Saturday, April 4, 2020

चलें, चुल्लू भर पानी तलाशें




पांच साल से कुछ ज़्यादा हुए, जब नरेंद्र भाई मोदी को मां गंगा ने बुलाया और वे सब छोड-छाड़ दौड़े-दौड़े, अपने घर गुजरात से, बनारस पहुंच गए। गंगा मां ने नहीं भगाया, लेकिन उसी बनारस से, सब-कुछ छोड़-छाड़, संस्कृत के सहायक आयार्च डॉ. फ़िरोज़ ख़ान को, अपने घर राजस्थान भागना पड़ा। पांच बरस में बनारस की नहीं, भारत की आबोहवा में यह फ़र्क़ आया है। इस फ़र्क़ का अहसास अ्रगर आपको नहीं कचोटता तो मुझे आपसे कुछ नहीं कहना।
मेरी पट्टी-पूजा ज़रूर ब्राह्मण ने कराई थी, लेकिन आदिवासी गांवों के टाटपट्टी स्कूलों में पढ़ते वक़्त मुझे कभी यह मालूम ही नहीं चला कि मुझे शिक्षा देने वालों में से कौन किस जाति-बिरादरी का था। मैं कभी इतना राष्ट्रवादी रहा ही नहीं कि जानने की कोशिश करता कि मुझे पढ़ाने वाले शिक्षकों में से कौन दलित हैं और कौन आदिवासी? मैं तो मौलवियों से भी पढ़ा और तिलकधारी पंडितों से भी।
सो, जब से बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों ने नरेंद्र भाई के भारत में फ़िरोज़ भाई से संस्कृत पढ़ने से इनकार किया है, मैं अपने लिए चुल्लू भर पानी की तलाश में भटक रहा हूं। अगर फ़िरोज़ ख़ान ने संस्कृत पढ़ कर कोई पाप किया है तो इससे बड़े पाप का भागी तो मैं हूं। फ़िरोज़ ने तो मन से संस्कृत का अध्ययन किया और उसमें डॉक्टरेट हासिल की, मगर बचपन में थोड़ी-बहुत संस्कृत मुझे भी मन मार कर पढ़नी पड़ी। मुसलमान हो कर संस्कृत का विद्वान बन जाना ज़्यादा बड़ा ग़ुनाह है या पंडितों की संतान हो कर संस्कृत को छूने से परहेज़ करना?
इसलिए मुझे तो लगता है कि कसम खा लूं कि अब अगर संस्कृत पढ़ूंगा तो फ़िरोज़ ख़ान से ही। जानता हूं कि बनारस के चंद उत्पाती पंडे मुझे वहां के विश्वविद्यालय में तो ऐसा नहीं करने देंगे, सो, मैं जयपुर के पास फ़िरोज़ के गांव बगरू जा कर रह लूंगा, जहां सौ साल से उनके पूर्वज राम के भजन गा रहे हैं। उनके दादा ज़िंदगी भर गांव के जुगल-दरबार में सीताराम के भजन गाते रहे। उनके पिता रमज़ान ने अपने चारों बेटों को संस्कृत विश्वविद्यालय में पढ़ाया। फ़िरोज़ की बहन का जन्म दीवाली के दिन हुआ तो उसका नाम लक्ष्मी रखा गया। उनका पूरा परिवार गांव की गौशाला में निःस्वार्थ सेवा करता है। ऐसी जड़ों वाले फ़िरोज़ को हमने बनारस से जाने पर मजबूर कर दिया। आप ही बताइए, मैं गर्व करूं या शर्म से डूब मरूं?
मुझे अब नहीद आबिदी की फ़िक्र हो रही है। वे हैं तो मिर्ज़ापुर की, पर अब बनारस में ही रहती हैं। संस्कृत की विद्वान हैं। उन्होंने भी संस्कृत में पीएचडी की है–महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ से। नरेंद्र भाई के गंगा-तट पर आगमन के चंद महीने पहले उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया था। क्या नहीद को भी वापस मिर्ज़ापुर जाना पड़ेगा?
मुझे कौशाम्बी में रह रहे हयातुल्लाह साहब की भी फ़िक्र हो रही है। वे उम्रदराज़ हैं। संस्कृत के विद्वान हैं। चारों वेदों के ऐसे ज्ञाता हैं कि उन्हें चतुर्वेदी कह कर पुकारा जाता है। उन्होंने संस्कुत में पुस्तकें लिखी हैं। शेरवानी इंटर कॉलेज में पढ़ाते ज़िंदगी गुज़री। वे बेचारे अब कौशाम्बी में रह कर किसी को संस्कृत पढ़ा पाएंगे या नहीं?
मुझे 84 साल के पंडित गुलाम दस्तगीर बिराजदार की भी फ़िक्र सता रही है। स्येदवंशी हैं यानी पैगम्बर मुहम्मद साहब के सीधे वंशज। उन्होंने कुरान का संस्कृत में अनुवाद किया है। संस्कुत में ‘वेदादि शोधबोध’ पुस्तक लिखी है। शोलापुर के पास चिखाली गांव में जन्मे। बंबई में मराठा मंदिर संस्थान के वर्ली हाइस्कूल में पढ़ाने चले गए। फिर मैसूर विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम. ए. किया। 1980 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उन्हें मिलने बुलाया। बाद में उन्हें राष्ट्रीय संस्कृत प्रचारक बनाया। गुलाम दस्तगीर के पुत्र बदीउज़्जमा भी संस्कृत के विद्वान हैं, मगर शोलापुर में अपनी दुकान पर बैठते हैं। उनकी पुत्री गयासुन्निसा शोलापुर में ही संस्कृत शोध संस्थान संचालित करती हैं। बनारसी हवा चली तो इन सबका क्या होगा?
हज़ारों साल पहले जब वेद व्यास संस्कृत में वेदों की रचना कर रहे थे, जब उपनिषद लिखे जा रहे थे, हिंदू शास्त्र ताल-पत्रों पर उतर रहे थे, बौद्ध ग्रंथों की रचना संस्कृत में हो रही थी, जैन शास्त्रों को संस्कृत का सहारा मिल रहा था और पाणिनी संस्कृत के व्याकरण को ‘अष्टध्यायी’ से आकार दे रहे थे; तभी अगर संस्कृत को यह मालूम हो जाता कि इक्कीसवीं सदी में उसका भविष्य इस बात से तय होगा कि उसे संप्रेषित करने वाले का मज़हब क्या है तो वह संथारा करने के लिए तेरहवीं सदी तक का इंतज़ार भी क्यों करती?
संस्कृत के पराभव पर आंसू बहाने वालों की तो इस बात से बांछें खिल जाना चाहिए थीं कि फ़िरोज़ भाई में संस्कृत पढ़ने-पढ़ाने की उमंग के पुराने अंकुर अब भी मौजूद हैं। पातंजलि के महाभाष्य को तो संघ-कुनबे के उन नव-राष्ट्रवादियों ने देखा तक नहीं होगा, जो आज बनारस में हांका लगाते घूम रहे हैं। उन्हें तो मालूम भी नहीं होगा कि संस्कृत और पाली जैसी भारतीय भाषाएं कैसे और कहां ग़ुम हो गईं? कौन-से मुगलकालीन और मंगोलकालीन कड़ाहों की वज़ह से संस्कृत की वाष्प आसमान में खो गई?
आज अगर अल बिरूनी होते तो हम उनका पता नहीं क्या कर डालते? वे ईरान के थे। ख़्वाराज़्म इलाक़े के। आज के पश्चिम उज़बेकिस्तान और उत्तरी तुर्कमेनिस्तान में अब यह इलाक़ा पड़ता है। पूरा नाम था अबू रेहान मुहम्मद इब्न अहमद अल बिरूनी। तमाम भाषाओं के साथ ही संस्कृत के भी बड़े विद्वान थे। हज़ार बरस पहले भारतीय उपमहाद्वीप में घूमे और ‘तारीख़-अल-हिंद’ लिखा। अच्छा हुआ, 1050 में ज़न्नत चले गए। वरना आज उन्हें दोज़ख का अहसास हो रहा होता।
संस्कृत तो संस्कृत, आज तो रहीम, रसखान और कबीर को भी हिंदी में लिखने पर हमारे राष्ट्रवादी अपने दरबार में तलब कर लेते। भला हुआ कि ख़ानजादा मिर्ज़ा ख़ान अब्दुल रहीम खा़न-ए-ख़ाना चार सौ बरस पहले अपने दोहों वगैरह के अलावा संस्कृत में ज्योतिष के दो ग्रंथ लिख कर चले गए। अगर वे ‘खेटकौतुकम’ और ‘द्वात्रिंशद्योगावली’ लिखने की हिमाक़त आज कर देते तो अल्लाह जाने क्या होता आगे! दिल्ली में हुमायूं के मक़बरे के पास रहीम का भी मक़बरा है। कभी जा नहीं पाया, मगर फ़िरोज़ भाई का हाल देखने के बाद मैं अगली शाम जा कर चंद घंटे रहीम के मक़बरे पर बैठा-बैठा ख़ामोशी से ‘देनदार कोई और है, जो भेजे दिन-रैन; लोग भरम हम पर करें, ता सौं नीचे नैन’ का मनका फेरता रहा।
वैसे शायद कभी न जाता, मगर अब मेरा मन रसखान और कबीर की समाधियों पर भी जाने को हो रहा है। पश्तूनी सैयद इब्राहीम ख़ान के अमरोहा से वृंदावन पहुंच कर रसखान हो जाने का किस्सा राष्ट्रवादी जानते तो उनकी देशभक्ति को मैं भी नमन करता। उनका एकाध सवैया भी बनारसी कठमुल्लों ने आत्मसात किया होता तो गंगा की लहरों से लपटें न उठ रही होतीं। ‘मानुस हों तो वही रसखान, बसौं मिलि गोकुल गांव के ग्वारन’ एक बार भी पढ़ लेने वाले क्या किसी फ़िरोज़ को बनारस से चले जाने देते? स्वामी रामानंद के शिष्य कबीर ने साढ़े चार सौ साल पहले कहा था कि ‘चाल बकुल की चलत है, बहुरि कहावै हंस; ते मुक्ता कैसे चुगे, पड़े काल के फंस’। ऐसे दौर में एक बार मगहर और महाबन जाए बिना मेरा तो अब मोक्ष नहीं। अपनी आप जानें! 

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