ठीक है कि डावोस का विश्व आर्थिक मंच संसार भर के अंतरराष्ट्रीय कारोबारियों को एक चबूतरे पर इकट्ठा करने का करतब दिखा कर नीति-निर्धारक राजनीतिकों को झक्कू देने का काम 47 साल से कर रहा है, लेकिन हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी को इस फोरम पर 2018 का बिस्मिल्लाही भाषण दे कर फूला समाने की कोई ज़रूरत नहीं है। इसलिए कि स्विट्जरलैंड के एक मुहल्ले में तेजाजी महाराज की कथा की तरह शुरू हुआ वर्ल्ड इकानॉमिक फोरम अन्यान्य कारणों से दुनिया के चुनींदा कुलीन कारोबारियों का क्लब ज़रूर बन गया है, मगर विश्व-कल्याण से उसका कोई लेना-देना नहीं है। परदे के पीछे से उसकी तमाम अंगुलियां उन डोरियों का संचालन करती हैं, जिन पर रेंग कर संसार की सारी दौलत तेजी से चंद मुट्ठियों में बंद हो रही है।
यही वह डोर है, जिसने भारत की 73 फ़ीसदी दौलत एक प्रतिशत लोगों के हवाले कर दी है। यह बेवजह नहीं है कि डावोस में क्लॉज श्वाब के इस अकादमिक-डिस्को में थिरकने, पूरे 11 महीने भी प्रधानमंत्री नहीं रहे हरदनहल्ली डोड्डेगौड़ा देवेगौड़ा को छोड़ कर, 44 साल में अब तक भारत का कोई दूसरा प्रधानमंत्री खुद नहीं गया था। 1971 में यूरोपीय देशों को मद्देनज़र रख कर शुरू किए गए अपने सालाना जलसे में राजनीतिकों को घेर कर लाने का काम श्वाब ने 1974 में शुरू किया था। देवेगौड़ा अंतरराष्ट्रीय तो दूर, राष्ट्रीय राजनीति के अक्षरज्ञान से भी अपरिचत थे। देसी-अर्थशास्त्र की गलियां ही वे ज़्यादा नहीं समझते थे तो वैश्विक अर्थशास्त्र के राजपथ तो उनके लिए अजूबा ही थे। ऐसे में वे मुंबई-दिल्ली के बीच उड़ रहे उन कारोबारी-राजनीतिकों की चकाचौंध से घिर गए, जिन्हें स्विस-बैंकों के बहीखातों की अच्छी समझ हो चुकी थी। सो, देवेगौड़ा को तो समझ ही नहीं आया होगा कि वे कब, कैसे और क्यों डावोस घूम आए।
मगर इसके दो दशक बाद नरेंद्र भाई ने अब अस्सी के हो गए श्वाब की बगल में बैठ कर पता नहीं किसे कृतार्थ किया है? अगर खुद को किया है तो मुझे उन पर दया आ रही है। अगर दुनिया भर के मुख्य-कार्यकारियों को किया है तो भी मुझे उन्हीं पर दया आ रही है। इसलिए कि अगर नरेंद्र भाई को यह लग रहा है कि 52 मिनट तक उनके मन की बात सुनने के बाद अब दुनिया भर के काइयां-कारोबारी अपने संसाधन दोनों हाथों से भारत की तरफ़ उलीचने लगेंगे तो इस भूलभुलैया से निकलने का दरवाज़ा हमारे प्रधानमंत्री जितनी जल्दी खोज लें, बेहतर होगा। भारतीय प्रधानमंत्री के भाषण के बाद कतार में खड़े हो कर वे सब इसलिए तालियां नहीं बजा रहे थे कि उन्होंने पहली बार कुछ ऐसा सुना, जो भूतो-न-भविष्यति था। डावोस में दो दशक बाद पड़ी इतनी बर्फ़ के बीच वे इसलिए अपनी हथेलियां गर्म कर रहे थे कि भारतीय अर्थव्यवस्था की ताज़ा स्थिति को ले कर उनके अंतःचक्षु पिछले एक साल में पूरी तरह खुल गए हैं।
1987
में अपने यूरोपीय प्रबंधन मंच को विश्व आर्थिक मंच का जामा पहनाने के बाद से क्लॉज श्वाब का जालबट्टा लगातार इतना लुभावना होता गया कि ज़्यादातर देश अपने वित्त या वाणिज्य मंत्रियों को डावोस जलसे में शिरकत के लिए भेजना शान समझने लगे। इससे श्वाब की मुनाफ़ा-विहीन संस्था की शान भी बढ़ती गई। उनके मुनाफ़े का ऊपरी अंकगणित तकनीकी तौर पर सपाट रहा, मगर भीतरी बीजगणित ने स्विस-बैकों के तहखानों की दीवारें गुलाबी कर दीं। दुनिया भर की एक हज़ार बड़ी कंपनियों के कर्ताधर्ता हर साल डावोस की नृत्यशाला में अपनी कारोबारी-कमर मटकाने यूं ही नहीं आते रहे। संसार भर के सियासी-कर्ताधर्ताओं की कमर में हाथ डालने का ऐसा मौक़ा वे क्यों हाथ से जाने देते? सियासतदां भी ऐसे में कब तक विश्वामित्र बने रह सकते थे, सो, आख़िरकार वे भी विश्वामित्र की गति को प्राप्त हो गए।
श्वाब
के क्लब को खुद की मौजूदगी से नवाजने की ललक पर काबू नहीं रख पाने से नरेंद्र भाई का पुण्य स्खलित हुआ है। प्रधानमंत्री के नाते इंदिरा गांधी नौ बार डावोस जा सकती थीं। वे खुद क्यों नहीं गईं? मोरारजी देसाई दो बार जा सकते थे। वे तक नहीं गए। चौधरी चरणसिंह भी एक बार जा सकते थे, लेकिन नहीं गए। राजीव गांधी के ज़माने में तो भारत ने आर्थिक उदारीकरण की तरफ़ अपने क़दम बढ़ा दिए थे और उन्हें पांच बार श्वाब ने अपने अंतःपुर में आमंत्रित किया, लेकिन एक बार भी वे खुद नहीं गए। विश्वनाथ प्रताप सिंह और चंद्रशेखर भी चाहते तो एक-एक बार श्वाब के (कारो)बार-काउंटर पर गिलास टकरा आते, मगर उन्होंने लार नहीं टपकाई। पामुलपर्ति वेंकट नरसिंहराव पांच बार डावोस में अपना प्रवचन दे सकते थे, मगर वे दूसरों को भेजते रहे। इंद्रकुमार गुजराल एक बार चले जाते तो कौन-सा ग़जब हो जाता, मगर वे भी नहीं डिगे। नरेंद्र भाई को राजधर्म की याद दिलाने वाले अटल बिहारी वाजपेयी ने डावोस खुद न जाने का धर्म छह बार निभाया। वैश्विक अर्थशास्त्र के सबसे बड़े मर्मज्ञ मनमोहन सिंह ने भी प्रधानमंत्री रहते दस मौक़ों पर दूसरों को ही देश की नुमाइंदगी करने भेजा।
जो यह सोच रहे हैं कि संसार भर की तिकड़मी खोपड़ियों को नरेंद्र भाई के बताने पर ही यह मालूम हुआ कि दुनिया के सामने सबसे बड़े तीन खतरे कौन-से हैं, मैं उनके भक्ति-भाव से छेड़खानी नहीं करना चाहता। जलवायु परिवर्तन और आतंकवाद को लेकर अपनी गंभीरतम चिंताएं भारत ने कोई पहली बार विश्व-समुदाय के सामने ज़ाहिर नहीं की हैं। एकतरफ़ा वैश्वीकरण को लेकर अपना एतराज़ हम पहले भी दर्ज़ कराते रहे हैं। दरारों से दरकती दुनिया में साझे भविष्य की रचना करने के हम सिर्फ़ गीत नहीं गाते हैं, हमेशा से इस काम में अपने हाड़ गलाते रहे हैं। गए ही थे तो थोथे आशावाद के इस सबसे बड़े मंच पर अगर नरेंद्र भाई ढोल की पोल खोलते तो कोई बात होती। तब मैं भी खड़े हो कर उनके लिए तालियां बजाता। मगर वे तो बुनियादी सवाल उठाने ही भूल गए।
बुनियादी
सवाल यह है कि श्वाब-क्लब के वे कौन-से सदस्य हैं, जिन्होंने भारत को सेवा-क्षेत्र पर ज़ोर देने के लिए फंसाया? वे कौन हैं, जो हमें निर्माण और उत्पादन-उद्योग से विमुख कर सेवा-उद्योग के छींके में अपना सारा घी रख देने को प्रेरित कर रहे हैं? अमीर मुल्क़ लाख विश्व-ग्राम के सपने दिखाएं, असलियत तो यही है कि एक दिन अ-वैश्वीकरण की प्रक्रिया शुरू होनी है। असली मुद्दा यह है कि यह उलटी गिनती जब आरंभ होगी, तब क्या होगा? डावोस जैसी धांधलियों ने असमानता को संस्थागत शक़्ल देने का काम किया है। एक हज़ार किलो मसालों से पांच-सितारा खानसामे डावोस-क्लब की ज़ुबानों पर तो चटखारे ला सकते हैं, लेकिन दक्षिण-पूर्व एशिया से ले कर अफ्रीका तक पसरी भूख मिटाने को रसोइए हम कहां से लाएंगे? कैसे भूलें कि विश्व-भुखमरी सूचकांक में भारत पिछले तीन साल में 55वें से गिर कर 100वें क्रम पर आ गया है? शब्दों के सालाना उत्सव मनाने से अगर विकासशील देशों की दिक़्कतें दूर हो रही होतीं तो श्वाब के आश्रम की स्थापना के 47 साल बाद मानवता के नक्शे पर पिचके गालों की ऐसी भरमार नहीं होती। गुलाबी गालों पर रीझते वक़्त एक नज़र इधर भी, नरेंद्र भाई!
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