Saturday, April 4, 2020

सियासी-लुंगाड़ों को ताल-ठोकू जवाब का एक बरस


एक बरस पहले के शुरुआती चंद महीनों में जब भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित भाई शाह का पिद्दे-से-पिद्दा सांभा भी अपनी आंखें तिरछी कर ऐलान करता था कि मध्यप्रदेश और राजस्थान की कांग्रेसी सरकारों को इशारा मिलते ही हम चुटकी बजाते गिरा देंगे तो दोनों राज्यों के पचास-पचास कोस दूर तक के गांवों में कंपकंपी होने लगती थी। मगर सियासी भव-बाधाएं रचने में माहिर मोशा-चौकड़ी की तमाम कोशिशों के बावजूद कमलनाथ और अशोक गहलोत का पहला साल कोई गच्चा खाए बिना पूरा हो गया।
सत्ता के बहुमत की चदरिया जब ज़रूरत से ज़्यादा झीनी हो तो राजनीति के मनचले अपने दीदे क्यों नहीं सेकेंगे? छत्तीसगढ़ के भूपेश बघेल की सत्ता को तो मतदाताओं ने ख़ासे मोटे कंबल से लपेट दिया था, मगर कमलनाथ और गहलोत की सत्ता के दुपट्टों में सूराख़ थे। इसलिए रफ़ूगीरी की अपनी कारीगरी से दोनों अपना दामन सियासी-लुंगाड़ों से बचा ले गए तो इसके लिए मैं तो उन्हें दाद दिए बिना नहीं रह सकता। अब भाजपा अपनी कलाई में कितने ही गजरे बांध कर घूमे, अगले चार साल मध्यप्रदेश और राजस्थान का चीर-हरण करने लायक वह रह ही नहीं गई है।
कमलनाथ और अशोक गहलोत को मैं तक़रीबन साढ़े तीन दशक से जानता हूं। बतौर पत्रकार भी मैं ने उनका अध्ययन किया है और कांग्रेसी-समंदर के किनारे हलके से अपने पैर उसके खारे पानी में डुबोए बैठ कर भी। इसलिए पिछले साल मध्यप्रदेश और राजस्थान के चुनाव नतीजे आने के बाद जब युवा दिलों में तरह-तरह की उमंगें उठ रही थीं, मेरा मानना था कि दोनों रियासतों की सत्ता-सुदरियों को अपनी वरमालाएं कमलनाथ और गहलोत के बूढ़े गलों में डाल देनी चाहिए। सियासत करने का दोनों का मिजाज़ है भले ही अलग-अलग, मगर हुकूमत की रस्सी पर संतुलन का बांस पकड कर एक छोर से दूसरे छोर तक जाने का करतब जैसा वे दिखा सकते हैं, ऊर्जा से लबरेज़ भुजाएं शायद न भी दिखा पाएं।
इसलिए यह ठीक ही हुआ कि कांग्रेस के शिखर-नेतृत्व ने मध्यप्रदेश अंततः कमलनाथ और राजस्थान गहलोत के हवाले किया। अगर ऐसा न हुआ होता तो दोनों राज्यों में कांग्रेसी सरकारों का एक साल इतने कम हिचकोलों के साथ पूरा न होता। गहलोत साल भर अपनी सरकार चला ले गए और कमलनाथ पूरे साल अपनी सरकार बचा ले गए। सरकार की पहली वर्षगांठ पर अब दोनों की शैयाएं अगर गुलाब की पंखुड़ियों से ढंकी हुई नहीं हैं तो उन पर कांटे भी नहीं बिछे हुए हैं। राजस्थान में गहलोत ने यह उपलब्धि सलज्ज-भाव से हासिल की है और मध्यप्रदेश में कमलनाथ ने अपने ताल-ठोकू अंदाज़ में।
कमलनाथ ने भाजपा को अपने पांव पालने में ही दिखा दिए थे। पंद्रह साल बाद मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनी तो विधानसभा के पहले सत्र की कार्यवाही देखने मैं भी भोपाल गया। आम परंपरा यह है कि विधानसभा के अध्यक्ष का पद सत्तारूढ़ दल को मिलता है और उपाध्यक्ष का प्रतिपक्ष को। दोनों निर्विरोध चुन लिए जाते हैं। लेकिन भाजपा ने ऐलान कर दिया था कि वह विधानसभा अध्यक्ष पद के लिए अपना उम्मीदवार उतारेगी। इसके बाद से भोपाल के ताल की लहरों पर एक ही सवाल तैर रहा था कि इस चुनाव में कमलनाथ अपना उम्मीदवार जिता पाएंगे या नहीं? मूंड मुंडाते ही ओले पड़ने के अंदेशे से कांग्रेसी दुबले हो रहे थे। वे कमलनाथ की आत्म-विश्वास भरी देह-भाषा को दिखावा मान रहे थे। सरकारी की उलटी गिनती गिनने वालों में पंद्रह साल से कंबल ओढ़ कर खीर खा रहे अफ़सरशाहों की सबसे लंबी कतार थी।
कमलनाथ विधानसभा में अपना अध्यक्ष जिता लाए। चिरौरी कर के नहीं, अपना मार्शल-आर्ट दिखा कर। उनका सियासी कुंग-फू देख कर भाजपा हकबका गई। ऐन वक़्त पर उसने कहा कि हमने उम्मीदवार ज़रूर खड़ा किया है, लेकिन अब हम सदन में इस पर मतदान नहीं चाहते। भाजपा ने मत-विभाजन की मांग करने से इनकार कर दिया। लेकिन कमलनाथ चाहते थे कि मतदान हो और इसके ज़रिए उनकी सरकार का बहुमत खुल कर साबित हो जाए। ऐसे में बहुजन समाज पार्टी के एक विधायक ने मत-विभाजन की मांग की और मतदान हुआ। भाजपा खींसे निपोरती बैठी रही। इसके बाद भाजपा को विधानसभा के उपाध्यक्ष पद से भी हाथ धोना पड़ गया। कमलनाथ ने उपाध्यक्ष पद के लिए भी कांग्रेस का उम्मीदवार खड़ा करने का धोबिया-पछाड़ लगा दिया। संसदीय राजनीति की गली-गली भटक कर अड़तीस साल बाद भोपाल पहुंचने के तज़ुर्बे और जुम्मा-जुम्मा हुए घुड़सवारी सीखे लोगों की शैली का फ़र्क़ मध्यप्रदेश से समझिए।
जब दिन बदल रहे हैं, तब अगर कांग्रेस ने ऊर्जा और अनुभव के तालमेल का बीज-मंत्र विस्मृत नहीं किया तो भाजपा को अगले चार साल में तंबुओं में वापस भेजने का माद्दा वह अब भी रखती है। मतदाताओं ने तो नरेंद्र भाई का विदा-गान आरंभ कर दिया है। बस, कांग्रेस अपने को ज़रूरत से ज़्यादा प्रयोगधर्मी होने से बचाए रखे। उसे यथास्थिति से उबरना है। मगर इस प्रक्रिया में उसे फूं-फां करते आसपास विचर रहे उत्साहीलालों से अपने दालान की हिफ़ाज़त भी करनी है। आज का सच यह है कि हरियाणा में भले ही भाजपा की सरकार बन गई हो, मगर वह ख़ुद भी जानती है कि घग्गर नदी में उसका पानी उतर चुका है। महाराष्ट्र में तो उसने अपनी जैसी फ़जीहत कराई, उसके बाद, अगर आंखों में ज़रा भी पानी होता तो, वह डूब मरती। लेकिन राजनीतिक ढीठपन के कीर्तिमान स्थापित करने का संकल्प ले कर घर से निकले महामनाओं से कोई क्या कहे! जिन्होंने राजनीति के बुनियादी संस्कारों की चूलें हिलाने का परपीड़क आनंद लेने की ही ठान रखी हो, उनसे कोई क्या कहे!
जो हो रहा है, अच्छा हो रहा है। पांच-छह साल पहले अपने को नरेंद्र भाई मोदी के क़दमों में बिछा रहे लोगों की ज़मात तेज़ी से ग़ायब होती जा रही है। अगर कहीं नरेंद्र भाई ने अपना वाजपेयीकरण कर लिया होता तो वे सचमुच किस्मत की ऐसी बही ले कर आए थे कि आजीवन राज करते। भला हुआ कि अपने हंटर-युग की सारी झलकियां उन्होंने अपनी महाभारत के आदि-पर्व में ही दिखा डालीं और पूरा मुल्क़ पहले पांच साल में ही सिहर उठा। रही-सही कसर झरोखे से झांकते अमित भाई की शक़्ल ने पूरी कर दी। सो, हमारे जनतंत्र की अब जान-में-जान आने लगी है। इसमें आगे की जान फूंकना कांग्रेस और बाकी विपक्ष के ज़िम्मे है।
भारतीय जनतंत्र का महाभारत 2023 की सर्दियों में अपने शल्य-पर्व में प्रवेश करेगा और 2024 की गर्मियां आते-आते उसका पटाक्षेप होगा। अगले चार साल मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ की सरकारें अपनी ठुमक के साथ चलती रहेंगी। बीच राह उनके अपहरण की कोई आशंका नहीं है। लेकिन गहन चिकित्सा कक्ष में पड़े हमारे लोकतंत्र का भविष्य इससे तय होगा कि चार साल बाद होने वाले आम चुनाव की पूर्व-संध्या पर मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ की कांग्रेसी सरकारें कितनी मजबूती से लौटती हैं। इसलिए कमलनाथ, अशोक गहलोत और भूपेश बघेल के लिए आने वाले दिन जमीनी इम्तहान के हैं। सदन में सुरक्षित सरकारें मैदान में तभी सुरक्षित रहती हैं, जब उनके मुखिया अपने आंख-कान पूरी तरह खुले रखते हैं। वरना, सावधानी हटी और दुर्घटना घटी। सो, आइए, प्रार्थना करें कि परिपक्वता और अनुभव की हवन सामग्री से उठने वाले मेघ मीठी बारिश ले कर आएं! -

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