हमारे पराक्रमी प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी ने देश के ग्यारह सर्वोच्च सरमाएदारों को इस बुधवार दिल्ली बुला कर पूछा कि रसातल में पहुंच गई अर्थव्यवस्था को उबारने के लिए इस बार के बजट में किस तरह के इंतज़ाम किए जाएं? आप भले ही इस बात का मलाल पालें कि जिनके कुल कारोबार का बाज़ार-मूल्य तो छोड़िए, जिनकी व्यक्तिगत दौलत भी सब मिला कर साढ़े छह लाख करोड़, यानी 65 खरब रुपए से ज़्यादा हो, ऐसे लोगों को बुलाने से क्या फ़ायदा? वे कहां से आज के सिसकते मुल्क़ की ज़रूरतें समझेंगे? मगर मुझे तो भारतमाता को दिए अपने ज़ख़्मों पर मरहम लगाने की नरेंद्र भाई की यह अदा पसंद आई। उन्हीं ने दर्द दिया है तो वे ही दवा देंगे। दर्द जब दिया, दिया; अब दवा देने की कोशिश कर रहे हैं, तब तो तालियां बजाइए।
जो कहेंगे कि दर्द देते वक़्त जो ख़ामोश रहे, बाद में इस दर्द को बढ़ाने में जो शामिल रहे और फिर आम लोगों के जिस दर्द की बिललिलाहट से जिनके घर भर गए, उनके ज़रिए अब ग़रीबों के दर्द की दवा ढूंढना कौन-सी बुद्धिमानी है; मैं उन्हें देशद्रोही तो नहीं कहूंगा, लेकिन इतना ज़रूर कहूंगा कि ये वे लोग हैं, जिन्हें नरेंद्र भाई पसंद नहीं हैं और जो उनके हर किए-धरे में ख़ामी ढूंढते रहते हैं। वरना देश के वर्तमान दर्द से द्रवित एक प्रधानमंत्री के प्रयासों पर भला कोई टीका-टिप्पणी करता है? अब कहने को तो आप यह भी कह सकते हैं कि अगर नरेंद्र भाई ने नोट-बंदी करने के पहले भी इन ग्यारह अर्थ-विज्ञानियों से पूछ लिया होता तो शायद आज के हालात ही पैदा नहीं होते। अगर आधी रात को ‘एक देश-एक टैक्स’ का घंटा बजाने के पहले इन एकादश-रत्नों की सलाह ले ली होती तो भी शायद आज हम पांच फ़ीसदी की घनघोर निचली पायदान पर पहुंच गई जीडीपी पर भीगे नयनों से प्रलाप नहीं कर रहे होते। लेकिन जो हुआ, सो, हुआ।
नरेंद्र भाई के हाथों जो हो गया, सो, हो गया। मगर हम-आप तो उदार हैं। हम-आप तो दयालु हैं। हम में-आप में तो करुणा है। हम-आप तो क्षमा को वीरों का आभूषण मान कर अपनी वीरता पर गर्व करते रहते हैं। सो, हमें वही करना चाहिए। नरेंद्र भाई ने पचास दिन में देश का कायाकल्प न हो जाने पर ख़ुद के लिए जिस सज़ा की तजवीज़ की थी, हम-आप इतने भी पाषाण-युगीन नहीं हैं कि उसे अंजाम देने को अपनी गुफ़ाओं से निकल पड़ें। आख़िर हम में और शिक्षण संस्थाओं में घुस कर डंडे बजाने वालों में कुछ तो फ़र्क़ है। यही अंतर हमें मनुष्य बनाता है। यही अंतर बेसुरे हो रहे भारत का सुर बनाए रखने की उम्मीद जगाता है। वरना तो हमारे मौजूदा सत्ता-नायकों ने बहुआयामी तबाही लाने में कोई कसर बाकी रखी ही कहां है?
देश की बेहाली के बीच भी मालामाल कैसे हुआ जाता है, यह धीरूभाई के बेटे मुकेश भाई से बेहतर कौन जानता है? इस विद्या में गौतम अडानी से ज़्यादा पारंगत कौन है? साधारण सतपाल मित्तल के पुत्र सुनील से बेहतर आपको कौन यह सिखा सकता है कि एक ही जन्म में कहां-से-कहां कैसे पहुंचा जाता है? अनिल अग्रवाल से यह हुनर कौन नहीं सीखना चाहेगा कि देखते-ही-देखते धरती-पुत्र कैसे बना जाता है? बाबा कल्याणी होने को भला किसका मन नहीं करता होगा? तो अगर ऐसे-ऐसे धुरंधरों से नरेद्र भाई अब हमारे देश को धनधान्य-पूर्ण बनाने के सुझाव मांग रहे हैं तो मैं तो छह साल से लिखी जा रही उनकी ग़ज़ल के इस शेर पर दाद देते-देते ही अपने प्राण त्याग़ देना चाहता हूं। पता नहीं ऐसी मोक्षदायिनी रचना फिर कब देखने-सुनने को मिले! प्रधानमंत्री के ताज़ा प्रयास के बाद मैं तो पूरी तरह आश्वस्त हो गया हूं कि फरवरी के पहले शनिवार को जब वे अपने इस बार के बजट का तेल देश की देह पर चुपड़ेंगे तो हम सबकी जेब पर लगा शनीचर स्वयं के सिर ले लेंगे। प्रजा के सुख के लिए एक राजा द्वारा दिए जाने वाले हर बलिदान के राजधर्म से वे बंधे हुए हैं। एक प्रधान-सेवक के कर्तव्यबोघ का चरम हम उनमें साढ़े पांच साल से देख रहे हैं। उनकी प्रतिज्ञाओं पर भरोसे के सहारे ही तो हम सब यहां तक पहुंचे हैं।
इसलिए न तो नरेंद्र भाई हमें रास्ते में छोड़ कर जाएंगे और न हम उन्हें रास्ते में छोड़ कर जा सकते हैं। कभी-कभी भावावेश में व्यक्ति बहक जाता है। उन्होंने भी कह दिया था कि फ़कीर हूं और झोला उठा कर चल दूंगा। लेकिन फ़र्ज़ जब सामने हो तो कोई कैसे झोला उठा कर जा सकता है? काम अधूरा छोड़ कर जाने वालों में वे होते तो रायसीना के टीले पर कैसे पहुंच जाते? अब जब पहुच गए हैं तो काम बीच में छोड़ कर कैसे चले जाएंगे? अभी तो बहुत काम बाकी है। अभी मंदी कहां आई है, अभी तो अर्थव्यवस्था ज़रा धीमी ही पड़ी है, सो भी ‘अंतरराष्ट्रीय कारणों से’। अभी तो एक-एक को चुन-चुन कर भारत का नागरिक बनाना है। नागरिकता का रजिस्टर तैयार करना है। कश्मीर की वादियों का रंग बदलना है। देशवासियों को ऐसे संस्कार देने हैं कि सावधान तो सावधान और विश्राम तो विश्राम। अभी तो हम में-आप में बहुत जान बाक़ी है। अभी हम-आप पुतलों में कहां तब्दील हुए हैं? सो, अभी तो बहुत काम बाक़ी है।
भारतवासी भी कोई कम सिरफिरे थोड़े ही हैं। वे भी नरेंद्र भाई को बीच में छोड़ कर जाने वाले नहीं हैं। इतनी हुलस के साथ लेकर कोई इसलिए तो नहीं आए थे कि बीच धार में छोड़ कर चल दें! फिर भारतवासियों के पास तो कोई झोला भी नहीं है कि जिसे उठा कर वे चल दें! चल भी दें तो जाएं कहां? हर कोई विजय भाई, नीरव भाई, मेहुल भाई और ललित भाई तो है नहीं। हुकूमती-ज़मात का क्या? उसके लिए तो यह कहना बहुत आसान है कि जिन्हें यहां नहीं रहना, पाकिस्तान चले जाएं। इतनी बार कहने पर तो कोई भी चला जाता। मगर ग़ैरतमंद थे, इसलिए नहीं गए। भारत को पाकिस्तान नहीं बनने देना, इसलिए पाकिस्तान नहीं गए। इसीलिए क़तई नहीं जाएंगे। नरेंद्र भाई को छोड़ कर चले गए तो भारतमाता को क्या जवाब देंगे? चार साल बाद सही, कभी तो नसीब बदलेगा। हमारे न सही, नरेंद्र भाई के तो दिन फिरेंगे।
पचास-पचपन साल पहले मैं ने भी सुमित्रानंदन पंत की तरह छुटपन में छिप कर पैसे बोए थे और सोचा था कि पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे। पता ही नहीं था कि आधी सदी बीतने के बाद सपने कहां मिट जाएंगे और कब धूल हो जाएंगे? पंत जी की ही तरह मुझे भी बहुत बाद में अहसास हो रहा है कि मैं अबोध था और मैं ने ग़लत बीज बोए थे। उन्हीं की तरह मुझे भी अब लग रहा है कि इस धरती में जन की क्षमता के दाने बोने हैं, इसमें मानव-ममता के दाने बाने हैं, क्यों कि हम जैसा बोएंगे, वैसा ही पाएंगे। पांच साल पहले हमने जो बोया, सो पाया। इन पांच साल में हम जो बोएंगे, पांच साल बाद वही पाएंगे। इसलिए आज के मौसम में बुआई के बीज आप चुन लीजिए। बबूल भी विकल्प है। आम भी विकल्प है। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)