नरेंद्र भाई मोदी राजकाज के हर कूचे में बेआबरू हैं। वे आर्थिक बहीखाते के हर पन्ने के खलनायक हैं। वे देश की सुरक्षा के बाहरी-भीतरी मोर्चों पर लड़खड़ाए हुए हैं। वे राजनय के हर अंतःपुर में अवांछित-से हो गए हैं। वे देश की सामाजिक फुलवारियों के कंटक हैं। वे सवा साल से अर्रा रहे महामारी के भैंसे को उसके सींगों से पकड़ कर पटकनी देने के बजाय उसकी पीठ पर बैठे नज़र आते रहे हैं। उनकी हृदय-सम्राटी तेज़ी से भुरभुरी हो रही है।
विपक्ष कमर कसता दिखाई देने लगा है। वह करवट ले रहा है। एकजुटता की ख़्वाहिश अपनी बूंदें बरसाने लगी है। अभी यह बारिश मूसलाधार भले न हो, मगर उसकी रिमझिम शुरू हो चुकी है। राहुल गांधी सोशल मीडिया मंचों की झालर तोड़ कर सड़कों पर कूदने की मुद्रा में आ गए हैं। ममता बनर्जी बंगाल की सरहदों को लांघ रही हैं। शरद पवार के तज़ुर्बों की घनघनाहट सब के कानों में बज रही है। अखिलेश यादव के सेनानी लाल टोपियां पहन कर निकल गए हैं। तेजस्वी यादव की मुट्ठियां और तन गई हैं।
ये सब सुखद संकेत हैं। ये सब सकारात्मक लक्षण हैं। संघ-कुनबे और भारतीय जनता पार्टी के भीतर से बाहर आ रही ख़बरें कहती हैं कि उनकी अकुलाहट बढ़ती जा रही है। नरेंद्र भाई मोदी की हरदिलअज़ीज़ी के परत-दर-परत फ़ना होने का अहसास संघ-भाजपा के भीतर गहराता जा रहा है। नरेंद्र भाई के चीर-चीर होते जा रहे तिरंगे अंगवस्त्रम की रफ़ूगीरी के उपाय खोजे जा रहे हैं। इस चक्कर में बड़े-बड़े विज्ञापन और सूचनापट्टों को तो छोड़िए, राशन के थैलों, बच्चों के बस्तों और टीके के प्रमाणपत्रों तक पर नरेंद्र भाई का मुखड़ा चेप दिया गया है।
कोई जन-मन में बसा हो तो कौन यह सब छिछोरपंथी करता है? ये सारे बाह्य उपादान तब अपनी जगह बनाते-बढ़ाते हैं, जब कोई अंतर्मन से उतरने लगता है। इसीलिए रायसीना की छाती पर चढ़ने के पहले हमें नरेंद्र भाई के त्रिविम-दर्शन की नई तकनीक से महीनों लुभाया गया था। क्योंकि वे ‘मान-न-मान, मैं तेरा मेहमान’ थे। पिछले सवा सात साल में हम सिर्फ़ ‘मैं, मैं और मैं’ का महामंत्र सुनने के अलावा कुछ नहीं सुन पा रहे तो इसकी एक पृष्ठभूमि है। अगले पौने तीन साल में यह मंत्र-ध्वनि 185 डेसिबल का दायरा पार कर 200 का अंक छूने वाली है। सो, अपने कान के परदों की नहीं, अपने आत्मिक प्राणों की परवाह कीजिए।
अपनी ही धुन में आंय-बांय-शांय नरेंद्र भाई को जन-मन में थोपे चले जाने की कोशिश में लगे मूढ़ यह जानते ही नहीं कि इससे जन-मानस में उनके प्रति कितनी गूढ़ चिढ़ जड़ें जमाने लगी है। लेकिन वे भी करें क्या? पहले दिन से वे नरेंद्र भाई के आत्मकेंद्रित और आत्ममुग्ध स्वभाव को जानते हैं। नरेंद्र भाई को कभी नहीं दिखा, लेकिन उनके अनुचर ख़ुद अपने प्रति दीवानगी से भरे नरेंद्र भाई को कोई आज से तो देख नहीं रहे हैं। उन्हें मालूम है कि ‘राजा नंगा है’ कहने का नतीजा क्या होता है? इसलिए वे नरेंद्र भाई को अजीब तरह के रंग-बिरंगे परिधानों से, नकली स्वर्णपरत वाले आभूषणों से और ढपोरशंखी जुमलों से सजाते रहते हैं। अगर नरेंद्र भाई में कहीं कोई ‘स्व’ कभी रहा भी होगा तो भांड-मंडली के ठुमकों में वे सब भूल गए हैं। नायकत्व की ललक में यह रोग आमतौर पर सब को लग ही जाता है। यह ऐसा रोग है कि सिंहासन के साथ ही जाता है।
सो, हिंदोस्तां बोल रहा है कि सिंहासन डोल रहा है। लेकिन अभी महज़ डोल रहा है। इसे जाना मत समझिए। बावजूद तमाम उलटबांसियों के, 2024 में नरेंद्र भाई की विदाई आसान नहीं है। अभी तो अपने को श्वेत बताने वाली बहुत-सी भेड़ें रेवड़ को दूर-दूर से ही निहार रही हैं। फिर रेवड़ के भीतर भी काली भेड़ों का टोटा नहीं है। अगले दो बरस में विपक्ष की गोद में कितनी सफ़ेद ऊन इकट्ठी होती है और कितनी काली ऊन अपना असली रंग दिखाती है, नरेंद्र भाई की डोली जाना-न-जाना बहुत-कुछ इस पर निर्भर करेगा। वे ‘डोली रख दो कहारों’ गीत गुनगुनाना भी जानते हैं और न मानने पर कहारों से निपटना भी।
मायावती हैं। नवीन पटनायक हैं। जगन मोहन रेड्डी हैं। के. चंद्रशेखर राव हैं। महबूबा मुफ़्ती हैं। चिराग पासवान हैं। और, इन सभी के ‘टेढ़ो-टेढ़ो जाए‘ सहोदर अरविंद केजरीवाल हैं। फिर असदुद्दीन ओवैसी जैसे छुपे रुस्तम हैं। आपको क्या लगता है, इन सब के होते विपक्ष की राह मखमली है? इन सब के होते क्या नरेंद्र भाई की राह इतनी ऊबड़-खाबड़ हो जाएगी कि दचकों में उनका सिंहासन जाता रहे? नियंता भले न हों, नियंत्रक तो वे बन ही गए हैं। सियासी गलियारों में ऐसा कौन-सा अड्डा है, जो उनका विशेष विक्रय अधिकार पत्र हासिल किए बिना अपना कारोबार चला ले?
जब-जब धर्म की हानि होती है, तब-तब न्याय की स्थापना के लिए अवतार जन्म लेते हैं। सो, अब तो धर्म क्षेत्र उनका। न्याय क्षेत्र उनका। अर्थ-क्षेत्र उनका। संसदीय चौपाल उनकी। कार्यपालिका-चबूतरा उनका। चौथा स्तंभ उनका। सैन्य शक्ति उनकी। अर्द्ध-सैन्य शक्ति उनकी। देशभक्ति उनकी। राष्ट्रवाद उनका। ज्ञान उनका। विज्ञान उनका। साहित्य उनका। संस्कृति उनकी। इतिहास उनका। परंपराएं उनकी। विकास उनका। निर्माण उनका। आपका है क्या? आप कौन-से समरथ हैं? सो, आपका केवल दोष है। आपकी हैसियत ही क्या है? सो, आपका सिर्फ़ कुसूर है।
इसलिए भूल जाइए कि क्रांति को नरेंद्र भाई इतनी आसानी से नज़दीक आ जाने देंगे। भूल जाइए कि वे देश को इतने आराम से अपने खि़लाफ़ उठ कर खड़ा हो जाने देंगे। भूल जाइए कि हम, जो अपने तईं ख़ुद, बग़ावत में मशगूल हैं, किसी मंगल पांडे के वंशजों के आज हमजोली हैं। आपका आप जानें! मुझे तो नहीं मालूम कि मैं जिस विचार का अनुगामी हूं, उस विचार के नायक नज़र आ रहे चेहरे, सचमुच उस विचार का नेतृत्व करने लायक हैं भी कि नहीं! लेकिन मेरे लिए विचार महत्वपूर्ण है, नायक नहीं। मेरे लिए विचार की अहमियत है, उसके प्रतिनिधि-संगठन की नहीं।
संगठन और नायक तो सौ-डेढ़ सौ साल में पनपे हैं। भारत का मूल विचार तो शाश्वत है, चिरंतन है। हज़ारों साल से है। हज़ारों साल रहेगा। जब से भारत-भूमि है, हम सर्वसमावेशी हैं, समरसता में पगे हैं, अपना-तेरी से दूर हैं, करुणा-दया के संस्कारों के पुजारी हैं। यह क्या 136 साल पहले बनी कांग्रेस ने हमें सिखाया है? यह क्या बीस दिन बाद 96 बरस का हो रहा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हम से छीन सकता है? इसलिए भारतवासी जैसे हैं, हैं। वे ऐसे ही रहेंगे। समाज में विचलन के दौर आते हैं, आते रहेंगे। लेकिन वे जाते भी रहे हैं, जाते भी रहेंगे। यह इस मुल्क़ की बुनियादी तासीर है कि वह तमाम झंझावातों से बाहर आ जाता है।
जिन्हें लगता है कि वे हैं तो सब-कुछ है, पौने तीन साल बाद हम उनका हाल देखेंगे। जिन्हें लगता है कि अगर वे न होंगे तो भारत का पुष्पक विमान आज के काले आसमान को पार ही नहीं कर पाएगा, उनकी भी नेकनीयती और पराक्रम हम 2024 में देखेंगे। एक बात मैं आपको बता दूं? जिन छद्म-गैयाओं की पूंछ पकड़ कर हम यह सियासी-वैतरिणी पार करने का सोच रहे हैं, उनकी पूंछ पर नहीं, अपने हाथों पर भरोसा रखने का यह वक़्त है। इन्हें जो करना है, करने दीजिए, और, नरेंद्र भाई तो अपना हर जलवा दिखाएंगे ही; इसलिए ठान लीजिए कि हमें भी हर हाल में अपना ज़िम्मा निभाना है। निभाया तो मोक्ष मिलेगा। नहीं निभा पाए तो नर्क मिलेगा। सो, तय कीजिए। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)
No comments:
Post a Comment