Saturday, April 4, 2020

कांग्रेस का रक्त-बीज और राहुल-प्रियंका


जब-जब कांग्रेस के दिन फिरने लगते हैं, मध्यम-तल पर कब्ज़ा जमाए बैठे कांग्रेस के कुछ नेताओं के दिमाग़ भी फिरने लगते हैं। एक बार हो तो ठीक, दो बार हो तो ठीक, तीन बार हो तो ठीक; मगर जब बार-बार ऐसा ही हो तो इसकी एक ही वज़ह हो सकती है। यह, कि कांग्रेस की भीतरी तहों में केंचुओं की एक ऐसी मंडली ने घर बना लिया है, जो उसकी मिट्टी को पोला बनाती रहती है। इसलिए नहीं कि वह और उपजाऊ हो जाए। इसलिए, कि वह जब-जब उपजाऊ होने लगे, उसे और बंजर बना दिया जाए।
अब जब राज्यों से बहने वाली हवा कांग्रेस को सहारा देने लगी है तो अपने अललटप्पू सुझावों से शिखर-नेतृत्व को भरमाने की कुचालें फिर तेज़ हो गई हैं। कांग्रेस आख़िर है क्या? कांग्रेस, मानवता के बुनियादी मसलों पर स्पष्ट रुख रखने के लिए जानी जाती रही है। कांग्रेस, भारत के मूल सिद्धांतों के पक्ष में पूरी मज़बूती के साथ खड़ी रहने के लिए मानी जाती रही है। इनमें किसी भी तरह के घालमेल की हिमायत कांग्रेस का काम कभी नहीं रहा। जब-जब तरह-तरह की दबाव-चौकड़ियों के चलते कांग्रेस ने इधर-उधर की बातें करनी शुरू कीं, उसे नुक़सान ही हुआ। कांग्रेसी चौपालों पर अपना हुक्का गुड़गुड़ा रहे लालबुझक्कड़ों को आज यह बात और भी संजीदगी से समझने की ज़रूरत है कि जिस रक्त-बीज से कांग्रेस का जन्म हुआ है, भारत के लोग उसमें कोई मिलावट देखने को न कभी तैयार थे, न कभी होंगे।
ठीक है कि राहुल गांधी के प्रयोगों में से कुछ कांग्रेस के लिए उलटे पड़ गए। ठीक है कि एकाएक अध्यक्ष का पद छोड़ कर राहुल ने ठीक नहीं किया। लेकिन क्या राहुल की राह में कांटे बोने वाले बड़े मासूम थे? क्या राहुल को दीवार तक ठेल कर उनसे अध्यक्ष पद छुड़वा देने वाले भोले-भाले थे? क्या 2019 के आम चुनाव में राहुल ने नरेंद्र मोदी की नाक में दम नहीं कर दिया था? फिर वे कौन थे, जिनकी वज़ह से राहुल को चक्रव्यूह में अपने अकेले पड़ जाने का मलाल अब तक है? पांच-छह साल में बनी कांग्रेस की इस गत के लिए राहुल नहीं, बाकी ज़्यादा ज़िम्मेदार हैं। एक वे, जो अपने को भारतीय राजनीति के मर्म का सबसे बड़ा ज्ञाता समझते हैं और राहुल के आसपास जम गए हैं। दूसरे वे, जो अपनी अनदेखी से आहत हो कर अपने-अपने में रम गए हैं।
कांग्रेस के लिए मौसम बदल रहा है। लंबी शीत-लहर के बाद निकल रही धूप से कांग्रेस में गर्माहट लाने के लिए शिखर-नेतृत्व को कुछ काम बेलाग हो कर करने होंगे। सोनिया गांधी पार्टी की अंतरिम अध्यक्ष हैं। मगर सारे फ़ैसलों पर लोगों को छाप तो आज भी राहुल की ही दिखाई देती है। अगर वे ख़ुद यह कर रहे हैं तो बहुत अच्छा है। लेकिन अगर यह उनके नाम पर हो रहा है तो क़तई अच्छा नहीं है। मैं उन लोगों में हूं, जो शुरू से कह रहे हैं कि राहुल को अध्यक्ष पद छोड़ना ही नहीं चाहिए था और अब फ़ौरन अपने काम पर लौट आना चाहिए।
लेकिन उनकी वापसी, उनकी वापसी होनी चाहिए। उनके गले में लिपटी अमरबेलों से मुक्त राहुल की वापसी। उन्हें एक नई कांग्रेस बनाने के लिए वफ़ादार-से दिखाई देने वाले अधकचरे लंगूरों की नहीं, कांग्रेसी-मूल्यों में पगे धीरोदात्त सहयोगियों की ज़रूरत है। यह नाहक टुकड़े चुन-चुन कर अपने दामन का बोझ बढ़ा लेने का नहीं, अपने पल्लू से किरचों को झटक देने का समय है। जब अपने हाथी अपनी ही सेना को कुचलने लगें तो एक सेनापति को सावधान हो जाना चाहिए। राहुल के कान तो बरसों पहले इस आहट से खड़े हो जाने चाहिए थे। उनकी छुअन से कई खच्चर हाथी बन कर डोलने लगे। आज इन हाथियों को ‘पुनर्मूषकोभवः’ कह देने का वक्त है।
ऐसा नहीं हुआ तो कांग्रेस के लिए निकली गुनगुनी धूप फिर ढलने लगेगी। कहने को कोई कुछ भी कहे, लेकिन आज की सच्चाई तो यही है कि राहुल और प्रियंका के बिना कांग्रेस वह कांग्रेस नहीं रह पाएगी। इसलिए राहुल और प्रियंका पर ही इस बात का सबसे ज़्यादा दारोमदार भी है कि वे ख़ुद को खर-पतवार से बचाएं। अपने दालान की सफ़ाई तो आख़िर उन्हें ही करनी पड़ेगी। यह स्वीकार करने में संकोच कैसा कि अंतःपुर में कुछ तो गड़बड़ है। जिन्हें शरणार्थी समझ कर प्रवेश दिया था, उनमें कई चालाक घुसपैठिए भी हैं। तो नरेंद्र भाई मोदी की तरह ही जब तक हम भी समस्या की गंभीरता को समझने से इनकार करते रहेंगे, समाधान कहां से निकालेंगे? और, अगर समस्या है ही नहीं तो कांग्रेस कहां से यहां पहुंच कैसे गई?
हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई लट्टूबाज़ी के जैसे उस्ताद हैं, वैसा कोई नहीं। ईश्वर न करे, राहुल और प्रियंका उन लोगों के झांसे में फंसे, जो इस लट्टूबाज़ी का जवाब लट्टूबाज़ी से देने की सलाह देते हैं। मैं मानता हूं कि जिस दिन राहुल-प्रियंका ने ऐसा करने की ललक दिखाई, भारतीय मन उनसे खट्टा होने लगेगा। सोनिया गांधी ने नरेंद्र भाई के लटकों को धीर-गंभीरता के साथ उजागर किया, इसलिए आज भी वे सोनिया गांधी हैं। कांग्रेसी सियासत में छम-छम करती घूम रही टोली ने अगर अगर सौ-पचास छिछले ट्वीट उनसे भी करा लिए होते तो वे भी सोनिया गांधी नहीं रह जातीं। सियासत में शैली के इस फ़र्क़ को जो न समझे, सो अनाड़ी है। युवाओं से संवाद स्थापित करने के लिए गांधी और नेहरू कोई डिस्को-दीवाने थोड़े ही बन जाते थे!
नरेंद्र भाई को गंगा मां ने बुलाया था या नहीं, सो, नरेंद्र भाई जानें! मैं तो इतना जानता हूं कि गंगा मां ही उन्हें ओंधे मुंह गिराएगी। लेकिन यह तब होगा, जब कांग्रेस अपनी नाव के पाल तान ले। 2020 का साल कांग्रेस के लिए इसलिए अहम है कि इस साल दिल्ली और बिहार में बोए बीजों की फ़सल ही 2022 में उत्तर प्रदेश में लहलहाएगी। और, उत्तर प्रदेश में के खेतों में जो उगेगा, उससे ही 2024 के खलिहान का रंग-रूप तय होगा।
इसके लिए राहुल को परदे से बाहर आ कर संगठन को शक़्ल देने का काम बाक़ायदा शुरू करना पड़ेगा।  पूरी तरह न लौटें तो इतना ज़रूर करें कि अगले दो-चार साल के लिए ख़ुद को अपनी मां का औपचारिक कार्यकारी घोषित कर दें। कांग्रेस को ‘ख़ल्क ख़ुदा का, मुल्क़ बादशाह का, हुक़्म शहर कोतवाल का’ के दौर से बाहर लाना होगा। बिना इसके उसकी डालों पर टेसू नहीं फूलेंगे। राहुल-प्रियंका को नकचढ़े नवजातों से निज़ात पानी होगी। उन्हें अपनी चयन-प्रक्रिया को सिरे से बदलना होगा।
कांग्रेस का व्यक्तित्व उसके दर्शन से मेल खाना चाहिए। जब तक व्यक्तित्व और दर्शन एक सतत इकाई बने रहेंगे, कांग्रेस मतदाताओं के दिलों पर राज करती रहेगी। जब-जब इसमें भटकाव आएगा, कोई-न-कोई नटबाज़ अपना रास्ता बनाता रहेगा। नरेंद्र भाई कांग्रेस में 2011 के बाद शुरू हुए विचलन का परिणाम हैं। 2019 में उनकी वापसी कांग्रेसी ऊहापोह का नतीजा है। अगर वे 2024 में फिर आए तो इसका मतलब होगा कि कांग्रेस का दिशाभ्रम चिरंतन स्वरूप ले चुका है। इसलिए 2020 हमें बताएगा कि इस पूर्ण-विराम को टालने के लिए राहुल-प्रियंका कांग्रेस को कितना झकझोरते हैं? और, कांग्रेस को झकझोरने के लिए ख़ुद को कितना झकझोरते हैं?

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