जब राहुल गांधी सात-आठ साल से चिल्ला रहे थे कि भारत की सियासत ने दो विचारधाराओं के संघर्ष के सबसे भीषण दौर में प्रवेश कर लिया है, तब दूसरे-तो-दूसरे, कांग्रेस की स्वयंभू विद्वत-परिषद के लोग भी उनकी बातों को पप्पूगिरी बता कर मुंह बिचका देते थे। लेकिन अब विपक्ष के सूरमाओं को भी अहसास होने लगा है कि राहुल की बात में कितना दम था और अगर चलाचली की इस वेला में भी वे एकजुटता की राह के हमसफ़र बनने को तैयार नहीं हुए तो विपक्ष की समाधि पर इन जंगावरों के नाम का पत्थर समझो लगने ही वाला है।
बंगाल का चुनाव जीतने के लिए नरेंद्र भाई मोदी और अमित भाई शाह की भारतीय जनता पार्टी जिस क़दर भिड़ी हुई है, उससे ममता बनर्जी की आंखें फटी गई हैं। वे बीच चुनाव चिट्ठी लिख कर समान विचारों वालों से एक होने की गुहार लगा रही हैं। दीदी समेत तमाम विपक्षी दिग्गजों के नेत्र अगर पिछले पांच बरस में अलग-अलग प्रदेशों में मंचित हुआ मोशा-डिस्को देख कर खुल जाते तो हमारा जनतंत्र आज ऐसा लुटा-पिटा पड़ा न होता। लेकिन विपक्षी मठाधीश इतने रूपगर्विता थे कि उन्हें ग़ुमान हो गया था कि उनके राज्यों के मतदाता स्वयंवर की माला उनके ही गले में डालने को बेताब घूम रहे हैं। उन्हें अंदाज़ ही नहीं था कि स्वयंवर के नियम इस बीच पूरी तरह बदल गए हैं और भाजपा जयमाला छीन-छीन कर ख़ुद के गले में डाल लेने का हुनर सीख गई है।
इन पांच-सात सालों में देश के हर राज्य में विधानसभा चुनाव हुए। 2014 के बाद 2019 में लोकसभा का चुनाव भी हुआ। इनमें क्या-क्या नहीं हुआ? हमारी आंखों ने क्या-क्या नहीं देखा? लोकतंत्र के उपादानों के घालमेल से जन्मी सरकारें देखीं। निर्वाचित सरकारों पर डाका डाल कर उनका रद्दोबदल देखा। तब विपक्ष के ज़्यादातर नायक-नायिकाएं बाहें चढ़ाने के बजाय ठुमके लगाते रहे। नैनमटक्का करते रहे। पींगें बढ़ाते रहे। झूला झूलते रहे। ठट्ठा लगाते रहे। माफ़ कीजिए, तब सब, यानी सब, कांग्रेस को किनारे करने की जुगत भिड़ाते रहे। क्षेत्रीय दलों के क्षत्रपों को कांग्रेस के पिंडदान में ही स्वयं के कायाकल्प का बीज-मंत्र सुनाई दे रहा था। वे भूल गए थे कि उनका मुकाबला जिस आसुरी शक्ति से है, उसे परास्त करने लायक देव-भुजाओं का निर्माण करने वाली व्यायामशाला उनके पास है ही नहीं।
भाजपा से लड़ने के बजाय विपक्षी रुस्तम कांग्रेस से लड़ते रहे। मुद्दा यह बना रहा कि विपक्ष का नेतृत्व करने की कूवत राहुल गांधी में है कि नहीं? सब को लगता रहा कि राहुल से ज़्यादा योग्य तो मैं ख़ुद हूं। कांग्रेस के भीतर भी लार टपकाती ज़ुबानों की कमी नहीं थी। वे भी अपने हिस्से की खीर चाटने को लपलपा रही थीं। उन्हें भी राहुल की असफलता में अपनी सफलता के अंकुर दिखाई देते थे। घर के इन भेदियों ने समान विचारों वाले राजनीतिक दल तो छोड़िए, मोशा-भाजपा तक के साथ कंचे खेलने में भी हुज्ज़त नहीं की। नतीजा सब के सामने है।
आज राहुल के अलावा बाकी सारे विपक्षी नेता नरेंद्र भाई के तीरों से ज़ख़्मी हो कर ‘हाय-हाय मर गया’ कर रहे हैं। मोशा-करतूतों के ख़िलाफ़ अकेले राहुल मैदान में डटे हुए हैं। वह वक़्त गया, जब नरेंद्र भाई का कार्टून बनाने का ‘पाप’ करने वाले को अनुचर-टोली जीवन भर याद रहने वाला सबक सिखाने निकल पड़ती थी। कार्टून की दुनिया में आज राहुल नहीं, नरेंद्र भाई सबसे ऊपर हैं। पौने दो बरस में यह फ़र्क़ आया है। यह फ़र्क़ राहुल की अनवरतता की वज़ह से आया है। यह फ़र्क़ इसलिए आया है कि, और कोई भले ही हुआ हो, मगर राहुल अपने मार्ग से विचलित नहीं हुए।
मैं शुरू से कह रहा हूं कि मोशा-युग का संहार राहुल के ही हाथों लिखा है। क्योंकि वे ही हैं, जिन्होंने वैचारिक संघर्ष के मौजूदा दौर की आहट बहुत पहले से सुन ली थी और अपना रुख तय कर लिया था। इसलिए बावजूद इसके कि विपक्षी पहलवानों की कतार में बहुत-से मज़बूत चेहरे हैं, राहुल सरीखी अखिल भारतीय अर्थवत्ता किसी में नहीं है। शेष सभी की अपनी सीमाएं हैं। कोई जाति-बिरादरी का नेता है तो कोई इलाकाई सूबेदार। आम लोगों के बीच न तो राहुल जैसी अखिल भारतीय स्वीकार्यता किसी की है और न उन जैसी वैश्विक उपस्थिति की कलगी किसी के सिर पर दीखती है। कांग्रेस को छोड़ कर विपक्ष का कौन-सा ऐसा राजनीतिक दल है, जिसका जम्बू द्वीप तो दूर, भारत-खंड के आकाश पर भी अपना सकल-प्रभाव हो?
सो, कांग्रेस भले ही लोकसभा में फ़िलहाल दीन-हीन स्थिति में है, भले ही सिर्फ़ तीन ही राज्यों में फ़िलवक़्त उसकी समूची सरकारें हैं, कांग्रेस को सारथी-भूमिका दिए बिना विपक्ष का रथ मोशा-महाभारत जीतने का ख़्वाब देख ही नहीं सकता। कांग्रेस यानी राहुल के पीछे चलने का अनमनापन विपक्षी नेताओं के मन से जितनी जल्दी विदा होता जाएगा, दिल्ली उतनी ही पास आती जाएगी। नरेंद्र भाई तो शुरू से जानते थे कि उनका असली मुकाबला सिर्फ़ राहुल गांधी से है, इसीलिए वे सात-आठ साल से एक ही काम में लगे हुए हैं कि राहुल के चेहरे पर ऐसे-ऐसे रंग पोत दें कि विपक्ष में बाकियों के चेहरे उनसे चमकीले नज़र आएं। लेकिन नरेंद्र भाई अंततः हांफ गए हैं। उनकी सारी तरक़ीबें नाकाम होती जा रही हैं।
क्षमा कीजिए, बावजूद इसके कि ममता बनर्जी और शरद पवार अपने-अपने हलकों में बहुत पुख़्ता सियासी ज़मीन के मालिक हैं, पूरे देश का संचालन उनके बस का नहीं है। बावजूद इसके कि तेजस्वी यादव, अखिलेश यादव और जगन रेड्डी उन युवा राजनीतिकों में हैं, जिनसे हम बहुत उम्मीद कर सकते हैं, मगर समूचा देश उनके भी बस का नहीं है। बावजूद इसके कि मायावती और अरविंद केजरीवाल रस्सी पर बांस ले कर चलने और गुलाटियां खाने के करतब दिखाने में माहिर हैं, पूरा मुल्क़ उनके भी बस का नहीं है। इन सभी की क्षेत्रीय राजनीतिक इकाइयों का अपना आधार है, लेकिन उनमें से किसी में भी 33 लाख वर्ग किलोमीटर भूमि पर पसरी पंगडंडियों का चप्पा-चप्पा छान सकने की सामर्थ्य नहीं है।
इसलिए नरेंद्र भाई मोदी का विकल्प अगर कोई हो सकता है तो राहुल गांधी। संघ-गिरोह के वैचारिक हथगोलों का अगर कोई जवाब हो सकता है तो कांग्रेस की अगुवाई वाला विपक्ष। जो इस अवधारणा के विरुद्ध हैं, वे मोशा के मित्र हैं। जिन्हें इस प्रस्तावना पर ऐतराज़ है, लोकतंत्र की हिफ़ाज़त में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं है। अपना-तेरी के कर्मकांड में गले-गले डूबे ऐसे विपक्षी रुस्तम ताल कितनी ही ठोकें, उनका असली मक़सद नरेंद्र भाई की पहलवानी को चुनौती देना है ही नहीं। वे सिर्फ़ अपनी लंगोट घुमा रहे हैं। उन्हें कुश्ती के धोबियापछाड़ दांव से कोई लेना-देना ही नहीं है। वे इस दंगल के कलाजंग दांव के बारे में कुछ जानते ही नहीं हैं।
जिन्हें लगता है कि विचारधाराओं के इस संघर्ष को वे बैठकखाने में रखे शतरंज-बोर्ड पर जीत लेंगे, उन्हें इस असलियत का अंदाज़ ही नहीं है कि नागफनी की खेती कहां-कहां तक पहुंच गई है। अब यह बैठकखाने का मसला नहीं रहा। अब तो कमीज़ को उतार कर, पचास दंड मार कर, अखाड़े में उतरने का वक़्त है। मानो-तो-मानो। मत मानो तो मत मानो। सच्चाई यही है कि वैचारिक दृढ़ता का जो वंश-बीज कांग्रेस और राहुल की जड़ों में है, विपक्ष के बाकी सियासी दलों को उस मुक़ाम तक पहुंचने के लिए अभी काफी आराधना करनी है। कांग्रेस को मुख्य पुरोहित बनाए बिना विपक्ष यह पूजन कर ही नहीं सकता। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक हैं।)
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