Saturday, August 21, 2021

पंजाब की त्रिशंकु-गोद का राजनीति शास्त्र

राजनीति शास्त्र का यह पन्ना कहता है कि किसान आंदोलन से उपजी ऊर्जा का पंजाब में सही इस्तेमाल करने के लिए सोनिया गांधी और राहुल-प्रियंका को अभी और बहुत पापड़ बेलने हैं। बुजु़र्ग जाएं। युवा आएं। लेकिन कौन-से बुज़ुर्ग जा रहे हैं और कौन-से युवा आ रहे हैं? किसी भी राजनीतिक दल को उसके पदाधिकारियों की संख्या चुनाव नहीं जिताती है। चुनाव तो मतदाताओं और कार्यकर्ताओं के भाव-पक्ष की देखभाल से जीता जाता है। ज़रूरत तो दरअसल इस शून्य को भरने की है।

सवाल कैप्टन अमरिंदर सिंह और नवजोत सिंह सिद्धू का नहीं है। सवाल सियासत की परंपराओं, आचरण संहिता और नियमों का है। ख़ासकर इसलिए कि मसला कांग्रेस का है। उस कांग्रेस का, जो 136 बरस से ख़ुद के गंगाजली होने पर फ़ख़्र करती रही है। उस कांग्रेस का, जिसका शिखर नेतृत्व अपने को क्षुद्र उठापटक से निर्लिप्त दिखाता है। उस कांग्रेस का, जिस पर अब भी लोगों का यह विश्वास क़ायम है कि एक दिन वह देश को मौजूदा जंजाल से मुक्ति दिलाने की हैसियत रखती है।

सो, पंजाब-प्रसंग के कुछ आयामों को राजनीति नहीं, राजनीति-शास्त्र के नज़रिए से समझना ज़रूरी है। इस कथानक के एक नायक चौधरी फूलसिंह के राजवंश से ताल्लुक रखने वाले पटियाला के पूर्व महाराज अमरिंदर सिंह हैं। वे तीन बार कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष रहे हैं और दूसरी बार मुख्यमंत्री हैं। महाराज हैं तो ज़ाहिर है कि करोड़पति-अरबपति भी होंगे ही। फ़ौज में रहे हैं, सो, उन राजाओं में नहीं हैं, जिनकी देहभाषा से रंगीला रतन भाव टपकता हो। संजीदा हैं। ख़ुद्दार भी हैं। राजनीति की उठापटक, ख़ुद की जीत-हार और सियासी मसलों की टप्पेबाज़ी ने उन्हें गहरा अनुभव भी दे दिया है।

कांग्रेस से अमरिंदर का सार्वजनिक जीवन शुरू हुआ। राजीव गांधी उन्हें राजनीति में लाए थे। 1980 में वे लोकसभा के सदस्य बने। मगर कुछ बरस बाद, 1984 में, अमृतसर के स्वर्णमंदिर के क्षतिग्रस्त गुबंद ने उन की भावनाओं को आहत किया और वे कांग्रेस छोड़ कर शिरोमणि अकाली दल में चले गए। लेकिन अपनी साफ़ग़ोई के चलते वहां उन्हें कसमसाहट होने लगी और अलग हो कर उन्होंने अकाली दल पंथिक का गठन कर लिया। उनकी यह पार्टी विधानसभा चुनाव बुरी तरह हार गई और ख़ुद अमरिंदर को सिर्फ़ 856 वोट मिले। 23 साल पहले जब सोनिया गांधी कांग्रेस की अध्यक्ष बनीं तो अमरिंदर ने अपने अकाली दल का कांग्रेस में विलय कर दिया। तब से वे पंजाब में कांग्रेस का प्रथम चेहरा हैं। इसी मार्च में 79 के हो कर उन्होंने उम्र के 80 वें साल में प्रवेश किया है।

इस कथानक के सह-नायक नवजोत सिंह सिद्धू हैं। वे मशहूर क्रिकेट खिलाड़ी भगवान सिंह के बेटे हैं, सो, राजनीति में आने से पहले उन्होंने भी 19 साल प्रथम श्रेणी क्रिकेट खेला। 51 टेस्ट मैच खेले। 136 एकदिवसीय अंतरराष्ट्रीय मैच खेले। 34 साल पहले हुए विश्व-कप में चार अर्द्धशतक बनाने का कमाल दिखाया। उनके छक्के आज भी लोगों को याद हैं। फिर वे क्रिकेट की कमेंटरी करने लगे। उनकी कमेंटरी शैली को भी लोग चुटीली ज़ुमलेबाज़ियों की वज़ह से याद करते हैं। अपने इसी अंदाज़ ने उन्हें टेलीविजन के लॉफ्टर चैलेंज, बिग बॉस और कपिल शर्मा शो के ज़रिए खिलंदड़ी पहचान दी।

सिद्धू के राजनीतिक जीवन की शुरुआत 17 साल पहले भारतीय जनता पार्टी से हुई। भाजपा और क्रिकेट दोनों की सियासत में गहरी पैठ रखने वाले अरुण जेटली सिद्धू को राजनीति में लाए। वे अमृतसर से तीन बार लोकसभा का चुनाव जीते। लेकिन जब 2014 में भाजपा ने उन्हें उम्मीदवार नहीं बनाया तो वे आम आदमी पार्टी में जाने की तैयारी करने लगे। 2017 में पंजाब के विधानसभा चुनाव होने वाले थे। सो, सिद्धू को थामे रखने के लिए भाजपा ने एक साल पहले उन्हें राज्यसभा में भेज दिया। लेकिन ढाई महीने में ही सिद्धू ने इस्तीफ़ा दे कर अपना अलग मंच ‘आवाज़-ए-पंजाब’ गठित कर लिया। उसके तीन महीने बाद उन्होंने यह बोरिया-बिस्तर समेट लिया और कांग्रेस में शामिल हो गए। विधानसभा का चुनाव लड़े। जीते और अमरिंदर-सरकार में पहली खेप में बने नौ मंत्रियों में से एक हो गए। दो साल बाद उन्होंने मुख्यमंत्री से मतभेद के चलते मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा दे दिया। फिर उन्होंने पंजाब सरकार के ख़िलाफ़ दो साल तक मूसलाधार बयानबाज़ी करने में कोई कोताही नहीं बरती और अब अमरिंदर की घनघोर असहमति के बावजूद पंजाब-कांग्रेस के अध्यक्ष बन गए। तीन महीने बाद वे उम्र के 58 साल पूरे कर लेंगे।

यह सही है कि ऐसा क्यों हो कि कोई पूर्व-महाराज अपने को पंजाब जैसे सूबे में कांग्रेस का एकछत्र अधिपति समझने लगे? ऐसा क्यों हो कि एक मुख्यमंत्री अपने को पार्टी-आलाकमान से भी ऊपर मानने की ख़ामख़्याली पाले? ऐसा भी क्यों हो कि सब-कुछ किसी एक के भरोसे ही छोड़ दिया जाए? क्या नेतृत्व की दूसरी कतार तैयार नहीं होनी चाहिए? जिन्हें मालूम है, वे जानते हैं कि अमरिंदर ने साढ़े चार साल कैसी सरकार चलाई है? तन-मन से वे जितने प्रशासनिक लगते हैं, क्या पंजाब का प्रशासन वैसा चल पाया? हाव-भाव से वे जितने साफ़-सुथरे लगते हैं, क्या पंजाब का कामकाज उतने ही साफ़-सुथरे तरीके से चला?

मगर विधानसभा के अगले चुनाव से सिर्फ़ छह महीने पहले नींद से जागने वालों से क्या यह नहीं पूछा जाना चाहिए कि साढ़े चार साल तक पंजाब की केंद्रीय निगरानी करने वाले क्या कर रहे थे? अगर सिद्धू, प्रताप सिंह बाजवा और शमशेर सिंह ढुल्लो की बातों में दम था तो एक-डेढ़ साल से दिल्ली के कुएं में ऐसी कौन-सी भांग पड़ी थी, जिसने सब की आंखें अधमुंदी कर रखी थीं? क्या अमरिंदर की कार्यशैली एकाएक गड़बड़ हो गई? क्या उनकी चौकड़ी के सदस्य अचानक धमाचौकड़ी मचाने लगे? तो अब तक उनकी पतंग को यह लंबी डोर क्यों मुहैया होती रही?

चलिए, देर आयद, दुरुस्त आयद! मगर क्या अमरिंदर के पंख कतरने के लिए सिद्धू को कैंची बनाना बुद्धिमत्ता है? सो भी इस वक़्त? क्या पूरे प्रसंग से यह संदेश नहीं गया कि सिद्धू को प्रदेश-अध्यक्ष पद मिला नहीं, उन्होंने इसे छीना है। क्या इससे यह संदेश नहीं गया कि कांग्रेस के जिस शिखर नेतृत्व ने अमरिंदर की इच्छाओं के सामने समर्पण नहीं किया, उसने सिद्धू के भयादोहन के चलते घुटने टेक दिए? आख़िर सिद्धू आख़ीर-आख़ीर तक आम आदमी पार्टी की तरफ़ पेंग बढ़ाने के संकेत देने में कोई कसर तो रख नहीं रहे थे। तो अगर पंजाब के चुनाव में सिर्फ़ छह महीने की देर न होती तो क्या सिद्धू को आलाकमान बावजूद इसके प्रदेश अध्यक्ष बनाता कि अमरिंदर भी जाट-सिख हैं और वे भी, दोनों की उपजाति भी एक है और दोनों ही पटियाला के बाशिंदे हैं?

इसलिए जिन्हें इस पूरे प्रसंग में कांग्रेस आलाकमान की दुंदुभि बजती सुनाई दे रही है, वे उसे सुन कर भांगड़ा करने को स्वतंत्र हैं। मैं तो इतना जानता हूं कि अगर अमरिंदर और सिद्धू के बीच की खरखराहट शांत नहीं हुई और बाजवा सरीखे आधा दर्जन पर्दानशीनों ने अपने घूंघट की ओट से नैनमटक्का करने का करतब दिखाया तो अगले बरस की वसंत पंचमी पर पंजाब हमें त्रिशंकु-गोद में पड़ा मिलेगा। पंजाब में कांग्रेस की वापसी न अकेले अमरिंदर के बस की है और न अकेले सिद्धू के बस की। सिद्धू अपने चेहरे के बूते चुनावी सभाओं में भीड़ जुटाने का माद्दा रखते होंगे, लेकिन उनका चेहरा अगले मुख्यमंत्री का चेहरा बनने की कूवत अभी तो नहीं रखता है।

इसलिए राजनीति शास्त्र का यह पन्ना कहता है कि किसान आंदोलन से उपजी ऊर्जा का पंजाब में सही इस्तेमाल करने के लिए सोनिया गांधी और राहुल-प्रियंका को अभी और बहुत पापड़ बेलने हैं। बुजु़र्ग जाएं। युवा आएं। लेकिन कौन-से बुज़ुर्ग जा रहे हैं और कौन-से युवा आ रहे हैं? किसी भी राजनीतिक दल को उसके पदाधिकारियों की संख्या चुनाव नहीं जिताती है। चुनाव तो मतदाताओं और कार्यकर्ताओं के भाव-पक्ष की देखभाल से जीता जाता है। ज़रूरत तो दरअसल इस शून्य को भरने की है। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)

 

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