Saturday, April 4, 2020

मैं, शाहीन बाग़ नहीं, भारत माता के साथ हूं


अब तक शाहीन बाग़ दृढ़ था, मगर शांत था; असहमत था, मगर अहिंसक था। लेकिन गुरुवार को, महात्मा गांधी की 72वीं पुण्यतिथि पर, शाहीन बाग़ में गोली चल गई। किस ने चलाई, किस पर चलाई, इस झमेले को छोड़ भी दें तो मसला इसलिए संजीदा है कि आख़िर यह गोड़से-सोच बनी कैसे कि धैर्य के साथ चल रहे गांधी-शैली के धरना-प्रदर्शन पर कोई गोली चला दे? 46 दिनों से मुख्यतः महिलाओं द्वारा चलाए जा रहे एक शांत आंदोलन से आख़िर किन लोगों के दिल इतने अशांत हो गए हैं कि बात गोली तक पहुंच गई?
गोली चलाने वाला कच्ची उम्र का है, नाबालिग है, ग्याहवीं कक्षा में पढ़ता है। उसके बाल-मन को गांधी के बजाय गोड़से की दिशा देने वाले कौन हैं? किन प्रतिमाओं से प्रेरित हो कर उसके हाथों ने पिस्तौल थामी? हमारे जनतंत्र की ज़मीन में इस ज़हर की बुआई करने वाले कौन हैं? भारत की तरुणाई के मन में ऐसी नफ़रत ठूंसने का काम कौन-सी शक्तियां कर रही हैं? कहीं सामुदायिक लामबंदी की यह सियासत एक-न-एक दिन पूरे मुल्क़ को गृह-युद्ध जैसे हालात के हवाले कर देने की कूवत तो नहीं रखती है?
शाहीन बाग़ ‘पाकिस्तान’ है या नहीं, मैं कैसे कहूं? लेकिन मेरे गृह मंत्री अमित भाई शाह ने हम सभी से कहा है कि इस बार दिल्ली के चुनाव में मतदान का बटन हम इतने गुस्से के साथ दबाएं कि उसका करंट शाहीन बाग़ तक पहुंचे। अगर तब से, जब मैं ही यह सोच रहा हूं, कि आख़िर भारत के गृह मंत्री की केंद्रीय-चिंता यह क्यों है कि दिल्ली शाहीन बाग़ के साथ है या भारत माता के साथ तो वहां गोली चलाने वाले हाथ के पीछे काम कर रहे अधपके दिमाग़ को भी तो यही लगा होगा कि शाहीन बाग़ के साथ होना भारत माता के ख़िलाफ़ होना है।
ऐसे में अगर इस बच्चे ने भारतीय जनता पार्टी के एक नौजवान सांसद की इस आशंका को अंतिम-सत्य मान लिया कि वह दिन दूर नहीं है, जब शाहीन बाग़ में इकट्ठा लोग हमारे-आपके घरों में घुस जाएंगे और बहन-बेटियों से बलात्कार करेंगे तो उसमें किसका कसूर है? इस बच्चे का? अगर इस बच्चे ने देश के नौजवान वित राज्य मंत्री के लगवाए नारों–‘‘देश के गद्दारों को, गोली मारो ….. को’’–का अनुगमन किया तो इसमें किसका कसूर है? इस बच्चे का? जब हमारे राजनीतिक नायक हमें यह बता रहे हैं कि एक समुदाय-विशेष के लोग आतंकवादी हैं, जब वे हमें यह बता रहे हैं कि हिंदुस्तान के शहरों में कुछ ख़ास-ख़ास मुहल्ले ‘पाकिस्तान’ हैं, जब वे हमें यह बता रहे हैं कि जो शाहीन बाग़ों के साथ हैं, वे भारत माता के शत्रु हैं तो ऐसे में हमारे नादान बच्चे क्या करें? वे भारत माता की हिफ़ाज़त करने के लिए ख़ुद को पिस्तौलों से लैस करने लगे हैं तो उनमें कसूर किसका है? इन बच्चों का?
सावरकर इसलिए आज भी कइयों के लिए वीर हैं कि पिस्तौल उनके नहीं, गोड़से के हाथों में थी। ये पिस्तौल गोड़से को किस ने थमाई थी, इस सवाल से सावरकरवादी क्यों जूझें? तकनीकी तौर पर महात्मा गांधी की हत्या में सावरकर का कोई हाथ नहीं था। इसलिए कि अदालत में ऐसा कुछ भी साबित नहीं हुआ। सो, लुंजपुंज माने जाने वाले हमारे निर्वाचन आयोग तक ने भले ही भड़काऊ नारे लगवाने वाले और अनाप-शनाप बातें कहने वाले भाजपा-नेताओं को दो-तीन दिनों के लिए चुनाव प्रचार करने के हक़ से वंचित कर दिया हो, क़ानूनी तकनीकों के मुताबिक़ पिस्तौल उनके नहीं, इस बच्चे के हाथ में है। दो-तीन बरस से इस बच्चे का बजरंगदलीकरण क्यों हो रहा था, कैसे हो रहा था, उसकी फ़िक्र कोई क्यों करे?
नौकरियां गु़म हो रही हैं, होती रहें! अर्थव्यवस्था की रफ़्तार ओंधे मुंह पड़ी है, पड़ी रहे! महंगाई डायन खाई जात है, हमारी बला से! हम तो चुनाव जीतने के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। ऐसा माहौल बनाने को भी तैयार हैं, जिसमें हमारे बच्चे पिस्तौल उठा लें। हमें इससे क्या कि आज एक ने उठाई है, कल दूसरा उठाएगा। यह अधिकार तो ‘लोकतांत्रिक तरीके से मिले बहुमत’ ने हमें दे ही दिया है कि हम किसकी पिस्तौल को भारत माता के साथ मानें और किसकी पिस्तौल को भारत माता के खि़लाफ़। जिन्हें यह रोना रोना है कि राजनीति में इतने टुच्चेपन पर उतर जाना ठीक नहीं, वे रोते रहें! जिन्हें हर बात पर रोने की आदत है, उनके आंसू कोई कब तक पोंछे?
दिल्ली शाहीन बाग़ के साथ है या नहीं, इसका फ़ैसला फरवरी के दूसरे मंगलवार को हो जाएगा। लेकिन मैं तो आपको आज ही बता देता हूं कि मैं शाहीन बाग़ के साथ नहीं हूं। मेरी हिम्मत ही नहीं है कि अमित भाई के ऐलान के बाद शाहीन बाग़ के साथ हो जाऊं। मैं भारत माता के साथ हूं। मैं गद्दारों को गोली मारने का नारा लगवाने वाले ‘युवा हृदय सम्राट’ के साथ हूं। मैं भावी-बलात्कारों की आशंकाओं से हमें आज ही आग़ाह कर देने वाले नौजवान भाजपा-सांसद के साथ हूं। मैं ग्यारहवीं कक्षा तक पहुंचते-पहुंचते ज़हर बुझे तीर में तब्दील हो गए उस बच्चे के साथ हूं, जिसके रूपांतरण पर आज राम-भक्तों की छाती छप्पन इंची हो रही है। फिर भले ही स्वयं भारत माता शाहीन बाग़ के साथ हों। फिर भले ही भारत माता अपने लालों के आपसे किए गए इस सवाल पर छाती पीट रही हों कि आप शाहीन बाग़ के साथ हैं या भारत माता के साथ?
साढ़े पांच साल में हम कहां-से-कहां आ गए हैं? आज भी अगर हमें इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता तो यक़ीन मानिए कि गैंडे की खाल भी हमारे ठूंठपन से सौ गुना नरम है। हमारी यह संवेदनहीनता भी अगर हमें नहीं ले डूबेगी तो फिर और कौन-सी प्रलय आना शेष है? शाहीन बाग़ की चिट्ठी को तार समझिए। बच्चे के हाथ की पिस्तौल को समापन का बिग-बैंग समझिए। समझ कर भी कुछ न समझने की समझदारी दिखाने का यह समय नहीं है। मानिए, मत मानिए, देश उस ज्वालामुखी के मुहाने पर आ कर खड़ा हो गया है, जो सब-कुछ लील लेगा। हमारे बच्चों के दिमाग़ों की गढन-प्रक्रिया में जिस मिट्टी का इस्तेमाल हो रहा है, उस पर कम-से-कम अब तो ग़ौर कीजिए।
हम अपने मुल्क़ को शरजील इमाम के हवाले नहीं कर सकते। उसकी ज़ुबान से बरसती गोलियों का प्रतिकार नहीं करने वाले भारत माता के खि़लाफ़ हैं। हम अपने देश को पिस्तौल थामे बच्चे के हवाले भी नहीं कर सकते। उसकी पिस्तौल से निकली गोली भी भारत माता के खि़लाफ़ है। गृह मंत्री बड़े है कि भारत माता? वित्त राज्य मंत्री बड़े हैं कि भारत माता? बौखलाए भाजपा-सांसद बड़े हैं कि भारत माता? जितने कोड़े खाने की सज़ा शरजील को मिलनी चाहिए, उससे कम कोड़ों की सज़ा पिस्तौलधारी किशोर को क्यों मिले? लेकिन उनका क्या, जो शरजील को शरजील और रामभक्त को रामभक्त बनने की ख़ुराक मुहैया करा रहे हैं? उनके लिए कितने कोड़ों की सज़ा आप तजवीज़ करेंगे?
इसलिए असली खतरे की अनदेखी मत कीजिए। भारत से विदा ले रहे गांधी और हमारे आंगन में सरेआम पधार रहे गोड़से से आंख मत चुराइए। मान-न-मान, मैं तेरा मेहमान को अगर आज आप ने प्रवेश-द्वार पर ही नहीं टोका तो कल अपने दालान में पसर चुकी गाजर-घास के लिए किसी और पर उंगली मत उठाइएगा। आज अगर आप हाथ-पर-हाथ रखे बैठे रहेंगे तो आगे चल कर आप की आंखों से बहने वाली यादों के पानी का चुल्लू आपको डूब मरने की इजाज़त भी शायद ही देगा। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)

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