मध्यप्रदेश-प्रसंग ने भाजपा की जिस नंगई को खुलेआम उज़ागर किया है, उसे अब किसी भी हथेली से ढंकना मुमक़िन नहीं होगा। कमलनाथ की सियासी-कुंडली के अष्टम भाव में बैठे ज्योतिरादित्य सिंधिया की वज़ह से अगर आगे-पीछे यही उनके प्रारब्ध में था तो मुझे तो लगता है कि जो हुआ, अच्छा हुआ। कमलनाथ की इससे ज़्यादा गरिमामयी विदाई और क्या होती?कमलनाथ, सिंधिया की तरह रूमाल से अपना चेहरा ढंक कर तो नहीं गए। उन्होंने सिंधिया की तरह किसी चोर-दरवाज़े का इस्तेमाल तो नहीं किया। वे सिंधिया की तरह सिंर झुका कर नहीं, सिर तान कर निकले और राजभवन जा कर इस्तीफ़ा दे दिया। सिंधिया की तरह कमलनाथ किसी अपराध-बोध के अहसास से दबे हुए नहीं थे। उन्होंने अपने सवा साल में बघनखा पहन कर गले मिलने का काम नहीं किया। वे आख़ीर तक डटे रहे और सिंधिया के गच्चे के बावजूद कांग्रेस का मनोबल गिरने नहीं दिया।
कांग्रेस के भीतर कइयों का मानना है कि आपसी-ऐंठ के चलते मध्यप्रदेश की सरकार गंवा कर कांग्रेस ने बेवकूफ़ी की है; कि सिंधिया को मनाने के लिए कांग्रेस को कोई कसर बाक़ी नहीं रखनी चाहिए थी; कि कमलनाथ अगर छुटभैयों के ज़रिए सरकार न चला रहे होते तो मध्यप्रदेश की राज-चरित मानस में सिंधिया-कांड नहीं लिखा जाता; कि पंद्रह साल बाद तो प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनी थी और अब अगले पंद्रह साल कांग्रेस को फिर वनवास भोगना पड़ेगा।
लेकिन मैं मानता हूं कि सियासत के मध्यप्रदेश-अध्याय ने कांग्रेस का भला किया है। कमलनाथ की सरकार गई है, लेकिन कमलनाथ और मज़बूत हो कर उभरे हैं। इस पूरे प्रसंग में भारतीय जनता पार्टी की थू-थू हुई है। भाजपा से भी ज़्यादा सिंधिया की थू-थू हुई है। सिंधिया के प्रति लोगों का निजी आदर-भाव ओंधे मुह गिर पड़ा है। कमलनाथ के प्रति निजी आदर-भाव के सूचकांक में जबरदस्त उछाल आ गया है। सो, सरकार जाने के बाद भी कांग्रेस के चेहरे पर चमक है और सरकार बनाने की तरफ़ बढ़ रही भाजपा के चेहरे पर तनाव की लकीरें हैं।
मेरी एक बात आप आज ही गांठ बांध लीजिए। जिन ‘सिंधिया-महाराज’ के राज-हठ ने कांग्रेस की सरकार को मध्यप्रदेश में अपना कार्यकाल पूरा नहीं करने दिया, उन्हीं का बाल-हठ भाजपा की सरकार को भी उसका कार्यकाल पूरा नहीं करने देगा। भाजपा की यह सरकार अगर सिंधिया की वज़ह से नहीं बन रही होती तो शायद आने वाले दिनों में उसके विरोध की त्वरा उतनी नहीं होती। मगर अब भाजपा सिंधिया से बिफरे हुए कांग्रेसजन और राजसी-दग़ाबाज़ी के खि़लाफ़ गुस्से से भरे मतदाताओं के जिस अग्निकुंड में कूद रही है, उसकी लपटों का अभी उसे अंदाज़ ही नहीं है।
कांग्रेसी गुटबाज़ी के उत्तरकांड आगाज़ भी ताज़ा प्रसंग से शुरू हो गया है। आप देखेंगे कि मध्यप्रदेश में कांग्रेस पहले कभी इतनी एकजुट नहीं थी। पार्टी के भीतर गुटीय धु्रवीकरण को अब कांग्रेस के एक भी कार्यकर्ता का सहारा नहीं मिलेगा। इससे होने वाले नुक़्सान का चरम सब ने देख लिया है। इसलिए अब कमलनाथ मध्यप्रदेश में कांग्रेस के निर्विवाद नेता बन गए हैं। दूसरी तरफ़ भाजपा के भीतर गुटीय संघर्ष अब दिनों-दिन तेज़ होगा। शिवराज सिंह चौहान, नरेंद्र सिंह तोमर, कैलाश विजयवर्गीय और नरोत्तम मिश्रा के बीच शीत-युद्ध कब नहीं था? अब राम-राज्य की स्थापना के लिए सिंधिया भी अपने कैरोसिन के कनस्तर ले कर वहां पहुंच गए हैं। वे राजनीतिक-वैधव्य के अपने दिन संघी-वृंदावन में चुपचाप काटना भी चाहें तो उनके इर्दगिर्द लटक रहे बाईस प्रमुख ततैये क्या उन्हें अकेले सत्ता की लेडी गागा के साथ नाच लेने देंगे?
सिंधिया पर अभी से दबाव है कि वे अपने कम-से-कम उन छह समर्थकों को तो पहले ही चरण में भाजपा-सरकार में मंत्री बनवाएं, जो कमलनाथ की सरकार को भी सुशोभित कर रहे थे। क्या नरेंद्र भाई मोदी और अमित भाई शाह यह पराक्रम दिखा पाएंगे कि आधा दर्जन गै़र-विधायकों को मध्यप्रदेश के मंत्रिमंडल में शपथ दिलवा दें? बंगलूर-गाथा का हिस्सा रहे सोलह बाक़ी लोग भी अपने ‘महाराज’ से मंत्री-दर्ज़े वाले खिताबों का इनाम पाने की आस लगाए बैठे हैं। भाजपा अपने गले से उतार-उतार कर मोतियों के कितने हार इस नर्तक-दल पर उछालेगी? उसे बहुजन समाज पार्टी के दो और चार निर्दलीय विधायकों को भी साध कर रखना है। सो, देर-सबेर भाजपा को सिंधिया-मंडली की हाथापाई से जूझना ही होगा।
कमलनाथ ने कांग्रेस के नए-नकोर विधायकों को भी एक ही झटके में अपनी सरकार में कैबिनेट मंत्री बना डाला था। युवा-ऊर्जा में असंदिग्ध विश्वास की ऐसी मिसाल पहले किसी ने कभी नहीं देखी थी। अब जब कांग्रेस को मध्यप्रदेश मे विपक्ष की कारगर भूमिका अदा करनी है, जनता की नज़र ख़ासकर इन चेहरों की ज़मीनी सक्रियता पर रहेगी। अगर नौनिहालों की यह फ़ौज अपने सेनापति की लाज रख पाई तो सियासी-क्षितिज का रंग इस साल का अंत आते-आते भी बदल सकता है। आने वाले दिनों में 24 विधानसभा क्षेत्रों में उप-चुनाव होंगे। इसलिए सत्ता-रेखा छोटी-बड़ी होने का खेल तो अभी शेष है।
सदन के भीतर-बाहर कांग्रेस की व्यूह-रचना प्रबंधन पर अब सारा दारोमदार है। विपक्ष के नेता की ज़िम्मेदारी का सबसे बेहतर निर्वाह कमलनाथ ही कर सकते हैं। उनकी मौजूदगी भर भाजपा का आधा मनोबल हर लेने के लिए काफी होगी। संसदीय कार्यवाही का उनका लंबा अनुभव उन्हें विधानसभा में गुलीवर-दर्ज़ा पहले ही दिन दे देगा। पार्टी के प्रदेश-संगठन के लिए ज़रूर अब एक ऐसे चेहरे की ज़रूरत होगी, जो खेत की मेड़ों और गांवों की पगडंडियों पर अनथक पौने चार साल अनवरत चल सके। तज़ुर्बे से भरपूर चेहरों की भी कांग्रेस में कमी नहीं है और तरुणाई से छलक रहे चेहरों की क़तार भी मौजूद है। देश भर में लिपिक-शैली के हिमायतियों के चंगुल से बाहर आने की हिम्मत नहीं जुटा पाना आज कांग्रेस की सबसे बड़ी मुसीबत है। अगर मध्यप्रदेश में ये बेड़ियां उसने अपने पैरों में ख़ुद-ब-ख़ुद नहीं बांधी तो भोपाल के ताल की लहरों पर फिर उसका राज होने में समय नहीं लगेगा।
शुक्रवार को भोपाल के वल्लभ भवन से हुई कांग्रेस की विदाई पर उसे श्रद्धांजलि देने वालों की अक़्ल पर मुझे तरस आ रहा है। इस विदाई को अलविदाई समझने वाले नन्हे-मुन्नों का राजनीतिक अध्ययन अधकचरा है। उन्हें राजनीति का समाजशास्त्र समझने में अभी उम्र लगेगी। सियासत चिकनेपन को निखारने का नहीं, खुरदुरेपन को संवारने का विज्ञान है। सामंती-वृत्ति और जनतंत्र एक-दूसरे के विलोम-स्वर हैं। भारत रथ-यात्रियों का नहीं, फ़कीरी-डेरों का देश है। यह आधी रोटी खा कर भी अपने आराध्यों को फिर-फिर लौटा लाने वाले आराधकों का मुल्क़ है।
इसलिए भारत के सामाजिक-राजनीतिक प्रवाह में पूर्ण-विराम कभी नहीं लगा। अल्प-विराम तो किसी भी प्रवाह के सौंदर्य को स्पष्ट बनाते हैं। अर्द्ध-विराम उसे और भी अर्थवान बना देता है। ये विराम आते ही इसलिए हैं कि हम प्रवाह के व्याकरण को लगातार संशोधित करते रहें। ठिठकें और सोचें। ठहरें और नए सिरे से अगले सफ़र की तैयारी करें। जब तक नई तैयारी की हुलक बाक़ी है, तब तक ही खेल में आप बाकी हैं। जिस दिन यह हुलक शांत हो जाएगी, आपका बोरिया-बिस्तर स्वयं बंध जाएगा। सो, कांग्रेस को ऊपर से नीचे तक इसी हुलक को जीवित बनाए रखने की ज़रूरत है। यही कांग्रेस का अंतिम सत्य है। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)