लोक-दबाव अगले दो साल में ऐसे हालात बनाएगा-ही-बनाएगा कि विपक्ष की बिखरी डालियां जटाधारी बरगद की शक़्ल लें। इस बरगद का तना कितना मज़बूत होगा, कितना नहीं, यह मायने नहीं रखता। मायने सिर्फ़ यह बात रखेगी कि एक एकजुट विपक्षी झुरमुट सियासत के बियाबान में अंततः उग आया है और नरेंद्र भाई को उसके बीच से गुज़र कर जाना है। इतना भर भी हो गया तो आसमान का रंग बदल जाएगा। इतना भर भी हो गया तो एक बार तो धरती करवट ले ही लेगी।
कल भारत को अंग्रेज़ों से आज़ाद हुए जब 74 साल पूरे हो जाएंगे तो 75 वें प्रवेश के मौक़े पर हमारे मौजूदा प्रधानमंत्री लालकिले से, ज़ाहिर है कि, कोई नई हुंकार भरे बिना मानेंगे नहीं। इस हुंकार में आने वाले दिनों के लिए वादों का गुलाबी गुब्बारा होगा, अब तक किए-कराए का स्वयं-शाबासी ठहाका होगा और इस पारंपरिक झींक का धूसर किस्सा होगा कि कैसे उन 60 बरस में देश में कुछ नहीं हुआ, जब जनसंघ-भारतीय जनता पार्टी केंद्र की सरकारों में नहीं थी और जो हुआ, तब-तब ही हुआ, जब-जब गुरु गोलवलकर और दीनदयाल उपाध्याय के रणबांकुरों ने सत्ता संभाली, उसमें भागीदारी की या उसे बाहर से समर्थन दिया।
74 साल में क़रीब सवा पंद्रह साल हिंदू-रक्षक केंद्र की सत्ता के भागीदार रहे हैं। अपूर्ण क्रांति को संपूर्ण क्रांति बता कर 1977 से 1979 के बीच केंद्र की सरकार में आए राजनीतिक दलों में भारतीय जनता पार्टी का पूर्वज-दल भारतीय जनसंघ शामिल था। फिर 1989-90 के बीच बनी विश्वनाथ प्रताप सिंह की 343 दिन चली सरकार की कुर्सी के पायों को एक तरफ़ से भाजपा और दूसरी तरफ़ से वाम-दलों ने बाहर से संभाल रखा था। इसके बाद मई 1996 में अटल बिहारी वाजपेयी की 16 दिनों वाली ऐतिहासिक सरकार बनी। दो साल बाद 1998 में वाजपेयी फिर प्रधानमंत्री बने और कोई सवा छह साल टिके रहे। और, अब 2014 से नरेंद्र भाई मोदी अंगद-आसन जमाए हुए हैं। सवा सात साल हो गए हैं। कोई कुछ कहे, पौने तीन साल तो उन्हें अभी अपनी गोद में धमाचौकड़ी मचाने से ख़ुद भारतमाता भी नहीं रोक सकती हैं।
तो 2024 के चुनाव जब आएंगे, तब तक हिंदू हृदय सम्राटों को मुल्क़ की हुक़ूमत चलाते 18 साल हो जाएंगे। जिन्होंने अब तक के सवा पंद्रह साल तो छोड़िए, सिर्फ़ इन सवा सात साल में हमें इतना दे दिया, कि बाकी सब मिल कर 60 साल में नहीं दे पाए, सोचिए कि अगर कहीं उनके पैर चौबीस के बाद भी जमे रहे तो हम कहां-से-कहां पहुंच जाएंगे? लालकिले से नरेंद्र भाई कभी यह खुल कर नहीं बताएंगे कि दरअसल वे हमें कहां ले जाना चाहते हैं। मगर वे पूरी मुस्तैदी से अपने असली काम में दिन-रात लगे हैं। आधा रास्ता उन्होंने तय कर लिया है। सो, अभी हम अधमरे हैं। जिस दिन पूरा रास्ता तय हो जाएगा, भारत स्वर्ग बन जाएगा।
नरेंद्र भाई चूंकि सकारात्मकता के पुजारी हैं, इसलिए उन्होंने आज तक, लालकिले से तो भूल जाइए, वैसे भी कभी, नोटबंदी से उपजे नकारात्मक प्रभावों का ज़िक्र नहीं किया। इसीलिए उन्होंने जीएसटी की शंखघ्वनि से आधी रात निकली तरंगों की चपेट में आ कर बिलबिला रही कारोबारी व्यवस्था का ज़िक्र नहीं किया। सकारात्मकता की यही गहन प्रेरणा उन्हें पीठ पर मां को लादे सैकड़ों मील पैदल जाते प्रवासी मज़दूरों की पीड़ा का ज़िक्र करने से रोके रही। और, इसीलिए इस बार भी वे प्राणवायु के एक-एक कतरे के इंतज़ार में तरसती आंखों के साथ हमारे संसार को छोड़ कर चले गए हज़ारों बेगु़नाहों का लालकिले से कोई ज़िक्र नहीं करेंगे। वे ‘संसार मिथ्या है और आत्मा अमर है’ के दर्शन में यक़ीन रखते हैं। वे आत्मा के चोला बदलने में विश्वास करते हैं। इसलिए वे हमारे दुःख-दर्द से परे हैं। ऐसे ऋषि-स्वभाव का प्रधानमंत्री पा कर भी जिन्हें तसल्ली नहीं है, उनका कोई क्या करे!
विपक्ष के पास लालकिला नहीं है। लेकिन उसके पास लाल बजरी का मैदान तो है। पर इस मैदान में अपने अश्व इकट्ठे करना शुरू करने में भी उसे सात साल लग गए। ‘देर आयद, दुरुस्त आयद’। मैं तो बहुत ख़ुश हूं कि शुभारंभ तो हुआ। अगर इस अश्वमेध का मंत्रोच्चार दसों दिशाओं में देर-सबेर गूंजने लगा तो इंद्रासन हिलेगा तो ज़रूर। और, सिंहासन अगर हिलता दिखाई देने लगा तो फिर ले मशालें चल पड़ेंगे लोग मेरे गांव के; तब अंधेरा जीत लेंगे लोग मेरे गांव के। बेतरह उकताए हुए देशवासी जिस प्रतीक्षालय में बैठे हैं, उसमें जनतांत्रिक करवट की अंगड़ाई आकार ले चुकी है। प्रतीक्षालय बस एक नायक के इंतज़ार में है।
वह नायक राहुल गांधी हो सकते थे। वह नायक राहुल गांधी शायद आज भी हो सकते हैं। उन्हें विपक्ष की एकजुटता का रोड़ा बताने वालों से मैं बेहद ख़ाकसारी के साथ कहना चाहता हूं कि राहुल विपक्ष की मुसीबत नहीं हैं। कांग्रेस की भी मुसीबत वे नहीं हैं। वे तो कांग्रेस की मूल-शक्ति हैं और विपक्ष की भी बुनियादी ताक़त बन सकते हैं। मुसीबत असल में कुछ और है। लोगों को राहुल की क्षमता, कुशलता, विवेक और निडरता पर रत्ती भर भी संदेह नहीं है। मगर उन्हें राहुल के अगलियों-बगलियों की मंशा, मंसूबों, सामर्थ्य और पराक्रम पर भरोसा नहीं है।
मैं शुरू से मानता हूं कि कांग्रेस में हमेशा से ऐसे तिकड़मबाज़ मौजूद रहे हैं, जिन्होंने राजीव-सोनिया-राहुल-प्रियंका की भलमनसाहत का बेज़ा फ़ायदा उठा कर ख़ुद को हरा-भरा बनाए रखने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। दुर्भाग्य से आज भी बोलबाला तो ऐसों का ही है। बाकी तो अपना वक़्त काट रहे हैं। राहुल के साथ मुसीबत यह है कि वे इतने भले हैं कि बरसों से उन्हें यह अहसास ही नहीं हो पा रहा है कि अपने अखाड़े के जिन तरुण हमजोलियों को वे मसाहिको किमूरा, ब्रूस ली, चेंग पेईपेई और मिशेल यो समझते हैं, उनमें से ज़्यादातर दरअसल प्लास्टिक के हवा भरे अतिमानव हैं। ‘हिट मी’ पुतले हैं। वे स्टार वॉर्स के कृत्रिम एक्शन फ़िगर्स हैं। वे भरवां खिलौना भालू हैं – टेडी बेअर हैं। राहुल की मुसीबत यह है कि इन ढपोरशंखियों पर उनकी अगाध श्रद्धा कम होने का नाम ही नहीं ले रही है। वे जिन्हें युद्ध के मैदान का दीया समझे बैठे हैं, पता नहीं, उनमें बाती है भी या नहीं? वे जिन मुरलीवादकों पर रीझे हुए हैं, कहीं उनकी बांसुरी से निकल रही बेसुरी ध्वनि कांग्रेस के भीतर की सुर-ताल तो भंग नहीं कर रही? जिस दिन राहुल इत्ती-सी निगरानी करने लगेंगे, उस दिन से देवता उन पर फूल बरसाने आरंभ कर देंगे। लेकिन अगर वे तिकड़मी छद्म आंकड़ेबाज़ों के कंधों पर सिर रख कर झपकी लेने से नहीं बच पाएंगे तो नरेंद्र भाई की राह में और लाल गलीचे बिछाएंगे।
जो हो, पौने तीन साल बाद नरेंद्र भाई की राजनीतिक विदाई की पटकथा लोग किसी की अगुआई में तो लिखेंगे ही। इस ज़द्दोज़हद के मुहाने पर शरद पवार भी खड़े नज़र आ सकते हैं और ममता बनर्जी भी। हाशिए से उठ कर पूरे पन्ने पर छा जाने वाला कोई चेहरा भी एकाएक सामने आ सकता है। राहुल का अनमनापन 2024 की दहलीज़ सामने आने पर कांग्रेस को प्रियंका गांधी के आंचल में भी डाल सकता है। सो, मौजूदा हुकूमत से निज़ात पाने के लिए कुछ भी हो सकता है। लोक-दबाव अगले दो साल में ऐसे हालात बनाएगा-ही-बनाएगा कि विपक्ष की बिखरी डालियां जटाधारी बरगद की शक़्ल लें। इस बरगद का तना कितना मज़बूत होगा, कितना नहीं, यह मायने नहीं रखता। मायने सिर्फ़ यह बात रखेगी कि एक एकजुट विपक्षी झुरमुट सियासत के बियाबान में अंततः उग आया है और नरेंद्र भाई को उसके बीच से गुज़र कर जाना है। इतना भर भी हो गया तो आसमान का रंग बदल जाएगा। इतना भर भी हो गया तो एक बार तो धरती करवट ले ही लेगी। इसलिए आइए, यही मनौती मांगें कि देश की पंचकोशी यात्रा का समापन शुभ और कल्याणकारी हो! (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)
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