बचपन से सुनते आ रहे थे कि भैया, मनुष्य बली नहीं होता है, बलवान तो समय होता है; वरना वही अर्जुन थे और वही उनका गांडीव धनुष था, लेकिन भील गापियों को लूट ले गए तो लूट ही ले गए। महाभारत जीतने वाले अर्जुन उसके बाद मुट्ठी भर लुटेरों का भी कुछ नहीं कर पाए। क्यों कि समय जो साथ नहीं था। मगर जब हम क़ायदे की बातें सुनते हैं, तब उन पर ध्यान कहां देते हैं? हमारे शास्त्र, हमारे ऋषि-मुनि, हमारे बुजु़र्ग हम से कहते-कहते थक गए कि तुम कुछ नहीं हो, जो है, समय है, लेकिन हम तो ख़ुद को ही पहलवान मानते रहे। कभी मानने को तैयार ही नहीं हुए कि ख़ुदा मेहरबान है तो गधा भी पहलवान है, कि अल्लाह की मेहरबानी के बिना किसी की क्या बिसात है?
सो, बीस सौ बीस की पहली तिमाही ख़त्म होते-होते ईश्वर की एक ख़ुर्दबीनी-रचना ने पूरी मनुष्य-जाति के छक्के छुड़ा दिए। अब हम हाय अम्मा-हाय अम्मा करते अपने-अपने दालानों में बेचैन-मन लिए टहल रहे हैं। जब मेरे जैसे कई नश्वर मनुष्य-शरीर पृथ्वी पर उगे-ही-उगे होंगे, तब से, आमतौर पर ग़ैर-संजीदा मानी जाने वाली बंबइया फ़िल्में हमें यह संजीदा संदेश देती फिर रही हैं कि ‘किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार’। लेकिन हमें तो हाड़तोड़ मेहनत करने वालों के बीच दस-बीस प्रतिशत के चक्रवृद्धि ब्याज पर अपना पैसा उधार चलाने से ही फ़ुर्सत नहीं थी।
मैं 28 दिनों में ग़ाहे-ब-ग़ाहे ही घर से बाहर गया हूं। हर रोज़ नियम से एकाध दर्जन लोगों को फोन कर उनकी ख़ैर-ख़बर ले लेता हूं। लेकिन इस बीच मेरी जान-पहचान के 28 लोगों ने भी मेरा हाल-चाल नहीं पूछा। जो दो-चार फोन आए, वे उन धंधेबाज़ों के थे, जो चीन और दक्षिण कोरिया वगैरह से आ रहे कोरोना टेस्टिंग किट के लिए बिलकुल उन्हीं प्रस्तावों के साथ बाज़ार खोज रहे हैं, जिन्हें ले कर वे इस महामारी के आगमन से पहले सरकारी सड़क निर्माण और आंगनवाड़ी के मध्याह्न भोजन आपूर्ति की बाज़ारू गलियों में घूमा करते थे। मुझे उन से यह कहते-कहते रुलाई छूटने लगी कि ज़्यादा तो नहीं, पचास-पच्चीस किट के निःशुल्क वितरण में अपनी भागीदारी तो मैं करने को तैयार हूं, लेकिन आपके इस नए धंधे में योगदान का पुण्य कमाना मेरे बस का नहीं है।
तो जिन्हें कोरोना की घूरती आंखें आज भी यह याद नहीं दिला रहीं कि ‘आदमी को चाहिए कि वक़्त से डर कर रहे’, वे कोरोना के पीठ फेरते ही फिर से क्या-क्या नहीं करेंगे? साहिर लुधियानवी की लिखी और मुहम्मद रफ़ी की गाई पंक्तियों पर पचपन साल से अपनी मुद्रा दार्शनिक बना कर बैठ जाने वाले दसरअसल आज भी यह कहां मानने को तैयार हैं कि ‘वक़्त की हर शै ग़ुलाम, वक़्त का हर शै पे नाम; वक़्त की ठोकर में है, क्या हुकूमत, क्या समाज; वक़्त की पाबंद हैं, आती-ताजी रौनकें…’। ये वे लोग हैं, जिन्हें श्मशान के दुःखों से कोई लेना-देना नहीं है। उन्हें तो लकड़ी की अपनी टाल का मुनाफ़ा देखना है। अंतिम संस्कार की लकड़ियों का वज़न बढ़ाने के लिए उन्हें गीला करने में भी जिन्हें पाप नहीं लगता।
मेरी पीढ़ी के जिन लोगों के भाग्य में अपने धर्म-ग्रंथों को पढ़ना नहीं लिखा था, वे भी अपने कानों से टकराते बंबइया गीतों की लहरियों को तो परे नहीं धकेल पाए होंगे! वेद-पुराण के श्लोकों से न सही, मानस की चौपाइयां से न सही, हमारे फ़िल्मी गीतों से तो उन्होंने इतना सीखा ही होगा कि ’इक दिन बिक जाएंगे माटी के मोल, जग में रह जाएंगे प्यारे तेरे बोल’। उन्हें इतना तो मालूम ही होगा कि ‘ज़िंदगी और कुछ भी नहीं, तेरी-मेरी कहानी है’। वे इतना तो जानते ही हैं कि ‘यहां कल क्या हो, किसने जाना’। सो, मेरी पीढ़ी के लोगों को तो हमारे फ़िल्मी गीतकार तक बताते आ रहे हैं कि ‘चल अकेला’ क्यों कि ‘यहां पूरा खेल अभी जीवन का तू ने कहां है खेला’। अगर उन्हीं की सुन ली होती तो बिछौना धरती को कर के आकाश ओढ़ने की यह नौबत शायद न आती। इसलिए आज भी चाहें तो हम यह सोच कर तसल्ली कर सकते हैं कि ज़िंदगी की यही रीत है, हार के बाद ही जीत है।
मुझे लगता है कि जैसे प्राणी का प्रारब्ध होता है, वैसे ही देशों का भी प्रारब्ध होता होगा, वैसे ही आकाशगगा के ग्रहों का भी प्रारब्ध होता होगा। अगर ऐसा है तो आकाशगंगाओं का भी अपना प्रारब्ध होता होगा। प्रलय-निर्माण-प्रलय-निर्माण की यह अनवरत प्रक्रिया ब्रह्मांड में मौजूद है तो सब के भाग्य एक-दूसरे से नत्थी हैं। राजा का भाग्य प्रजा से और प्रजा का भाग्य भी राजा से ज़रूर जुड़ा है। ‘यथा राजा-तथा प्रजा’ अगर सही है तो ‘यथा प्रजा-तथा राजा’ का सिद्धांत भी तो कहीं अस्तित्व रखता होगा!
शांति पर्व में भीष्म ने कहा है कि ‘राजा राष्ट्रकृतं पापं राज्ञः पापं पुरोहितः’। राष्ट्र द्वारा किए पाप को राजा भोगता है। इसी शाति पर्व में ’कुराजराज्येन कृतः प्रजासुखं’ की बात भी कही गई है। यानी दुष्ट राजा के राज में प्रजा भला कैसे सुखी रह सकती है? ‘राज्ञि धर्मणि धर्मिष्ठाः’ के सिद्धांत को हमारे पूर्वजों ने कुछ सोच कर ही जन्म दिया होगा। वे जानते थे कि जगत में पुण्य और पाप का प्रवर्तक हमेशा राजा ही होगा। इसलिए उन्होंने यह भी हमें तभी बता दिया था कि ‘नित्योद्विग्नाःप्रजा यस्य करभारप्रपीड़िताः; अनर्थेर्विप्रलुप्यन्ते स गच्छति पराभवम्’। जिस राजा की प्रजा सर्वदा पीड़ित हो कर उद्विग्न रहती है और तरह-तरह के अनर्थ उसे सताते रहते हैं, वह राजा पराभव को प्राप्त होता है।
इसलिए क्या वे दिन अब आ गए हैं कि प्रजा अपने को बदले? इसलिए क्या वे दिन अब आ गए हैं कि प्रजा अपने राजा को भी बदले? जैसे प्रजा जब अपनी आदतें नहीं बदलती तो राजा उसकी आदतें बदलने के लिए हरसंभव क़दम उठाता है, क्या वैसे ही जब राजा अपनी आदतें न बदले तो प्रजा को भी राजा की आदतें बदलने के लिए हरसंभव क़दम उठाने चाहिए? इस विषाणु-दौर ने हमें बहुत-कुछ सोचने पर मजबूर किया है। अमृत के पहले विष ही निकलता है। आज के मंथन-युग का विषाणु भी क्या इसलिए आया है कि हम अपनी जीवनी-शक्ति के असली अमृत तक पहुंच सकें?
आज जो हो रहा है, इसलिए हो रहा है कि प्रकृति हमें सर्वनाश से बचाना चाहती थी। हर तरह के सर्वनाश से। प्राणि-जगत के जितने भी आयाम हो सकते हैं, उन सभी के सर्वनाश से क़ुदरत अगर हमें न बचाना चाहती तो चेतावनी का यह बिगुल बजता ही क्यों? सृष्टि-रचयिता हमें सिर्फ़ अपना ज़िस्म और जिं़दगी बचाने का ही अवसर नहीं दे रहा है, उससे भी ज़्यादा उसने हमें यह मौक़ा इसलिए दिया है कि हम अपना सब सकारात्मक बचा ले जाएं और अपना सारा नकारात्मक तिरोहित कर डालें। यह समूची सोच, संस्कृति, नज़रिए और समझ के परिष्कार का समय है। अगर ऐसा नहीं हुआ तो सिर्फ़ शरीरों के बच जाने से भी क्या हो जाएगा? जो धरती हमने अपने लिए रच ली है, वह तो अब एक ऐसा महाकाय मुमुक्षु-भवन भर रह जाएगी, जिसमें प्रतीक्षा के बाद मोक्ष भी शायद ही मिले! लेकिन उसकी खिड़की से आमूल-चूल बदलाव का एक चांद क्या आपको दिखाई नहीं दे रहा? विषाणु-समाधि के बजाय क्या चांदनी आपको नहीं लुभा रही? (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)
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