Saturday, August 21, 2021

543 से 888 नहीं, 148 कर देने का वक़्त

 

अगर कोई राज्यों में विधायकों की संख्या बढ़ाने की बात करे तो समझ में भी आए। सांसदों की संख्या बढ़ाने की बात से मुझे या तो मूर्खता की गंध आती है या फिर किसी साज़िश की बू। इससे किसी के प्रधानमंत्री बनने या बने रहने की राह भले ही हरी-भरी हो जाए, देश और देश की जनता को तो कुछ मिलने वाला है नहीं। सो, विचार करना है तो इस पर करें कि लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों की संख्या घटा कर 148 कैसे की जाए!

क्या नरेंद्र भाई मोदी तीसरी बार फिर प्रधानमंत्री बनने का अपना मंसूबा पूरा करने की खा़तिर 2024 के चुनावों में लोकसभा की सीटों की तादाद 543 से बढ़ा कर एक हज़ार या बारह सौ कर देंगे? वैसे अटल बिहारी वाजपेयी के समय 24 अगस्त 2001 को देश के संविधान में किए गए 91वें संशोधन के मुताबिक लोकसभा की सीटों में कोई भी बदलाव 2026 के पहले हो तो नहीं सकता है, मगर नरेंद्र भाई अपनी टोपी से कब कौन-सा खरगोश निकाल कर हमारे-आपके सामने रख दें, कौन जानता है?

हालांकि स्थूल बुद्धि का इस्तेमाल करने वाला हर कोई यही कह रहा है कि चूंकि लोकसभा की मौजूदा सीटों की संख्या 1971 की जनगणना के हिसाब से तय हुई थी, इसलिए अब पचास साल बाद उन्हें बढ़ाया तो जाना ही चाहिए। और-तो-और, 2019 के दिसंबर में अटल बिहारी वाजपेयी स्मृति व्याख्यान देते हुए विवेक-बुद्धि से भरपूर पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी तक ने कह दिया कि पौने 57 करोड़ की आबादी के आधार पर निश्चित की गई लोकसभा की सीटों का निर्धारण अब 135-140 करोड़ जनसंख्या के हिसाब से करना ज़रूरी है।

लेकिन मेरा मानना है कि दरअसल लोकसभा की सीटें घटा कर एक चौथाई नहीं तो कम-से-कम आधी तो कर ही देनी चाहिए। चौंकिए मत। अभी औसतन क़रीब पौने आठ लाख मतदाताओं पर एक लोकसभा सदस्य चुना जाता है। नई संसद में लोकसभा-सदन में 888 सदस्यों के बैठने का इंतज़ाम फ़िलहाल किया जा रहा है। 2019 के चुनाव में 91 करोड़ 20 लाख मतदाता थे। यानी तक़रीबन दस-ग्यारह लाख मतदाताओं पर एक सदस्य चुनने की सोच पर शायद काम हो रहा है। अगर अभी के पौने आठ लाख मतदाताओं पर एक सदस्य चुनने की बात तय हो तब तो लोकसभा में 1200 सांसद हो जाएंगे।

मगर ऐसा हुआ तो कई राज्यों को सिर्फ़ इसलिए फ़ायदा हो जाएगा कि उनकी आबादी इस बीच अच्छी-ख़ासी बढ़ गई है और उन राज्यों को नुकसान होगा, जो बेचारे जनसंख्या नियंत्रण के उपायों को ईमानदारी से लागू करने में लगे रहे। ऐसे में उत्तर प्रदेश में लोकसभा सीटें 80 से बढ़ कर 193, महाराष्ट्र में 48 से बढ़ कर 117, बिहार में 40 से बढ़ कर 94 और पश्चिम बंगाल में 42 से बढ़ कर 92 हो जाएंगी। लेकिन दूसरी तरफ़ तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, ओडिसा और केरल जैसे राज्यों में सीटें इस अनुपात में नहीं बढ़ेंगी। यह एक ऐसा झमेला है, जिसे सुलझाना आसान नहीं है। पर, मतदाताओं की संख्या के हिसाब से सीटों की संख्या तय न करें तो क्या करें? और, इस हिसाब से करें तो किसी को सु-शासन का नुकसान क्यों हो?

लेकिन इससे भी बड़ा सवाल मेरे हिसाब से तो यह है कि लोकसभा में 543 सीटें भी क्यों हों? बावजूद इसके कि कहां कितने मतदाता हैं, 28 राज्यों से सिर्फ़ पांच-पांच सांसद ही चुन कर क्यों न आएं? 8 केंद्रशासित क्षेत्रों से महज़ एक-एक सदस्य ही लोकसभा में क्यों न भेजा जाए? 543 सांसद ऐसा क्या पहाड़़ ढोते हैं, जो ये 148 सदस्य अपनी कन्नी उंगली पर नहीं उठा पाएंगे? ये सब बेकार की बातें हैं कि अमेरिका में 7 लाख की आबादी पर एक सांसद है, कनाडा में 97 हज़ार की आबादी पर एक और ब्रिटेन में 72 हज़ार पर एक तो भारत में भी आबादी ही पैमाना हो। मुझे लगता है कि यह मूढ़मति-तर्क है। इसलिए कि हमारी निर्वाचित लोकतांत्रिक संस्थाओं की व्यापकता इतनी लंबी-चौड़ी है कि दरअसल भारत में तो प्रति साढ़े तीन सौ-चार सौ की आबादी पर जनता से परोक्ष-अपरोक्ष निर्वाचित कोई-न-कोई प्रतिनिधि बैठा हुआ है। न अमेरिका में ऐसा है, न कनाडा में और न ब्रिटेन सहित यूरोप के किसी भी देश में।

इसे इस तरह समझिए। लोकसभा में 543 सदस्य चुन कर आते हैं और दो मनोनीत होते हैं। राज्यसभा में 238 सदस्य निर्वाचन के ज़रिए आते हैं और 12 नामज़द होते हैं। देश भर की विधानसभाओं में 4123 सदस्य चुने जाते हैं। छह राज्यों में विधान परिषदें हैं। उनमें 426 सदस्य निर्वाचित होते हैं। क़रीब सवा सौ महानगरपालिकाएं और नगर निगम हैं। तक़रीबन डेढ़ हज़ार नगरपालिकाएं हैं। उनमें कोई एक लाख पार्षदों को मतदाता सीधे चुनते हैं। 630 ज़िला पंचायतें हैं। 2100 नगर पंचायतें हैं। उनमें भी हज़ारों लोग चुन कर भेजे जाते हैं। 6634 मध्यवर्ती पंचायतें हैं और 2 लाख 53 हज़ार 268 ग्राम पंचायतें। राजीव गांधी द्वारा लागू किए गए पंचायती राज की इन संस्थाओं में 31 लाख से ज़्यादा पंच-सरपंच निर्वाचित होते हैं। इन सब के अलावा 6630 कृषि उपज मंडिया हैं। इनमें भी हज़ारों लोग चुन कर भेजे जाते हैं। 1650 शहरी सहकारी बैंक हैं। साढ़े 96 हज़ार ग्रामीण सहकारी बैंक हैं। इनके भी पदाधिकारियों का चुनाव होता है।

तो मेरे हिसाब से हमारे देश की विभिन्न लोकतांत्रिक संस्थाओं में कम-से-कम 35 लाख लोग निर्वाचन के ज़रिए पहुंचते हैं। किस अमेरिका, कनाडा या ब्रिटेन में लोकतंत्र का इतना व्यापक ज़मीनी आधार है? वहां पंचायती राज व्यवस्था नाम की तो कोई चीज़ ही नहीं है। निर्वाचित लोकतांत्रिक संस्थाओं का संजाल वहां राज्य-स्तर से नीचे आमतौर पर है ही नहीं। बड़े शहरों की परिषदों को छोड़ दें तो पूरे-के-पूरे मैदान में जनतांत्रिक निर्वाचन का सन्नाटा पसरा हुआ है। चूंकि सारा काम वहां मूलतः देश की संसद करती हैं, सो, उन्हें लगता है कि इतनी आबादी पर उनका एक प्रतिनिधि वहां होना चाहिए।

लेकिन भारत की संसद में ऐसा क्यों हो? यह क्या दलील हुई कि एक सांसद 10 पंदह लाख, बीस लाख या पच्चीस लाख की आबादी का ख़्याल कैसे रख सकता है? मुझे बताइए, उसे लोकसभा सदस्य के नाते अपने क्षेत्र के लोगों का ख़्याल रखना ही क्या है? शहरों और कस्बों की पानी, बिजली, खड़ंजे के लिए निर्वाचित पार्षद, नगर पालिका अध्यक्ष और मेयर हैं। बाकी प्रशासनिक मसलों और सिंचाई, शिक्षा, स्वास्थ्य और दूसरी विकास योजनाओं की देखभाल के लिए विधायक, मंत्री और मुख्यमंत्री हैं। किसानों की उपज, खाद, बीज, वगै़रह के इंतजाम के लिए कृषि मंडिया हैं। ऋण वग़ैरह की सहूलियतें देने के लिए छोटे-बड़े सहकारी बैंक हैं। यह सारा ज़िम्मा निभाने वाले लोग निर्वाचित होते हैं। प्रशासनिक अमले की निगरानी भी उन्हीं का काम है। जितने धरती-पकड़ वे सब हैं, कौन-सा लोकसभा सदस्य हो सकता है?

इसलिए मेरे मत में तो लोकसभा की सदस्यता फालतू की चौधराहट है। हां, लेकिन लोकसभा इसलिए होनी चाहिए कि उसे समूचे देश के लिए संवैधानिक क़ानून बनाने होते हैं; सुरक्षा, अंतरराष्ट्रीय संबंध और वित्त-व्यवस्था जैसी राष्ट्रीय नीतियां रचनी होती हैं; और, संघीय गणराज्य को एक सूत्र में पिरोए रखने की भूमिका निभानी होती है। लेकिन लोकसभा में प्रतिनिधित्व का किसी राज्य की आबादी और वहां मतदाताओं की तादाद से क्या अंतःसंबंध है? जब केंद्र और राज्य के विषय स्पष्टतौर पर बंटे हुए हैं तो स्थानीय आबादी का तालमेल सांसद से होना चाहिए या विधायक, पार्षद, सरपंच आदि से? अगर कोई राज्यों में विधायकों की संख्या बढ़ाने की बात करे तो समझ में भी आए। सांसदों की संख्या बढ़ाने की बात से मुझे या तो मूर्खता की गंध आती है या फिर किसी साज़िश की बू। इससे किसी के प्रधानमंत्री बनने या बने रहने की राह भले ही हरी-भरी हो जाए, देश और देश की जनता को तो कुछ मिलने वाला है नहीं। सो, विचार करना है तो इस पर करें कि लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों की संख्या घटा कर 148 कैसे की जाए! (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)

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