राष्ट्रपति के बजट-अभिभाषण पर संसद में हुई चर्चा का जवाब देते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई दामोदर दास मोदी ने बुधवार को दोनों सदनों में अपनी सरकार के पौने चार साल के कामों की फ़ेहरिस्त सुनाते-सुनाते कई ऐसी बातें कहीं, जिनसे मौजूदा व्यवस्था के पीछे काम कर रही बदरंगी मानसिकता खुल कर झांक रही थी। हमारे प्रधानमंत्री ने लोकसभा में कहा कि छोटे मन से बड़े काम नहीं होते और फिर राज्यसभा में भी इसे दोहराया। मगर उनकी बातें सुन कर मेरी तरह बहुतों को समझ नहीं आया कि खुद उनका मन कितना बड़ा है?
नरेंद्र भाई की कही कुछ बातों पर गौर करिए। उन्होंने कांग्रेस के चरित्र पर उंगली उठाई। कहा कि बांटना तो आपके चरित्र में है। आपने भारत का विभाजन किया। देश के टुकड़े किए। आज आज़ादी के 70 साल बाद भी एक दिन ऐसा नहीं जाता है कि आपके उस पाप की सज़ा सवा सौ करोड़ हिंदुस्तानी न भुगतते हों। प्रधानमंत्री की इस मासूमियत पर जान छिड़कने को मन करता है।
भारत के विभाजन की त्रासदी के इतिहास की अगर यह समझ नरेंद्र भाई के अंतरमन में है तो यह समझना एकदम आसान है कि हमारी सामाजिक समरसता की राह में बहा पसीना नफ़रत की किन भट्टियों में जा कर स्वाहा होता रहा है और इन अलावों की आग किन शक्तियों के बारूद से लपलपा रही है।
प्रधानमंत्री की यादों की गहराई में बसी यह बात भी बाहर आई कि आज़ादी के बाद तीन-चार दशक तक देश में राजनीतिक विपक्ष नही के बराबर था, रेडियो कांग्रेस के गीत गाता था, टेलीविजन आया तो वह भी कांग्रेस को समर्पित हो गया, न्यापालिका की शिखर-नियुक्तियां कांग्रेस करती थी, न तो आज की तरह एनजीओ थे और न पीआईएल थीं यानी विरोध का नामो-निशान नहीं था।
नरेंद्र भाई को कसक है कि या हुसैन, तब हम न हुए, सो, अब एक ऐसी व्यवस्था बनानी है कि सरकारी तो छोड़िए, निजी प्रचार माध्यम भी हमारे गीत गाएं; न्यायपालिका की नियुक्तियां कैसे हम कर पाएं; समाज की बुनियादी चिंताओं को सामने लाने वाले स्वयंसेवी संगठनों का गला कैसे घोंटें और किसी की भी मनमानी रोकने के लिए दायर होने वाली जनहित याचिकाओं पर पाबंदी कैसे लगें?
अगर नरेंद्र भाई को कचोट रही स्मृतियां सही हैं तो वे कौन थे, जिन्होंने ऐसे घनघोर विपक्ष-विहीन और एकतरफ़ा दौर में भी उन बीजों का खाद-पानी कभी नहीं रोका, जिनकी फ़सल की लहलहाट ने आज़ादी के महज तीस साल बाद विपक्ष को पहली बार सत्ता सौंप दी थी? मैं तो इतना जानता हूं कि अगर आज़ाद भारत का पहला प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के बजाय गुरु गोलवलकर के शिष्यों में से कोई होता तो वह कांग्रेस को तो कभी 2 से 282 पर नहीं पहुंचने देता।
पौने चार साल में प्रचार माध्यमों से ले कर न्यायपालिका और स्वयंसेवी संगठनों पर मंडरा रहे बादलों का अध्ययन करने वाले भी बशीर बद्र की वही पंक्तियां प्रधानमंत्री को अर्पित करना चाहते हैं, जिनके ज़रिए लोकसभा में उन्होंने बशीर बद्र की पंक्तियों का जवाब दिया--जी बहुत चाहता है, सच बोलें; क्या करें, हौसला नहीं होता।
यह कहने को कि नेहरू ने देश को लोकतंत्र दिया, जो अहंकार या नासमझी समझते हैं, उन्हें अपने इस अहंकार से जितनी जल्दी हो, बाहर आ जाना चाहिए। लिच्छवी के ज़माने के लोकतंत्र की मुंडेर पर अगर नेहरू दीये न जलाए रखते, अगर बौद्ध साम्राज्य की परंपरा को नेहरू न सींचते और अगर जगदगुरु बसेस्वर के बारहवीं सदी में शुरू किए अनुभव मंडपम की मशाल नेहरू मज़बूती से न थामे रखते तो स्वतंत्र भारत सत्तर साल में संसार का सिरमौर न बनता।
ढाई हज़ार साल से लोकतंत्र अगर हमारी रगों में है और अगर अगले ढाई हज़ार बरस भी रहेगा तो इसलिए कि आज़ादी के बाद सबसे संकटपूर्ण ढाई दशक में नेहरू ने जनतंत्र की बुनियाद को दरकने नहीं दिया। बावजूद इसके वे इकलखुरे नहीं हुए कि पूरे मुल्क़ में पंचायत से संसद तक उनका ही राज था। आज की सल्तनत संभाले बैठे लोगों को नेहरू से यही तो सीखना है।
सुल्तानी जाने के बाद भी कांग्रेस सुल्तान की तरह व्यवहार कर रही है या नहीं, इसे कांग्रेस पर छोड़िए। सुल्तान बन जाने के बाद से आपकी सुल्तानी के किस्से तो, नरेंद्र भाई, हम लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे उन द्रोणाचार्यों से सुन चुके हैं, जिनके दिए धनुर्विद्या ज्ञान ने आपको यहां पहुंचाया। आपके बाणों से घायल यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी और शत्रुघ्न सिन्हा जैसे आपके कई रणबांकुरों की ताज़ा कराह सिर्फ़ आपको ही तो सुनाई नहीं दे रही है। अपने गृह मंत्री को आप गृह मंत्रालय नहीं चलाने देते, अपनी विदेश मंत्री को विदेश मंत्रालय नहीं चलाने देते, अपनी रक्षा मंत्री को रक्षा मंत्रालय नहीं चलाने देते और फ़िक्र आपको है कांग्रेस की।
आपको तो गांधी जी का भारत भी सिर्फ़ इसलिए चाहिए कि उन्होंने कहा था कि आज़ादी मिल गई है, अब कांग्रेस की ज़रूरत समाप्त हो गई है, इसलिए उसे भंग कर देना चाहिए। हम तो समझते थे कि गांधी का व्यापक दर्शन आपकी समझ में आ गया हैं, इसलिए गांधी-गांधी करते हैं। संसद में आप अगर अपनी असली नीयत नहीं बताते तो हम तो अंधेरे में ही रह जाते! साबरमती के संत को लेकर भी अगर मन का दायरा इतना सिमटा हुआ है तो छोटे मन से बड़े काम नहंी होते जैसे ज़ुमलों का मोल ही क्या है?
परदेस जा कर पिछले पौने चार साल से 66 साल में भारत में कुछ भी न होने का लगातार आलाप लगा रहे हमारे प्रधानमंत्री का कहना है कि कांग्रेस भाजपा की बुराई करते-करते यह भूल जाती है कि वह भारत की बुराई करने लगी है और नरेंद्र मोदी पर हमला करते-करते भूल जाती है कि उसने हिंदुस्तान पर हमला बोल दिया है। संसद में उन्होंने कहा कि मेहरबानी कर के ऐसा मत कीजिए कि देश की बदनामी हो। नरेंद्र भाई, कांग्रेस भी तो इतने दिनों से आपसे इसी मेहरबानी की भीख मांग रही थी।
चलिए, अब भी सही, बिस्मिल्लाह कीजिए। किसी की हंसी में रामायण धारावाहिक के पात्र देखने का आपको हक़ है। कोशिश कीजिए कि आपकी मद-मस्ती में इसी धारावाहिक के पात्र देश न देखे। कोई और शायद ही आपसे यह कहेगा कि आप भारत के पहले प्रधानमंत्री हैं, जो सब-कुछ अपने ठेंगे पर रखे घूम रहे हैं। भारतीय राजनीति में लगातार कम हो रही शालीनता को थामिए। कौन चाकू, कौन पसलियां, यह फ़ैसला देश पर छोड़िए, मैं तो इतनी भर गुज़ारिश करता हूं कि कुछ ऐसा कीजिए कि आपको क़रीब से भी देखें तो आप अच्छे दिखाई दें।
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