सियासी-भेड़ों का ऐसा रेवड़ भारत की राजनीति में पहले कभी नहीं देखा गया। सत्तासीन राजनीतिक दल के मुखियाओं की दादागिरी के दौर पहले भी आए, लेकिन सन्नाटे का ऐसा दौर पहले कभी नहीं आया था। सत्तारूढ़ दल की अगुआई कर रही शक़्लों की सनक पहले भी कुलांचे भरती रही है, मगर बेकाबू होती टांगों को मरोड़ने वाली मुट्ठियां भी कहीं-न-कहीं से उग आया करती थीं। यह पहली बार हो रहा है कि रायसीना-पहाड़ी पर बैठे एक बेहृदय-सम्राट की मनमानी को पूरा सत्तारूढ़ दल इस तरह टुकुर-टुकुर देख रहा है। इस बेतरह सहमे हुए समूह का इतना भी साहस नहीं हो रहा है कि कम-से-कम मिमियाने ही लगे।
आज़ादी के बाद क़रीब सत्रह साल प्रधानमंत्री रहे जवाहरलाल नेहरू के बारे में, और आप कुछ भी कह लें, उन्हें ग़ैर-लोकतांत्रिक कोई नहीं कह सकता। सो, देश में और उस दौर के सत्तासीन दल कांग्रेस के भीतर असहमित के स्वरों के प्रति सम्मान का शायद वह स्वर्ण-काल था। सब जानते हैं कि नेहरू को प्रधानमंत्री बनाने के लिए सर्वसम्मति नहीं थी। भारत को आज़ादी मिलने के आसार 1946 आते-आते पूरी तरह साफ़ हो गए थे। यह भी तय था कि आज़ाद भारत की पहली सरकार बनाने के लिए कांग्रेस के अध्यक्ष को आमंत्रित किया जाएगा। सो, 1946 में कांग्रेस-अध्यक्ष का चुनाव ख़ासा महत्वपूर्ण हो गया था। मौलाना अबुल क़लाम आज़ाद 1940 के रामगढ़ अधिवेशन में कांग्रेस-अध्यक्ष चुने गए थे और तमाम सियासी हालत के चलते छह बरस से अपने पद पर बने हुए थे। 1946 के चुनाव में वे फिर उम्मीदवार बनना चाहते थे।
महात्मा गांधी चाहते थे कि नेहरू अध्यक्ष बनें। बाक़ी बहुत-से लोग सरदार वल्लभ भाई पटेल को अध्यक्ष बनाने के पक्ष में थे। 24 अप्रैल कांग्रेस-अध्यक्ष पद, और एक तरह से कहें कि भारत का पहला प्रधानमंत्री बनने के लिए, नामांकन दाख़िल करने की अंतिम तारीख़ थी। उस वक़्त प्रदेश कांग्रेस समितियों पार्टी-अध्यक्ष के लिए किसी को नामित किया करती थीं। 15 में से 12 प्रदेश समितियों ने पटेल को नामित किया। बाक़ी 3 ने अपने को नामांकन की प्रक्रिया से अलग रखा। यानी पटेल कांग्रेस के अध्यक्ष बन ही गए थे, लेकिन गांधी जी के हस्तक्षेप के बाद उन्होंने अपने को दौड़ से अलग कर लिया और नेहरू अध्यक्ष बने। अब ऐसे में सामान्य तौर पर होता तो यह कि अपनी राह में रोड़ा बनने वालों का नेहरू वही हाल करते जो नरेंद्र भाई मोदी ने 2014 की उनकी राह में अड़ंगा डालने वाले लालकृष्ण आडवाणी, इत्यादि का किया। मगर नेहरू एक तो ख़ुद राजनीतिक-आततायी नहीं थे और फिर वे कांग्रेस की भीतरी तासीर से भी अच्छी तरह वाक़िफ़ थे। जानते थे कि कांग्रेसी इतने भी गऊ नहीं हैं। नेहरू पर अंकुश लगाने की हैसियत रखने वाले महात्मा गांधी आज़ादी के एक बरस बाद ही नहीं रहे और पटेल भी आज़ादी के तीन साल बाद ही चल बसे। ऐसे में नेहरू निरंकुश हो सकते थे, लेकिन यह तत्व उनकी जन्मघुट्टी में था ही नहीं।
इंदिरा गांधी दो चरणों में क़रीब 16 साल प्रधानमंत्री रहीं। बीच में क़रीब सवा दो साल मोरारजी देसाई ने यह कुर्सी संभाली। दोनों अपनी-अपनी तरह के अकड़ू माने जाते रहे हैं। इंदिरा जी को तो आपातकाल की वज़ह से लोकतंत्र को कुचलने वाला, तानाशाह, वग़ैरह-वग़ैरह कहने में किसी ने कभी कोई कसर नहीं रखी और उनके बेटे संजय के सच्चे-झूठे चंगेज़ी क़िस्सों से तो सियासी चंडूखाना सराबोर रहा है। मगर ऐसी मर्दाना इंदिरा गांधी को भी चुनौती देने वाले चंद्रशेखर और मोहन धारिया जैसे युवा तुर्कों की कांग्रेस के भीतर कभी कमी नहीं थी। आपातकाल में विपक्ष ही नहीं, कांग्रेस के भी हज़ारों लोगों को मीसा-क़ानून में जेल भेजा गया था। यानी इंदिरा जी से खुलेआम असहमत लोग कांग्रेस के भीतर थे और अपनी आवाज़ बुलंद करते थे। उच्छ्रंखल हो रहे संजय की लगाम कसने के लिए तब इंद्रकुमार गुजराल जैसे कई लोगों ने पार्टी और सरकार के भीतर क्या-क्या जोख़िम नहीं उठाए थे?
ज़िद्दी मोराजी देसाई की नकेल उनके प्रधानमंत्री-काल में ढीली नहीं छोड़ने के लिए जनता पार्टी के भीतर चरण सिंह, राजनारायण, मधु लिमये, कृष्णकांत और जॉर्ज फर्नांडिस जैसे नेताओं की कमी नहीं थी। लोकसभा में सवा चार सौ सीटों के बहुमत पर सवार हो कर पहंुचे राजीव गांधी तक के पांवों में अगर कोई लचक आई तो कांग्रेस के भीतर कमलापति त्रिपाठी, प्रणव मुखर्जी और आरिफ़ मुहम्मद ख़ान से ले कर विश्वनाथ प्रताप सिंह तक कइयों ने बिगुल बजाने में कोई कोताही नहीं की। मुझे वे दिन भी याद हैं, जब अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री-दौर में ब्रजेश मिश्रा, एन. के. सिंह और रंजन भट्टाचार्य की तिकड़ी से परेशान लालकष्ण आडवाणी, अरुण जेटली, सुषमा स्वराज और नरेंद्र भाई मोदी अटल जी के खि़लाफ़ खुल कर अपनी असहमति ज़ाहिर किया करते थे। सरकार और कांग्रेस के भीतर प्रधानमंत्री पी. वी. नरसिंहराव की नाक में दम करने का काम अर्जुन सिंह, पी़ राममूर्ति, शीला दीक्षित, माधवराव सिंधिया और नारायण दत्त तिवारी से ले कर राजेश पायलट और कल्पनाथ राय तक ने किस तरह किया, यह कौन नहीं जानता? मनमोहन सिंह को तो उनके प्रधानमंत्री-दौर में प्रणव मुखर्जी और अर्जुन सिंह के अलावा ख़ुद राहुल गांधी किस तरह गरियाते रहे, सब ने देखा ही है।
इन सभी प्रधानमंत्रियों के शासन-काल में उठे असहमति के घनघोर स्वरों को कोई किसी भी तरह ले, मैं इन्हें सियासत की खूसट ज़मीन पर जनतांत्रिक पंखुड़ियों की बारिश मानता हूं। बरसात की ये फुहारें पिछले सात बरस से सूखी हुई हैं। उन्हें सुखाने के लिए होने वाले प्रपंच आपने देखे हैं। लेकिन ऐसे प्रपंच क्या पहले नहीं होते होंगे? इतनी बेमुरव्वती से न सही, होते तो ज़रूर होंगे। मगर तब दस-बीस बूंदें तो फिर भी आसमान में आकार ले ही लेती थीं। तो क्या आजकल वह वाष्प ही उठनी बंद हो गई है, जिससे इस बारिश की बूंदों का जन्म होता है? अगर ऐसा है तो देश तो अपने सबसे दुर्भाग्यपूर्ण दौर से गुज़र ही रहा है, सत्तासीन भारतीय जनता पार्टी भी अपने को सौभाग्यवती न समझे। अगर कोई भी आंच अब उसकी देगची को खदकाने लायक नहीं बची है तो समझ लीजिए कि भाजपा उस हिमयुग के मुहाने पर खड़ी है, जिसमें प्रवेश करते ही उसका जीवित बदन मृत मोमियाई ममी में तब्दील हो जाएगा। जब भीतर का स्पंदन इतनी चुप्पी साध लेता है कि किसी भी क्रंदन का उस पर कोई असर होना बंद होने लगे तो समझ लीजिए कि बैकुंठधाम की यात्रा आरंभ हो गई है।
नरेंद्र भाई के राज में भाजपा और सरकार के भीतर पसरा पड़ा सन्नाटा अशुभ लक्षण है। जब पूरा मुल्क़ ख़दक रहा है, तब संघ-घराने के जो क्षेत्रपाल असलियत से जानबूझ कर नज़रें चुरा रहे हैं, वे न राष्ट्रवादी हैं न संस्कारवान। वे अपने मूल-संस्कारों से दूर हो गए हैं। भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वे अर्थवान पुरोधा, जिन्होंने चीज़ें हद से बाहर हो जाने पर भी असहमत होना बंद कर दिया है; देश का तो जो कर रहे हैं, कर ही रहे हैं; भाजपा को भी क़ब्रग़ाह की तरफ़ तेज़ी से ठेल रहे हैं। आज आपको मेरी बात में तरह-तरह की बू आएगी, लेकिन मेरी यह बात कहीं लिख कर रख लीजिए कि भाजपा की झील के जल का उबलना जिन्हें न देखना हो, न देखें, मगर ऐसा ही चलता रहा तो इस साल की दीवाली के बाद सूनामी आने वाली है। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक हैं।)
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