राहुल गांधी को मैं पहले भी फॉलो करता था, अब भी करता हूं और जब तक हूं, करता रहूंगा। क्योंकि उन में दम है। मैं उनकी ज़्यादातर बातों से सहमत हूं, लेकिन बहुत-सी बातों से नहीं। मैं उनके कर्मकांड के ज़्यादातर आयामों से सहमत हूं, लेकिन हर पहलू से नहीं। मुझे लगता है कि उन्हें स्वयं में, अपने आसपास की संरचना में और कांग्रेस के सांगठनिक ढांचे में कई संशोधन करने की ज़रूरत है। लेकिन उन्हें फ़ॉलो करने में मुझे तो इस से कोई विरोधाभास नहीं लगता। फॉलो करने का मतलब दंडवत-सहमति कहां से हो गया?
कांग्रेस को ट्विटरमयी होने की ज़रूरत तो है, लेकिन ट्विटर के आगे जहॉ और भी हैं। पिछले तीन-चार दिनों से राहुल की अनुगमन-सूची राष्ट्रीय मीडिया के विमर्श का मसला जिस तरह बनी हुई है, वह मौजूदा मीडिया के बौद्धिक स्तर की प्रतिच्छाया है। लेकिन यह आभासी-जगत पर इस कदर आश्रित हो गए राजनीतिक दलों पर भी तो निरावृत्त टिप्पणी है। सोचिए ज़रा!
मैं भी उन तक़रीबन चार दर्जन लोगों में हूं, जिन्हें दोबारा कांग्रेस-अध्यक्ष बनने में हीले-हवाली कर रहे पूर्व कांग्रेस-अध्यक्ष राहुल गांधी, बुधवार की शाम सूर्यास्त होने से पहले तक ट्विटर पर फ़ॉलो किया करते थे, और अब अनफ़ॉलो कर दिया है। 1 करोड़ 88 लाख 91 हज़ार 301 की फ़ॉलोअर-संख्या वाले राहुल ख़ुद देश-दुनिया के कोई पौने तीन सौ लोगों को ही फ़ॉलो करते थे, जो अब 219 ही रह गए हैं; सो, जब उन्होंने मुझे फ़ॉलो करना शुरू किया था तो ज़ाहिर है कि मुझे इस से ख़ुशी हुई। मगर अब जब उन्होंने बाक़ियों के साथ मुझे अनफ़ॉलो कर दिया है तो इस से मैं कई दूसरों की तरह कोई ग़म के सागर में नहीं डूब गया हूं।
मैं भी सिर्फ़ 414 लोगों को ही फॉलो करता हूं। मेरे फ़ॉलोअर भी बित्ते भर हैं-महज़ 10 हज़ार 883। उन में बहुत नामी-गिरामी लोग भी नहीं हैं। चार-छह होंगे। अब एक कम हो गया। मगर इतना ज़रूर है कि जो मुझे फ़ॉलो करते हैं, उनमें दम है। वे आंकड़ा भर नहीं हैं। मैं भी जिन्हें फॉलो करता हूं, वे भी दमदार हैं। वे भी महज़ गिनती ही नहीं हैं। राहुल गांधी को मैं पहले भी फॉलो करता था, अब भी करता हूं और जब तक हूं, करता रहूंगा। क्योंकि उन में दम है। मैं उनकी ज़्यादातर बातों से सहमत हूं, लेकिन बहुत-सी बातों से नहीं। मैं उनके कर्मकांड के ज़्यादातर आयामों से सहमत हूं, लेकिन हर पहलू से नहीं। मुझे लगता है कि उन्हें स्वयं में, अपने आसपास की संरचना में और कांग्रेस के सांगठनिक ढांचे में कई संशोधन करने की ज़रूरत है। लेकिन उन्हें फ़ॉलो करने में मुझे तो इस से कोई विरोधाभास नहीं लगता। फॉलो करने का मतलब दंडवत-सहमति कहां से हो गया?
ऐसे फ़ॉलो तो मैं, सात बरस से पूरे देश को पाषाण-युग में ले जाने की जी-तोड़ कोशिश कर रहे, नरेंद्र भाई मोदी को भी करता हूं। उनके अश्वेत साए अमित भाई शाह को भी मैं फ़ॉलो करता हूं। क्या इसका मतलब यह है कि मैं उनका अनुगामी हूं? उनका अनुचर हूं? तो किसी को फ़ॉलो करने का अर्थ उसका समर्थक होना तो है नहीं। इसलिए जब मैं ने देखा कि राहुल ने क़रीब पचास लोगों को अनफ़ॉलो कर दिया है तो मुझे समझ ही नहीं आया कि हंसूं कि रोऊं? जब राहुल ने इन लोगों को फ़ॉलो किया था तो क्या सोच कर किया था? जब उन्हें अनफ़ॉलो कर दिया तो इसके पीछे कौन-सी समझ काम कर रही है? सो, यह जानते हुए भी कि सारा खेल ही सोच-समझ का है, इस क़दम के पीछे किस की कौन-सी रणनीतिक सोच या अकादमिक समझ काम कर रही है, मैं तो समझ नहीं पा रहा।
बावजूद इसके, जैसे मेरे ट्विटर हैंडल पर मेरी मर्ज़ी है कि मैं जिसे जब चाहूं फॉलो करूं और जब चाहूं अनफ़ॉलो कर दूं, वैसे ही इसी स्वतंत्रता का हक़ राहुल को क्यों न हो? अब अगर उन्होंने बरखा दत्त, निधि राज़दान, राजदीप सरदेसाई, हर्षमंदर, हंसराज मीना, प्रतीक सिन्हा, संयुक्ता बसु, निखिल अल्वा, कुणाल कामरा, कौशल विद्यार्थी, अलंकार सवाई, बायजू, वग़ैरह को अनफ़ॉलो कर दिया तो इस पर इतना बवाल क्यों होना चाहिए? इसमें किसी को इतना अपमानित महसूस करने की क्या जरूरत है कि कहने लगे कि चूंकि मैं आलोचना करता/करती हूं, इसलिए मुझे अनफ़ॉलो किया है और इस से ही अंदाज़ लगा लो कि मीडिया से कांग्रेस के संबंधों में क्या बुनियादी ख़ामियां हैं और राजनीति के वृहद क्षितिज पर भी पार्टी की हालत ऐसी क्यों है? अरे, यह क्या बात हुई कि राहुल अगर ट्विटर पर मुझे फ़ॉलो करें तब तो मैं उन्हें नरेंद्र भाई का विकल्प मानूंगा और अगर अनफ़ॉलो कर देंगे तो वे विपक्ष की अगुआई के अयोग्य हो जाएंगे?
अपने को बहुत चुस्त-चौकन्ना समझने वाले मीन-मेखिए राहुल के ट्विटर-खाते के प्रबंधन पर यह सवाल ज़रूर उठा सकते हैं कि हैं अब भी जिन लोगों को फ़ॉलो किया जा रहा है, उनमें पिछले साल के नवंबर में स्वर्गवासी हुए अहमद पटेल और तरुण गोगोई के नाम क्यों हैं, दिसंबर में अलविदा हुए मोतीलाल वोरा क्यों मौजूद हैं, इसी साल मई के तीसरे हफ़्ते में हमारे बीच से हमेशा के लिए चले गए युवा सांसद राजीव सातव का नाम कैसे है और पिछले बरस अप्रैल में जन्नतनशीं हुए युवा अभिनेता इरफ़ान तक को भी राहुल एक साल बाद तक भी क्यों फ़ॉलो कर रहे हैं? लेकिन मेरा सवाल है कि अगर कोई अपनी संवेदनाओं के चलते स्वर्गवासियों को भी ट्विटर-सूची में बने रहने देना चाहता हो तो आप को क्या है?
अब क्या यह भी हम-आप तय करेंगे कि जब राहुल गांधी कांग्रेस के बड़े-बड़े दिग्गजों तक को अपने ट्विटर का फॉलो-अमृत वितरित नहीं करते हैं तो बिहार के चुनाव में कांग्रेस की भद्द पीट देने वाले शक्तिसिंह गोहिल को यह सुख क्यों प्राप्त है? असम में चुनावी रणनीति की ख़ामियों के लिए जिन जितेंद्र सिंह अलवर पर 10 मई को हुई कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में तीखी बौछार हुई, राहुल उन्हें फ़ॉलो क्यों करते हैं? पुदुचेरी में कांग्रेस का भट्ठा बैठा देने वाले वी. नारायणसामी में ऐसे क्या लाल टंके हैं कि वे उनकी फ़ॉलो-सूची से बाहर नहीं हो रहे हैं? पंजाब में कांग्रेस की सरकार के लिए कांटे बिछाने का मूल-कर्म करने वाले प्रताप सिंह बाजवा को राहुल का अनुगमन-अलंकरण कैसे मिला हुआ है?
अगर राहुल यह सोचते हैं कि अपने ही सचिवालय के सहयोगियों को भी क्या ट्विटर पर फ़ॉलो करना, तो मुझे उनकी इस सोच में कोई बुराई नज़र नहीं आती है। मगर अगर कौशल विद्यार्थी जैसे ज़हीन कवि-छायाकार और अंतरराष्ट्रीय बैंकिंग व्यवस्था की बारीकियों के जानकारी अलंकार सवाई इस नीति का शिकार हुए हैं तो पार्टी के मीडिया विभाग के पार्श्व-कक्ष में लघु-सहयोगी की भूमिका में बैठे दो चेहरों को फॉलो करते रहने की राहुल में इतनी ललक क्यों है? इनमें से एक ने पार्टी की तरफ़ से पिछले 8 साल में औसतन हर रोज़ सिर्फ़ दो ट्वीट किए हैं और दूसरे ने पांच।
राहुल अपने ट्विटर पर किसी का भी अनुगमन करें-न-करें, यह किसी भी बहस का मुद्दा नहीं हो सकता। हां, इतना ज़रूर है कि राहुल चूंकि एक बड़ी राजनीतिक हस्ती हैं, वे कांग्रेस के अध्यक्ष थे और उन्हें कांग्रेस के भावी-अध्यक्ष के तौर पर अब भी देखा जाता है, इसलिए ट्विटर जैसे सार्वजनिक माध्यम पर उन्हें अपनी अनुगमन-सूची तैयार करते वक़्त ज़िम्मेदारी और सावधानी से काम लेना चाहिए। इसलिए, अब जब इतने लोगों को राहुल ने अपने ट्विटर-बरामदे से विदा कर ही दिया है तो उनकी मौजूदा सूची की शोभा बढ़ाने का काम अगर दो नाम और न करें तो इस से कांग्रेस को पुण्य ही मिलेगा। एक, केशवचंद्र यादव और दूसरा फ़ैरोज़ ख़ान। सब जानते हैं कि 2019 की जुलाई में यादव को युवा कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा क्यों देना पड़ा था और 2018 के अक्टूबर में ख़ान को एनएसयूआई के अध्यक्ष पद से क्यों हटाया गया था। सो, उन्हें दो-दो ढाई-ढाई साल बाद अब तक फ़ॉलो करते रहने में कोई तुक मुझे तो समझ नहीं आती।
कांग्रेस को ट्विटरमयी होने की ज़रूरत तो है, लेकिन ट्विटर के आगे जहॉ और भी हैं। पिछले तीन-चार दिनों से राहुल की अनुगमन-सूची राष्ट्रीय मीडिया के विमर्श का मसला जिस तरह बनी हुई है, वह मौजूदा मीडिया के बौद्धिक स्तर की प्रतिच्छाया है। लेकिन यह आभासी-जगत पर इस कदर आश्रित हो गए राजनीतिक दलों पर भी तो निरावृत्त टिप्पणी है। सोचिए ज़रा! (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक हैं।
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