Saturday, February 3, 2018

सायोनारा, सायोनारा की धुन पर नाचता देश


इस झमेले में जिसे पड़ना हो, पड़े, कि आम-बजट कैसा था और इससे आम लोगों को कुछ मिला या नहीं? जब नरेंद्र मोदी सरकार के पिछले तीन बजट ही देश को निहाल नहीं कर पाए तो चैथे से जिन्हें कोई उम्मीद पालनी हो, पालें। मैं निराशावादी ही भला! अपनी दुकान पर फलों का रूप दे कर छिलके सजाने की कारीगरी हमारे प्रधानमंत्री जिस सफाई से करते हैं, मैं उसका कायल हूं। कायल हूं, गर्वीला नहीं। शर्मीला हूं। शर्मीला, यानी संकोची नहीं, शर्मसार हूं।
मैं ने 38 साल संसदीय कार्यवाही दस फुट की दूरी से देखी है। प्रेस-गैलरी में बैठ कर। पहले कभी किसी प्रधानमंत्री को अपनी सरकार के आम-बजट पर, पंक्ति-दर-पंक्ति, ऐसी पहलवानी अदा में मेज़ पर थाप लगाते देखने का सौभाग्य मुझे नहीं मिला। यह अहोभाग्य भी कभी नहीं मिला था कि वित्त मंत्री के अंग्रेज़ी में दिए बजट-भाषण का हिंदी तर्ज़ुमा सीधे प्रधानमंत्री के मुखारविंद से, और वह भी विस्तृत टीका सहित, क़रीब-क़रीब फ़ौरन बाद दूरदर्शन पर सुना हो। इस नाते, मेरा यह पत्रकारीय-जनम तो इस बहस्पतिवार को पूर्णतः सफल हो गया।
इसलिए मैं आपको यह बता कर निराश नहीं करना चाहता कि बजट के ख़ुशनुमा मलबूस के भीतर जो ज़िस्म है, वह कितना खोखला है। जो जानते हैं, उन्हें बताने की ज़रूरत नहीं है और जो नहीं जानते, उन्हें अभी बताने का कोई मतलब नहीं है। वक़्त बेहद निर्मम होता है, सो, आगे-पीछे इस बजट की असलियत भी सब के सामने आनी ही है। नरेंद्र भाई का असली इम्तहान अब इतना भर रह गया है कि वे अपनी सरकार की आंकड़ेबाज़ी के घोड़े पर सवार हो कर और कितनी दूरी तय पाते हैं।
अपने मन की यह बात हमारे प्रधानमंत्री हमें बताएं, न बताएं, मुझे लगता है कि मन-ही-मन वे समझ गए हैं कि इस घोड़े की सवारी जितनी होनी थी, हो ली है। इसलिए, मैं तो पूरी तरह आश्वस्त हूं कि चौथे आम-बजट की लहर को ज़्यादा-से-ज़्यादा उछाल दे कर वे इसी साल आम-चुनाव कराने वाले हैं। आपको यह अजीब लगेगा, लेकिन मेरा सियासी-इलहाम कहता है कि ये चुनाव इसी मई में हो जाएंगे। अगर टले तो पांच महीने से ज़्यादा नहीं टलेंगे और इस साल की दीवाली मनते ही लोकसभा के चुनावी पटाखे ज़ोरों से फूटने लगेंगे।
नरेंद्र भाई की मुसीबतें बेतरह बढ़ने लगी हैं। ज़ाहिर है कि इसका खामियाज़ा भारतीय जनता पार्टी को भुगतना है। अपने बलपूर्वक हरण के बाद भाजपा ने सिर झुका कर जिस दिन नरेंद्र भाई के साथ फेरे ले कर उन्हें अपना सर्वस्व सौंप दिया था, उसी दिन ‘डोली आई है, अब अर्थी ही जाएगी’ के प्रारब्ध से वह छप्पन इंच के सीने से बंध गई थी। मिलन की इस वेला ने नरेंद्र भाई को भाजपा का बनाया, नही बनाया; भाजपा को तो नरेंद्र भाई का पर्याय बना ही दिया। रही-सही कसर अमित भाई शाह की खड़ाऊं-व्यवस्था की मुक्केबाज़ी ने पूरी कर दी।
इसलिए अब जुगलबंदी के बेसुरेपन से थक गए साजिदों की ताल बे-ताल हो रही है। 
अर्थव्यवस्था की बेहाली हर लीपापोती के बावजूद सतह पर आ गई है। पचास करोड़ लोगों को बीमार होने पर इलाज़ की आस दिलाने वाली सरकार से लोग पूछ रहे हैं कि उनकी बुनियादी जीवनी-शक्ति पिछले तीन बरस में आखि़र चूस किसने ली? अपनी डिग्रियां गले में लटकाए रोज़गार पाने की क़तार में खड़े लोग सवाल उठा रहे हैं कि आख़िर वे अपने भूखे पेट के साथ कितने वादों पर, कब तक यक़ीन करें? किसानों, देहातों, वंचितों और शोषितों का दम भरने वाले हमारे प्रधानमंत्री को यह जवाब देना भारी पड़ रहा है कि आखि़र वे कब तक लोगों को अपने सब्ज़बाग में टहलाते रहना चाहते हैं? हमारी सदियों पुरानी सामाजिक संरचना को भेद रही बर्छियों से लगे ज़ख़्मों की रिसन असह्य होती जा रही है। 
ऐसे में किसी को दिखे, न दिखे, सच्चाई यह है कि नरेंद्र भाई, अमित भाई और उनके चंद बग़लगीरों को छोड़ कर बाकी पूरी भाजपा भीतर से सनसना रही है। भाजपा के सहयोगी दल भी अपने पल्लू समेटने लगे हैं। शिवसेना तो शयन-कक्ष से बाहर आ कर खुल कर ताल ठोक रही है। तेलुगु देशम ने ‘बहुत हो चुका’ की मुनादी कर दी है। लोक जनशक्ति पार्टी डूबते जहाज से समय रहते खिसक लेने की अपनी चिरंतन परंपरा के निर्वाह में लग गई है। अंग-भंग के बाद बचे-खुचे एकीकृत जनता दल की कसमसाहट भी सतह की तरफ़ बढ़ रही है। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी एनडीए के संतरे का छिलका अब बस उतरने ही वाला है। उसमें शामिल ज़्यादातर राजनीतिक दल जल्दी ही एक मंथन-बैठक करने वाले हैं, जिसमें भाजपा को शिरकत के लिए आमंत्रित तक नहीं किया जाएगा।
यह सब नरेंद्र मोदी को समय-पूर्व लोकसभा चुनाव की दहलीज़ तक खींच लाया है। वे जानते हैं कि 2019 का मई आते-आते तो वे इतने हांफ़ जाएंगे कि कोई सियासी अनुलोम-विलोम उनके काम नहीं आएगा। सो, उन्हें लग रहा है कि 2018 के मई से ले कर नवंबर तक ही वे अपनी लाज थोड़ी-बहुत बचा सकते हैं। इस दौरान वे अधिकतम संभव प्रदेशों की विधानसभाओं को ले कर लोकसभा के मत-कुरुक्षेत्र में डुबकी लगाने की तैयारियां इसलिए कर रहे हैं कि उन्हें लगता है कि लहरें उन्हें उछाल कर किनारे पर ले आएंगी।
लेकिन मैं उन्हें बताना चाहता हूं कि तमाम सूचना-संकलन तकनीकों के भरपूर इस्तेमाल के बावजूद वे अंधेरे में हैं। इसलिए कि जिस उफ़ान ने उन्हें दिल्ली की राजगद्दी तोहफ़े में दी है, उसने ही उनकी आंखों को वह पर्दा भी सौंपा है, जो ज़मीनी सच्चाई की भ्रूण-हत्या की प्रतिज्ञा से बंधा है। आज की असलियत यह है कि आम-चुनाव इस मई में हों, नवंबर में हों या अगले बरस मई में--अपने को राजनीतिक सृष्टि का रचयिता मानने वाला कोई भी ब्रह्मा भाजपा की झोली में जाने वाली सीटों के आंकड़े को, दो सौ पार नहीं करा सकता।
छोटे पर्दें के प्रायोजित चुनाव-विश्लेषकों के इस दौर में मेरा भी एक आकलन कहीं लिख कर रख लीजिए। आम-चुनाव अगर इसी मई में हो गए तो हर तरह से तैयारी-विहीन विपक्ष का लाभ भी भाजपा को दो सौ सीटों के आसपास ही थाम देगा। चुनाव अगर नवंबर-दिसंबर में हुए तो भाजपा दो सौ सीटें कतई पार नहीं कर पाएगी। और, चुनाव अगर अपने तय वक़्त पर ही हुए तो भाजपा को आज की तुलना में लोकसभा की अपनी कम-से-कम सौ सीटें भारी मन से विदा करनी पड़ेंगी और मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ की विधानसभाएं भी भाजपा को सायोनारा कह चुकी होंगी। 
गठबंधन की राजनीति का अनुभव बताता है कि भाजपा खुद 240 सीटें पाए बिना मिली-जुली सरकार बनाने की स्थिति में नहीं आ सकती, जबकि कांग्रेस अगर खुद की 140 सीटें भी ले आएगी तो उसकी चैपाल पर सहयोगी हुक्का गुड़गुड़ाने में परहेज़ नहीं करेंगे। इसलिए नरेंद्र भाई की आंखों में बसा कांग्रेस-मुक्त भारत का ख़्वाब उनके जिस जनम में पूरा होगा, होगा; अगली पारी तो अब देश में भाजपा-मुक्त सरकार की है। यह भाजपा से ज़्यादा नरेंद्र भाई की जुमलेबाज़ी और उससे भी ज़्यादा अमित भाई की घूंसेबाज़ी की हार होगी। 

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