कल, महाशिवरात्रि पर मैं इंदौर में था। शहर के जिस हिस्से में हमारा पारिवारिक बसेरा है, उसके पूरब में मुस्लिम बस्ती है, पश्चिम में चिड़ियाघर है, उत्तर में बड़े सरकारी नौकरशाहों के बंगले हैं और दक्षिण में एक छोटा-सा मंदिर है। इस चोहद्दी के बीच, पता नहीं कितने प्राचीन एक बरगद के बगल में, कोई चार दर्जन आशु-आवासों की हमारी बस्ती अब से साढ़े तीन दशक पहले क़लमकारों के लिए बनी थी, मगर अब हरफ़नमौला भी उसकी गोद में आ कर बस गए हैं।
मैं जब भी इंदौर में होता हूं, और महीने-दो-महीने में एकाध बार होता ही हूं, तो अपने इसी घर के एक कमरे में रहता हूं। जो सुख अपनी कुटिया में मिलता है, मुझे तो कभी किसी हिल्टन और शेरेटॉन में नहीं मिला। बचपन के बाद मैं सूर्यास्त से पहले अब तभी उठता हूं, जब सुबह की कोई उड़ान पकड़ने की मजबूरी हो। मैं कहीं भी एक दिन पहले शाम को पहुंचना पसंद करता हूं। इंदौर के इस घर में मेरी नींद फ़ज़्र की नमाज़ के लिए होने वाली अज़ान से खुल जाती है। पूरब में बनी मस्जिद के लाउडस्पीकर से मुअज्ज़िन की आवाज़ जु़हर, अस्र, मग़रिब और ईशा की अज़ान के वक़्त तो सुनाई नहीं देती, क्योंकि तब तक दुनियादारी का शोर सब के सिर पर तारी हो चुका होता है, मगर सुबह के सुक़ून में इकमाह, तक़बर और शहादा साफ़ सुनाई देते हैं।
मैं आधी रात के बाद ही सो पाता हूं। सो, आमतौर पर सूर्यास्त के पहले उठना मेरे लिए सज़ा है। ऐसा होने पर मेरे भीतर चिढ़ मचती है। लेकिन इंदौर में अज़ान से खुलने वाली मेरी नींद के बाद मैं, पता नहीं क्यों, कभी नहीं चिढ़ा। कल भी ‘अल्लाहु अकबर, अल्लाहु अकबर’ की आवाज़ कान में पड़ने के बाद उठा तो आंखें भारी थीं, मगर मन में इस वज़ह से कोई संताप नहीं था। अज़ान के ‘अश्हदुल्ला इलाह इल्लअल्लाह’ और ‘अश्हदुअन्न मुहम्मदुर्रसूलउल्लाह’ तक आते-आते मैं आंखें मसलता रहा। ‘हय्याअलस्सलात’ और ‘हय्याअलफ़लाह’ सुनते-सुनते मैं ने बदन से चादर हटा दी और ‘अस्सलातु खैरुम्ममिन्नौम’ पर बिस्तर छोड़ दिया। अजन्मे परमेश्वर की उपासना के लिए यह बुलावा मैं बचपन में अपने ननिहाल में बिताए दिनों से सुनता आ रहा हूं। सो, विशुद्ध एकेश्वरवाद में आस्था का यह ऐलान, कइयों की तरह, मेरे लिए अजनबी नहीं है।
अज़ान ख़त्म होते ही दक्षिण स्थित मंदिर से ‘कर्पूरगौरम, करुणावतारम, संसारसारम, भुजगेंद्रहारम’ का संगीत कानों से चल कर मन में घुलने लगा। ‘सर्वमंगल मांगल्यै, शिव सर्वार्थ साधिके, शरण्यै त्र्यम्बके गौरी, नारायण नमोस्तुते’ सुनते-सुनते मैं इसलिए गदगद था कि आजकल भारत के सबसे स्वच्छ शहर का मुकुट घारण किए बैठे हमारे इंदौर के मंदिर ने सामाजिक धु्रवीकरण की मूसलाधार के दिनों में भी फाल्गुन के कृष्णपक्ष की चुतर्दशी पर महाशिवरात्रि के बहाने अज़ान के बीच हस्तक्षेप नहीं किया। सृष्टि के प्रारंभ के दिन अपनी प्रार्थना आरंभ करने के पहले उसने पूरब से हो रहे बुलावे की घोषणा समाप्त होने का इंतजार किया।
महादेव के अनंत स्वरूप अग्निलिंग के उदय से जिस सृष्टि की रचना हुई है, परस्पर सम्मान का यह भाव ही उसका मूलमंत्र है। साल में आने वाली बारह शिवरात्रियों में महाशिवरात्रि का महत्व इसलिए भी तो है कि कहते हैं उस दिन भगवान शिव का विवाह देवी पार्वती से हुआ था। पवित्र मिलन का यह भाव ही हमारी सृष्टि का बीजमंत्र है। यौगिक परंपरा में शिव को आदिगुरु माना गया है। उनसे ही ज्ञान उपजा। उन्हें किसी देवता की तरह नहीं पूजा जाता है। उन्हें तो इसलिए पूजा जाता है कि अनेक सहस्त्राब्दियों तक ध्यान करने के बाद एक दिन वे पूर्णतः स्थिर हो गए। उनके भीतर की सारी हलचलें, सारी गतिविधियां थम गईं, शांत हो गईं। इसीलिए साधकों के लिए महाशिवरात्रि स्थिरता की रात है।
बारह की बारह शिवरात्रियां सबसे अंधकार वाली रातों में पड़ती हैं। महाशिवरात्रि भी अंधकार का उत्सव है। प्रकाश का उत्सव मनाने की स्वाभाविक ललक के बीच अंधेरे का जश्न मनाने की इस फ़ितरत में ही शिव का समूचा अर्थ छिपा है। जो नहीं है, वह शिव है। जो है, वह अस्तित्व और सृजन है। शून्य से ही सारा सृजन हुआ है। शून्य ही अस्तित्व की बुनियादी उपस्थिति है। आकाशगंगा आपको दिखती है। लेकिन उस आकाशगंगा को थामे रखने वाली अनंत शून्यता को हम कहां देख पाते हैं? यह असीम रिक्तता ही शिव है। प्रकाश तो सीमित संभावना है। वह शाश्वत नहीं है। वह तो एक अल्प-घटना है। शाश्वत तो अंधकार है। वह सर्वव्यापी है। सर्वत्र है। इसलिए अंधकार के अनुष्ठान का पर्व महाशिवरात्रि बेमिसाल है।
सृष्टि के आरंभ में ब्रह्मनाद से शिव प्रकट हुए। उनके साथ सत, रज और तम गुण भी जन्मे। यही उनका त्रिशूल हैं। शिव की वज़ह से ही संगीत कण-कण में मौजूद है। शिव के पहले किसी को भी संगीत की जानकारी नहीं थी। वे ही संगीत के जनक हैं। नाद और भगवान शिव का संबंध अटूट है। संगीत के सात स्वर तो आवागमन का ज़रिया हैं। उनका मूल स्वर तो नाद ही है। ‘ऊॅ’ के नाद से शिव का जन्म हुआ है। नाद से घ्वनि और घ्वनि से वाणी का जन्म हुआ। शिव के डमरू को नाद-साधना का प्रतीक है।
व्रत-उपवासों में मेरा यक़ीन नहीं है। लेकिन महाशिवरात्रि का व्रत मैं शिव के इसी संगीत को नमन करने के लिए करता हूं। तीन व्रत मैं और करता हूं। एक जन्माष्टमी का और दो नवरात्रियों के। उनके बीज-मंत्रों पर फिर कभी बात करूंगा। अभी तो भोलेनाथ के नीलकंठी रूप और उनके तांडव नृत्य की महिमा से लबालब हूं। यह अलौकिक, उद्धत, उग्र और स्वच्छंद नृत्य हमारे तमाम नृत्यों का पितामह है। जो समझते हैं कि शिव का ताडव सिर्फ़ संहार का नृत्य है, वे हर कंकर में बसे शंकर को नहीं समझते। तांडव सृजन का नृत्य भी है। भोले बाबा जब गुस्से में होते हैं तो बिना डमरू लिए तांडव नृत्य करते हैं। लेकिन तांडव करते हुए जब वे डमरू बजाते हैं तो प्रकृति में आनंद बरसता है। ऐसे में शिव पूर्ण आनंद में होते हैं। फिर जब वे स्थिर हो जाते हैं तो नाद होता है।
कहते हैं कि शिव तांडव स्त्रोत रावण ने रचा था। उसकी ‘जटा कटा हसंभ्रम भ्रमन्निलिंपनिर्झरी, विलोलवी चिवल्लरी विराजमानमूर्धनि, धगद्धगद्ध गज्ज्वलल्ललाट पट्टपावके, किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं ममं’ किस के मन में अनुराग और प्रेम की हिलोरें पैदा नहीं करती है? शिव की तीसरी आंख खुलने से हाहाकार मच जाने की कथा पर रुक जाने की ज़रूरत नहीं है। उनके समाधिस्थ होने तक जो इंतजार नहीं कर सकते, वे शिव को नहीं समझ सकते। भरत मुनि शिव को समझते थे, इसलिए उन्होंने नाट्यशास्त्र लिखने के बाद अपने शिष्यों को सबसे पहले तांडव नृत्य सिखाया। पार्वती ने बाणसुर की पुत्री को स्वयं यही नृत्य सिखाया था। शिव के तांडव ने ही उन्हें नटराज का स्वरूप दिया।
अज्ञानता को संगीत और नृत्य से दूर कर ज्ञान के आयाम खोलने का प्रतीक हैं नटराज। शिव महापुराण के 24 हज़ार श्लोकों में शिव और संगीत के संबंध का जैसा वर्णन है, वही हमारे समाज की असली धरोहर है। इस धरोहर को तार-तार करने वाले सियासत के तार-सप्तक के पुजारी नहीं हैं। वे सुरों के ईश्वर में नहीं, अ-सुरों में आस्था रखते हैं। इस हलाहल को अपने कंठ में थामने के लिए क्या कोई नायक हमारे बीच है? उसका न होना ही हमारा आज का दुर्भाग्य है। लेकिन इसके बावजूद महाशिवरात्रि की प्रार्थना के किनारे-किनारे गूंज रही अज़ान हमारा संबल है। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)