माघ महीने के कृष्ण पक्ष की इस अमावस्या को घटी दो घटनाओं ने भारतीय राजनीति में जनतंत्र की चिरंतन पूर्णिमा के चांद की कांति बढ़ाने का काम किया है। और, उसी दिन घटी एक घटना ने अमावस की कालिमा को और गहरा कर दिया है। कई बार घटनाएं जब घटती हैं, उनका रेखांकन उस वक़्त ठीक से नहीं हो पाता है। बल्कि बहुत बार उन्हें जानबूझ कर दिमाग़ों से बाहर हकाल दिया जाता है और तब यह अहसास ही नहीं होता है कि वे कितने गहरे तक पैठ गई हैं। यह तो जब समय आने पर उनकी परछाईं दनदनाती हुई लौटती है, तब पता चलता है कि बीज बरगद कैसे बनते हैं!
इस बृहस्पतिवार को मौनी अमावस्या थी। उस दिन सियासी पूनम का ओज चौगुना करने वाला काम राहुल गांधी ने संसद में किया। लोकसभा में बजट पर होने वाली बहस में हिस्सा लेते हुए उन्होंने सरकार को आग़ाह किया कि वह किसान आंदोलन की अनदेखी कर के बड़ी भूल कर रही है और अब यह आंदोलन सिर्फ़ किसानों का नहीं रह गया है, पूरे देश का आंदोलन बन गया है। बहुत पुरज़ोर तरीके से यह मसला उठाने के बाद राहुल ने किसान आंदोलन में प्राण गंवाने वाले दो सौ से ज़्यादा किसानों को श्रद्धांजलि देने के लिए सबसे खड़े हो कर मौन रखने का आग्रह किया। विपक्ष के सदस्य खडे हुए। सत्तापक्ष के बैठे रहे। न सिर्फ़ बैठे रहे, शोर मचा कर श्रद्धांजलि का विरोध करते रहे। यह तसवीर मुल्क़ के मन पर चस्पा हो गई है।
लोकसभा अध्यक्ष की शक़्ल पर किंकर्तव्यविमूढ़ता के भाव थे। उसके बाद वे विपक्ष पर कम, सत्ता पक्ष पर ज़्यादा झल्लाते। फिर उन्होंने विपक्ष की तरफ़ मुख़ातिब हो कर कहा कि अगर सदन में किसी को श्रद्धांजलि देनी है तो बेहतर होता कि उनसे आग्रह किया जाता और वे फ़ैसला लेते। मगर राहुल अपना काम कर चुके थे। जब ढाई महीने में सरकार को किसानों की आह सुनाई तक नहीं दी तो राहुल भी और क्या करते? चार दशक से पत्रकार के नाते मैं संसद की कार्यवाही कवर कर रहा हूं। मैं ने तो ऐसी अद्भुत आदरांजलि संसद में पहली बार देखी। आप राहुल की इस संवेदना को सियासी कह सकते हैं, मगर जब कोई सरकार मृतात्माओं को श्रद्धांजलि देने में भी भेदभाव की नीयत से काम लेने लगे तो संसदीय परंपराओं की याद दिलाने के लिए हुए ऐसे हस्तक्षेप का स्वागत किया जाना चाहिए। संसद में राहुल समेत समूचे विपक्ष का मौन, आप देखना, वक़्त आने पर, पूरे देश का मौन ऐसे तोड़ेगा कि उसके शोर के बहाव में सारा कूड़-करकट बह जाएगा।
भारतीय राजनीति को एकलवाद के पंजे से मुक्त कराने के अभियान की दूसरी अहम घटना मौनी अमावस को प्रयाग के संगम पर घटी। वहां प्रियंका गांधी ने स्नान की डुबकी लगा कर अपने दाहिने हाथ की कलाई से लिपटी रुद्राक्ष की माला के साथ जब अंजुरी भर कर अर्ध्य सूर्य भगवान को चढ़ाया तो जैसे एक नई रश्मि-रथी ने आकार लिया। उस समय छह ग्रह-शनि, बृहस्पति, सूर्य, शुक्र, बुध और चंद्रमा-मकर राशि में थे। ऐसा 59 साल बाद हो रहा था। काल-गणना के मर्मज्ञ इसका महत्व बेहतर जानते हैं। मगर हिमालय की गुफ़ा में बैठे एक चरम-सियासी व्यक्ति की तपस्या-मुद्रा पर उछल-कूद मचाने वाले, प्रियंका के संगम-स्नान में, अध्यात्म का दर्शन करने वाली आंखें भला कहां से लाएंगे? इस प्रतीक-आचमन के जल की बूंदों ने जन-मन को किस तरह भिगो दिया है, इसका अंदाज़ नकारात्मक सियासत के अनुचरों को अगले बरस चैत्र की नवरात्रि में होगा। तब उत्तर प्रदेश की विधानसभा के लिए चुनाव प्रचार पूरे उफ़ान पर पहुंच चुका होगा।
आसमान को और धूसर बना देने वाला एक कारनामा भी इस मौनी अमावस को हुआ। हुंकार भर-भर कर, ताल ठोक-ठोक कर और भुजाएं फड़फड़ा-फड़फड़ा कर दूसरों के घर में घुस कर मारने वाले, अपने घर की ज़मीन ख़ुद-ब-ख़ुद हवाले करने के लिए, इस बृहस्पतिवार को ख़ामोशी का काला कंबल ओढ़ कर चीनी-चंपू बन गए। उन्होंने भारत-चीन सरहद पर पेंगोंग में तैनात भारतीय फ़ौज को फ़िंगर-4 से फ़िंगर-3 पर लौटने को कह दिया। कैलाश पर्वत श्रेणी की ऊंचाइयों से भी सेना को नीचे आने का हुक़्म दे दिया। उन सैन्य विशेषज्ञों की कौन सुनता, जो कहते रहे कि कैलाश पर्वत श्रेणी को खाली कर देना 55 साल पहले हुई उसी भूल की तरह साबित होगा, जो हमने हाज़ी पीर के दर्रे से वापस आ कर की थी। हमारे भले-मानुस प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री तब पाकिस्तान के अयूब ख़ान की बातों से सोवियत-मध्यस्थ कोसिगिन की मौजूदगी में क्यों मुतमईन हो गए थे, कौन जाने? मगर आज के हमारे खाड़कू प्रधानमंत्री चीन के सामने क्यों नतमस्तक हो गए, वे ही जानें! बहरहाल, चीन से हमारे सीमा विवाद के इस शोक-पत्र की इबारत का नश्तर भी भारतमाता के दिल में भीतर तक उतर गया है। समय आने पर क्या इस दर्द की हूक उठे बिना रह पाएगी?
इसलिए इस बार की मौनी अमावस के सुख-दुख की टहनियों पर अगले तीन-साढ़े तीन बरस में लगने वाले पत्तों पर निग़ाह रखिएगा। इन फुनगियों पर खिलने वाले फूलों के रंगों की मीमांसा मन-ही-मन करते रहिएगा। फूल तो जूही के भी उगेंगे और कनेर के भी, गुड़हल के भी उगेंगे और धतूरे के भी। क्योंकि बीज तो दोनों ही क़िस्म के बोए गए हैं। तय तो हमें-आपको करना होगा कि हम किन फूलों से किसका कैसा श्रंगार करेंगे। जो संसद, संगम और सरहद के मसलों को सामाजिक संवेदनाओं का हिस्सा मानने को तैयार नहीं हैं, वे भोले-भाले नहीं हैं, लोकतंत्र के लंपट हैं। उनकी चले तो जम्हूरियत के सारे लिबास तार-तार कर दें। उनकी चले तो प्रजातंत्र की सिसकियों को पूरी तरह दफ़न कर दें। वे इसीलिए तिलमिलाए हुए हैं कि उनकी पूरी तरह चल नहीं पा रही है।
कुछ सवाल ऐसे हैं, जो पूरा देश अपने आज के हुक़्मरानों से करना चाहता है। मुल्क़ इंतज़ार कर रहा है कि उसका सामना एक रोज़ तो अपने सुल्तानों से होगा ही। और, जिस दिन यह होगा, वह क़यामत का दिन होगा। उस दिन सारी रूहें अपनी-अपनी क़ब्रों से बाहर आएंगी। उस दिन सभी को हश्र के मैदान में जाना होगा। उस दिन सभी के आमाल तोले जाएंगे। उस दिन नेकियों और ग़ुनाहों का हिसाब होगा। उस दिन वक़्त करवट लेगा। सो, इस करवट की अग्रिम अंगड़ाइयों पर जो ग़ौर नहीं कर रहे हैं, वे किसी और को नहीं, स्वयं को गफ़लत में रख रहे हैं।
रात-दिन ‘चित्रगोटी, मिट्ठू-मिट्ठू, राम-राम’ रटते रहने वाले अपने पिंजरों को सोने का भले बनवा लें, मगर खुले आसमान का उछाह उन्हें क्या मालूम? तरह-तरह के कुतर्कों के सहारे भारतीय समाज को पलटन में तब्दील कर उसका एकमार्गीकरण करने की जो कोशिशें पिछले साढ़े-छह सात साल में हुई हैं, वे हमारे लोकचरित मानस के पन्नों पर बदनुमा दाग़ हैं। ये धब्बे धोने का उपक्रम अगर अब भी आरंभ नहीं हुआ तो हमारी आने वाली पीढ़ियां ऐसे उपनिषदों का अध्ययन कर अपनी राहें तय करेंगी, जिनमें लोकाचार, राज्य-व्यवस्था, नेतृत्व-गुण और राजधर्म के विलोम पाठ दर्ज़ होंगे। ऐसा हुआ तो कहीं अयोध्यावासी ‘कौन दिशा में ले के चला रे बटोहिया’ गुनगुनाते-गुनगुनाते सोने की लंका के पीछे तो नहीं चल पड़ेंगे? अगर आपको इसकी चिंता नहीं है तो आराम से चादर तान कर सोते रहिए। लेकिन अगर आपको भीतर से कोई फ़िक्र कचोट रही है तो अलार्म को बार-बार बंद मत कीजिए और बिछौना छोड़ कर उठ खड़े होइए। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक हैं।)
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