Saturday, April 4, 2020

रचनांतर के शिल्पी का अभिनंदन


अगर नरेंद्र भाई मोदी और अमित भाई शाह के सियासी गाल इतने बट्ठर हो गए हैं कि महाराष्ट्र के थप्पड़ से भी सूजने को तैयार नहीं हैं तो इसका मतलब है कि भारतीय जनता पार्टी के दिन लदने अब शुरू हो गए हैं। ग्यारह महीने पहले तक देश की तीन चौथाई आबादी वाले इलाक़ों में हुकूमत कर रही भाजपा-सरकारों का दायरा सिमट कर आज एक तिहाई से थोड़ी ज़्यादा आबादी तक ही रह गया है। अगले बरस का अंत आते-आते राज्य विधानसभाओं के आगामी चुनाव नतीजे भाजपा के प्रभाव-क्षेत्र को एक तिहाई आबादी से भी नीचे ढकेल चुके होंगे। बावजूद इसके अगर दो दीवाने इस शहर में अर्रा कर घूमना नहीं छोड़ रहे हैं तो यह इसलिए अच्छा है कि जितना ज़्यादा वे ऐंठे रहेंगे, उतनी जल्दी मतदाताओं के मन से विदा लेंगे।
अमित भाई और लोकतंत्र के विलोम पर तो मुझे कभी कोई संदेह था ही नहीं, मगर पता नहीं क्यों, मुझे भीतर यह आस जगने लगी थी कि इस बार के आम-चुनाव की लूट के बाद नरेंद्र भाई अपने वाल्मीकि-जीवन का दूसरा अध्याय शुरू करेंगे। उन्हें भी लगेगा कि जिन्हें पालने-पोसने के लिए वे हर तरह के कर्म कर रहे हैं, उनमें से कोई भी उनके पाप का भागी बनने को तैयार नहीं है और सारा-कुछ सिर्फ़ उन्हीं के बहीखाते में दर्ज़ हो रहा है। सो, वे अपने को बदलेंगे। अगर सचमुच नहीं, तो भी ज़माने की निग़ाह में, ख़ुद को बेहतर बताने के लिए मौक़ा मिलते ही अपने को दूध से धोते रहेंगे।
मगर महाराष्ट्र-प्रसंग में नरेंद्र भाई के किए-धरे ने मुझे इस अंतिम-निष्कर्ष पर पहुंचा दिया है कि मनुष्य जिस ’डी ऑक्सी राइबो न्यूक्लिक एसिड’ के साथ जन्म लेता है, उसके जाल-बट्टे से एक ही जीवन-काल में बाहर आना बिरलों के लिए ही मुमक़िन हो पाता है। वाल्मीकि बिरले थे। नरेंद्र भाई चमत्कारी भले हों, बिरले नहीं हैं। लेकिन इस बार उनके चमत्कारी तंत्र-मंत्र भी उन्हीं पर उलटे पड़ गए। वरना कौन जानबूझ कर अपनी ऐसी फ़जीहत कराता है?
केंद्र सरकार के कार्य-संचालन के नियम-12 का इस्तेमाल कर, बिना मंत्रिमंडल की बैठक बुलाए, सूरज उगने के पहले महाराष्ट्र से राष्ट्रपति शासन हटाने का पराक्रम दिखा कर नरेंद्र भाई ने मेरे, आपके और मुल्क़ के चेहरे पर जो कालिख पोती है, वह तो हम आगे-पीछे मतदान के गंगाजल से धो लेंगे; मगर इस चक्कर में हमारे प्रधानमंत्री के माथे पर जो कलंक लग गया है, उसे वे कैसे खुरचेंगे? इस डर से कि सुबह नौ बजे उद्धव ठाकरे सरकार बनाने का दावा पेश करने राजभवन पहुंच जाएंगे, ताबड़तोड़ 5.47 पर राष्ट्रपति शासन हटाने की राजपत्र-घोषणा कर देने और 8.50 पर देवेंद्र फड़नवीस को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला देने की नंगई करने वाले, मेरे हिसाब से तो, अब ‘भारत माता की जय’ बोलने के अधिकारी रहे नहीं। उनका यह उद्घोष पहले भी खोखला था या नहीं, मालूम नहीं, मगर अब तो सारी पोल-पट्टी खुल ही गई है।
लोकतंत्र के आंगन में दंड पेलना तो बहुत आसान है, उसमें फूल उगाना सब के वश का नहीं है। गांधी को गाली दे कर गोडसे को देवता बताने वाले जनतंत्र का मर्म कैसे समझेंगे? नेहरू को नीचा दिखा कर अपने को ऊंचा बताने वाले प्रजातंत्र का धर्म कैसे समझेंगे? हुकूमत को हुड़दंग में तब्दील करने की हवस से भरे लोगों के मन में महाराष्ट्र-प्रसंग से शर्मिंदगी कहां से उपजेगी? लेकिन एक बात सभी को अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि राज-सभा में भले ही दुर्योधनी अट्टहास गूंज रहा हो, जन-सभा में वे सब अपनी आंखें शर्म से नीची किए बैठे हैं, जिन्हें जनतंत्र से ज़रा भी लेना-देना है। और, ये सब हमेशा बैठे ही नहीं रहेंगे।
शिवसेना की अगुआई में, राष्ट्रवादी कांग्रेस और कांग्रेस के समर्थन से बनी महाराष्ट्र-सरकार ने सियासी-संसार में हो रहे ‘मोशा-तांडव’ का वह विकल्प पेश किया है, जो आने वाले दिनों में भारतीय लोकतंत्र की नई दिशा तय करेगा। अपने पुराने सामाजिक और क्षेत्रीय दुराग्रहों को छोड़ कर शिवसेना का राजनीति की मुख्य-धारा में आना कोई मामूली घटना नहीं है। एक ज़माना शिवाजी महाराज का था। एक ज़माना बालासाहब ठाकरे का भी था। हर ज़माने की अपनी-अपनी परिस्थितियां होती हैं। हर ज़माने की अपनी-अपनी सामाजिक-राजनीतिक ज़रूरतें होती हैं। अब ज़माना उद्धव ठाकरे का है। उद्धव को नए ज़माने की शिवसेना बनानी है। वे जानते हैं कि उन्हें शिवसेना के मूलाधार को क़ायम रखते हुए उसे आदित्य ठाकरे के लिए ढालना है। यह काम विचारों के पाषाण-युग में रह कर नहीं हो सकता। यह काम महाराष्ट्रीय से राष्ट्रीय हो कर ही हो सकता है।
इसलिए शिवसेना में आ रहे बदलाव का स्वागत होना चाहिए। उसकी ग्रंथियों को शिथिल बनाने की प्रक्रिया में शरद पवार और सोनिया गांधी के सहयोग के लिए शहनाई क्यों नहीं बजनी चाहिए? कट्टरता की बेड़ियां तोड़ कर बाहर आने की शिवसेना की ललक का अगर हम-आप अभिनंदन नहीं करेगे तो क्या प्रज्ञा ठाकुर करेंगी? शिव-‘सैनिकों’ के शिव-‘साधक’ में परिवर्तित होने के हवन में अगर हम-आप आहुति अर्पित नहीं करेंगे तो क्या गिरिराज सिंह करेंगे? मैं तो शिवसेना के इस रचनातंर का शिल्पी बनने की हिम्मत जुटाने के लिए उद्धव की बलैयां लेता हूं।
नरेंद्र भाई की तरह उद्धव का शारीरिक सीना भले ही छप्पन इंच का न हो, लेकिन भाजपा की सियासी-दादागीरी के ख़िलाफ़ सीना ठोक कर खड़े हो जाने ने उनके छरहरेपन को भी महाकाय बना दिया है। सीना तो नरेंद्र भाई का भी 41 इंच का ही है, मगर जब वे सार्वजनिक मंचों पर उसे ठोकते हैं तो उसमें 15 इंच जोड़ लेते हैं। अच्छा है कि उद्धव को इसकी आदत नहीं है। इसीलिए उन्होंने अपने से दस साल बड़े नरेंद्र भाई और पांच साल छोटे अमित भाई को एक ही धोबीपछाड़ में चित कर दिया। दोनों भाइयों को ऐसी पटखनी खाते आपने पहले कभी देखा था?
आज महाराष्ट्र की भावी राजनीति के त्रि-आयामी भवन की दहलीज़ के ऊपर नींबू और सात मिर्ची लटकाना मैं इसलिए ज़रूरी मानता हूं कि ऐसा करने से भारत का लोकतंत्र पटरी पर बना रहेगा। ऐसा करने से हमारा जनतंत्र 2024 आते-आते फिर ख़ुद को संभालने लायक़ हो जाएगा। ऐसा करने से आज की धूप में हम नंगे पांव भी अपनी मंज़िल तक पहुंचने का हौसला बनाए रख पाएंगे। महाराष्ट्र हमारी राष्ट्रीय राजनीति का ताज़ा सूचकांक है। उस पर पैनी निग़ाह रखना हमारी समूची राजनीति के स्वास्थ्य के लिए ज़रूरी है।
लोकतंत्र की भैंस को लट्ठमारों के हाथ जाने से बचाने के लिए अब भी जो अपने दिन-रात एक नहीं करेंगे, समय-पुस्तिका में उन सभी का अपराध दर्ज़ होगा। सो, यह किनारे बैठ कर अपने दीये सिराने का नहीं, नदी में कूद कर लोकतंत्र की नैया किनारे लगाने का वक़्त है। यह सियासत के नए आयाम सृजित करने का समय है। यह, सब-कुछ भूल कर, नए सिरे से वैकल्पिक राजनीति का ध्वजारोहण करने का वक़्त है। ऐसा वक़्त बार-बार नहीं आता है। जब आता है तो अपने परावर्ती प्रभावों से अहंकारी अट्टालिकाओं को मटियामेट करने के लिए आता है। ऐसे में भी अगर हम हाथ बंटाने के लिए अपने घरों से बाहर नहीं निकलेंगे तो कब निकलेंगे? 

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