनिधि-चेहरा बना लेने से विश्व-साहित्य भारत के चरणों में गिर पड़ेगा।
चेतन अपने को साहित्य की दुनिया में प्रेमचंद से बड़ा समझते होंगे, लेकिन राजनीति का पायदान जिस ईंट-गारे से बनता है, उसकी थोड़ी भी समझ अगर चेतन को होती तो वे राहुल गांधी की जगह सचिन पायलट को प्रधानमंत्री-चेहरा बनाने के चंडूखाने में आराम फ़रमाने कभी नहीं जाते। और-तो-और, सचिन को भी लग रहा होगा कि वे किस भंगेड़ी की छलकती बुद्धि का विषय बन गए?
बेवकूफियां किससे नहीं होतीं? लेकिन बावजूद इसके मैं यह लेख लिखने के लिए चेतन भगत का आभार व्यक्त करता हूं। इसलिए कि उनके मन में यह बात आई कि कांग्रेस 2019 का चुनाव जीत सकती है। अभी कुछ महीने पहले तक तो वे कांग्रेस-मुक्त भारत की झांजर बजाने में मशगूल थे। नरेंद्र भाई मोदी के बीस साल राज करने की धुन पर मटकते वे थक नहीं रहे थे। लेकिन, दस-बीस तो छोड़िए, पौने चार साल में ही उनका यह हाल हो गया कि कांग्रेस की याद सताने लगी। अकेले रह जाने की कसक दूर के मुसाफ़िर को पास बुलाने लगी। इसलिए महत्वपूर्ण यह है कि हम पिछले तीन-चार महीने में देश में आए इस बदलाव पर गौर करें कि कांग्रेस का शोक-पत्र लिख रहे लोग अब उसमें संभावनाएं देखने से कतरा नहीं पा रहे हैं।
मैं चेतन भगत का इस लेख में कही गई कुछ और बातों के लिए भी आभार व्यक्त करना चाहता हूं। उनका वश चलता तो शायद वे ये बातें नहीं लिखते। उन्होंने अपने लेख में, घुमा-फिरा कर ही सही, इशारा किया है कि नरेंद्र मोदी ने खुद के लिए ऊंची अपेक्षाएं निर्मित कर लीं और कुछ कर के नहीं दिखा पाए; कि समाज को बांटने वाली आवाज़ों को वे बंद नहीं कर पाए; कि देश को उन्होंने असुरक्षित बनाए रखा; कि अर्थव्यवस्था का उन्होंने दम घोंट दिया; कि वे पर्याप्त रोज़गार पैदा नहीं कर पाए; कि वे करदाताओं पर लगातार टैक्स थोपते रहे। मगर इतने पर भी चेतन का मन भाजपा की हार नहीं चाहता। सो, वे अपने लेख के अंत में फिर याद दिलाते हैं कि उनकी कही बातों का अर्थ यह संकेत देना नहीं है कि भाजपा हारनी चाहिए या उसके हारने की संभावना है। फिर वे एक दर्शनशास्त्री की तरह हमें बताते हैं कि महान लोकतंत्र वही होता है, जिसमें विपक्ष के लिए भी अच्छे मौक़े हों। सबसे अंत में वे कामना करते हैं कि श्रेष्ठतम दल की जीत हो! बेचारे चेतन भगत। न उनसे निगलते बन रहा है, न उगलते।
चेतन भगत जी, सियासत की संजीदगी ‘हाफ़ गर्लफ्रेंड’ की पटकथा नहीं है। हांगकांग में गोल्डमेन का इनवेस्टमेंट बैंकर होना अलग बात है और भारतीय पगडंडियों पर दबे पांव चल रही राजनीति के निवेश-पहलुओं को समझना एकदम अलग बात। अगर अहमदाबाद के आईआईएम से निकले लुकमान हकीम ही सारे मर्ज़ों की दवा होते तो फिर बात ही क्या थी? ‘मेकिंग इंडिया ऑसम’ कागज़ पर लिखने वाली स्याही में और मुल्क़ बनाने के लिए बहने वाले पसीने में बहुत फ़र्क़ होता है। चार अक्षर लिख कर अपने को हरफ़नमौला समझने वालों को चार क़िताबें पढ़ने की ज़हमत भी उठानी चाहिए। घर के जोगी अब इतने भी जोगने नहीं रहे कि आन गांव के सिद्धों को सिर पर उठाए नाचते रहें। जितनी जल्दी यह बात समझ में आ जाए, अच्छा है। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्टीªय पदाधिकारी हैं।)
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