कांग्रेस का अध्यक्ष पद संभालने की लियाक़त रखने वाले कई चेहरे हैं। प्रियंका गांधी हैं। कमलनाथ हैं। पी. चिदंबरम हैं। मल्लिकार्जुन खड़गे हैं। दिग्विजय सिंह हैं। अशोक गहलोत हैं। उम्र पर न जाएं तो शिवराज पाटिल हैं, सुशील कुमार शिंदे हैं और आप को नागवार न गुज़रें तो आनंद शर्मा, मुकुल वासनिक, शशि थरूर भी हैं। राहुल-सोनिया जिसके लिए इशारा कर देंगे, वह मुखिया हो जाएगा। लेकिन अगर मोशा-भाजपा को वनवास देना है तो अंततः राहुल को ही आगे आना होगा। नरेंद्र भाई का विकल्प राहुल और प्रियंका में से ही कोई हो सकता है।
राहुल को यह समझना होगा कि कांग्रेस का अध्यक्ष पद छोड़ कर उन्होंने पार्टी का कितना बड़ा नुक़सान किया है? उन्हें यह भी समझना होगा कि यह ज़िम्मेदारी संभालने में देरी कर के अब वे पूरे विपक्ष का कितना बड़ा नुक़सान कर रहे हैं? आज अगर समूचे विपक्ष की कोई सकल-शक़्ल नहीं बन पा रही है तो इसलिए कि कांग्रेस अंतरिम-नेतृत्व के सहारे चल रही है।
कल राजीव गांधी की शहादत के तीस साल पूरे हो गए और मैं सोचता रहा कि आज अगर वे होते तो, भले ही अब 77 साल के होते, मगर उनके होते, और कुछ भी होता, कांग्रेस का यह हाल तो नहीं होता। इसलिए कि पहले तो ऐसे हालात ही नहीं बनते कि अहमदाबाद से कोई यूं धड़धड़ाता हुआ आता और दो-दो बार रायसीना की पहाड़ी इस तरह चढ़ जाता और अगर पहली बार के बाद दूसरी बार भी उसके रथ के घर्घर नाद का स्वर कम नहीं होता तो भी राजीव गांधी अपनी पार्टी का सिंहासन खाली छोड़ कर कहीं जाते नहीं। न तो वे ख़ुद को अकेला महसूस करते और न दूसरों को अकेलेपन का अहसास होने देते। वे डटे रहते।
डटे तो राहुल गांधी भी हुए हैं, लेकिन उनके डटने-हटने-डटने की भूलभुलैया में कांग्रेस हिचकोलों के हिंडोले से उतर नहीं पा रही है। ढाई साल में राहुल और उनकी कांग्रेस के सत्कर्मों की सूची बेहद ज़मीनी है, ठोस है और ख़ासी लंबी है। 2019 के चुनाव अभियान में राहुल ने नरेंद्र भाई मोदी को पदा-पदा डाला था। राहुल की कांग्रेस हार भले गई हो, लेकिन मोशा-रहस्यलोक ने भारतीय जनता पार्टी को कैसे जिताया, कौन नहीं जानता! दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने के दिन से ही नरेंद्र भाई को राहुल अनवरत ताताथैया करा रहे हैं। महामारी के इस दौर में पीड़ितों को राहत पहुंचाने का जैसा काम कांग्रेस ने किया और कर रही है, उसे संघ-अनुचर तो कभी स्वीकार करेंगे नहीं, मगर इतिहास के पन्नों पर वह रेखांकित हो चुका है।
राहुल की एक ग़लती लेकिन इस सब पर भारी पड़ रही है। वह यह कि एक तो दुःखी हो कर वे कांग्रेस-अध्यक्ष का पद छोड़ कर चले गए और फिर अब दोबारा पार्टी की कमान संभालने में देरी ही करते जा रहे हैं। इस चक्कर में कांग्रेस की ताजा पुण्याई नाहक नष्ट हो रही है। सात बरस से नरेंद्र भाई को अपने माथे पर बिठा कर नाच रहे लोगों का तर्क यही तो है कि उनका कोई विकल्प ही कहां है? कांग्रेस की शिखर-आसंदी पर राहुल की अनुपस्थिति इस तर्क को और मज़बूत कर रही है। घनघोर उकताहट के इस मौसम में भी अगर नरेंद्र भाई ही भारत के भाग्य-विधाता समझे जाएंगे तो हम सब का इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या होगा? तो अपने को इस बदक़िस्मती की गुफ़ा में ठेलने की तोहमत हम राहुल पर क्यों नहीं लगाएं? आख़िर वे इतने एकलखुरे कैसे हो सकते हैं कि अपनी सामुदायिक ज़िम्मेदारी से किनारा कर के बैठे रहें?
डेढ़ साल से जैसी अनिश्चितता का माहौल देश-दुनिया में एक विषाणु ने बना रखा है, पौने दो साल से वैसी ही अनिश्चितता का माहौल कांग्रेस में राहुल के निर्णय ने बना रखा है। दिन कब सामान्य होंगे, यह फ़िक़्र देश को भी खाए जा रही है और कांग्रेस को भी। दोनों की मायूसी में, दोनों के अवसाद में और दोनों की छटपटाहट में क्या आप को कहीं कोई फ़र्क दिखाई देता है? वायरस की अर्थी जाए तो देश के चेहरे पर लाली आए और राहुल की डोली आए तो कांग्रेस के गाल गुलाबी हों। दोनों ही अनिश्चितताओं का दौर अब इतना लंबा खिंच गया है कि सब के तन-मन टूटने लगे हैं।
राहुल को यह समझना होगा कि कांग्रेस का अध्यक्ष पद छोड़ कर उन्होंने पार्टी का कितना बड़ा नुक़सान किया है? उन्हें यह भी समझना होगा कि यह ज़िम्मेदारी संभालने में देरी कर के अब वे पूरे विपक्ष का कितना बड़ा नुक़सान कर रहे हैं? आज अगर समूचे विपक्ष की कोई सकल-शक़्ल नहीं बन पा रही है तो इसलिए कि कांग्रेस अंतरिम-नेतृत्व के सहारे चल रही है। भले ही आज संसद में कांग्रेस के सांसदों की संख्या जितनी कम है, इतिहास में कभी नहीं थी, लेकिन कांग्रेस अब भी सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है और उसका अखिल भारतीय वर्चस्व सबसे व्यापक है। इसलिए राहुल को यह भी समझना होगा कि कोप-भवन में उनका बैठे रहना नरेंद्र मोदी को एक ऐसे दौर में भी भुरभुर हो कर गिरने नहीं दे रहा है, जब मौजूदा बदतर हालात और बदइंतज़ामी के लिए पत्ता-पत्ता-बूटा-बूटा सिर्फ़ उन्हें और उन्हें ही जवाबदेह मान रहा है।
मुझ से पूछो तो सच्ची बात यह है कि महामारी के चलते कांग्रेस-अध्यक्ष के चुनाव को दो-तीन महीने और टाल देने की कोई ज़रूरत नहीं थी। दरअसल, समय यह सोचने का नहीं है कि लोग क्या कहेंगे? कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना। समय तो यह सोचने का है कि कांग्रेस को क्या करना है? यह समय त्रिशंकु-मुद्रा में बैठे रहने का नहीं है। यह समय सियासी-अपंगता को झटक कर उठ खड़े होने का है। कांग्रेस के लोक-सेवक स्वरूप की पूरे देश में सराहना हो रही है। ग्लानि तो उन्हें हो, जो हुकू़मत में रहते हुए भी बीमारों को सांसें मुहैया नहीं करा पा रहे, जिनके राज में गंगा शव-वाहिनी बन गई, जिनके होते दवाओं से ले कर अंतिम-संस्कार सामग्री तक की कालाबाज़ारी पर काबू नहीं पाया जा रहा।
सो, पुनर्निवाचन की ज़रूरत तो प्रधानमंत्री के लिए है। कांग्रेस-अध्यक्ष के लिए तो चुनाव की कोई ज़रूरत ही नहीं है – न तकनीकी लिहाज़ से, न व्यावहारिक लिहाज़ से। कांग्रेस की जिस कार्यसमिति ने चुनाव दो-तीन महीने टाले, उस में यह हिम्मत होनी चाहिए कि वह एक सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित कर राहुल को पार्टी-अध्यक्ष नियुक्त कर दे। आख़िर राहुल होते कौन हैं मना करने वाले? उनकी सहमति-असहमति का सम्मान तब करिए, जब शांति-काल हो। यह तो संघर्ष-काल है। रण-क्षेत्र में किस की सहमति, किस की असहमति? आपद्-धर्म का पालन करने से मना करने का अधिकार राहुल को है ही नहीं।
अगर वे राजनीति से ही विदा लेने का इरादा रखते हों तो कोई क्या कर लेगा? लेकिन अगर उन्हें राजनीति में रहना है तो कांग्रेस में ही रहेंगे और वे यह नहीं कर सकते कि कांग्रेस में रहते हुए कार्यसमिति के फ़ैसले को मानने से इनकार कर दें। क्या मैं ऐसा कर सकता हूं कि कांग्रेस-अध्यक्ष ने मुझे जो ज़िम्मेदारी दे रखी है, चूंकि वह मुझे पसंद नहीं है, इसलिए मैं उसे संभालने से मना करने की चिट्ठी उन्हें भेज दूं? क्या इसके लिए मुझ पर अनुशासनहीनता की कार्रवाई नहीं होगी? तो फिर पार्टी के एक सदस्य के नाते राहुल को ही कोई विशेषाधिकार क्यों हो? पार्टी की सर्वोच्च नीति निर्धारण समिति का निर्णय उन पर बाध्यकारी क्यों न हो?
कांग्रेस का अध्यक्ष पद संभालने की लियाक़त रखने वाले कई चेहरे हैं। प्रियंका गांधी हैं। कमलनाथ हैं। पी. चिदंबरम हैं। मल्लिकार्जुन खड़गे हैं। दिग्विजय सिंह हैं। अशोक गहलोत हैं। उम्र पर न जाएं तो शिवराज पाटिल हैं, सुशील कुमार शिंदे हैं और आप को नागवार न गुज़रें तो आनंद शर्मा, मुकुल वासनिक, शशि थरूर भी हैं। राहुल-सोनिया जिसके लिए इशारा कर देंगे, वह मुखिया हो जाएगा। लेकिन अगर मोशा-भाजपा को वनवास देना है तो अंततः राहुल को ही आगे आना होगा। नरेंद्र भाई का विकल्प राहुल और प्रियंका में से ही कोई हो सकता है। जो कहते हैं कि राहुल-प्रियंका विकल्प होंगे तो नरेंद्र भाई और दीर्घजीवी होते जाएंगे, वे कांग्रेस को अल्पजीवी बनाने की साज़िश में शामिल हैं। यह तर्क मोशा-कारखाने में गढ़ा गया है। नरेंद्र भाई जानते हैं कि सिर्फ़ राहुल-प्रियंका ही उनके विकल्प हो सकते हैं। इसलिए उनके गोयबल्स दिन-रात यह माला जप रहे हैं। इसी जाल से तो बचने की ज़रूरत है। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक हैं।)
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