मैं अपनी इस अज्ञानता के लिए पहले ही माफ़ी मांग लेता हूं कि एक कोई कपिल कोमिरेड्डी हैं, जिन्हें मैं नहीं जानता, मगर अंतरताना-शोध बताता है कि वे एक महान लेखक हैं, जिन्होंने बड़ी ‘ऐतिहासिक’ क़िताबें लिखी हैं और दुनिया का शायद ही ऐसा कोई अख़बार हो, जिसमें उनके लेख न छपे हों; और इन कपिल साहब ने इस बृहस्पतिवार को भारत के एक अंग्रेज़ी दैनिक में लिखा है कि नरेंद्र भाई मोदी को दो बार जिताने और तीसरी बार भी जीत की तरफ़़ ले जाने के लिए राहुल गांधी और सिर्फ़ राहुल गांधी ज़िम्मेदार हैं। इसलिए उन्हें फौरन कांग्रेस की जान छोड़ देनी चाहिए और शशि थरूर, पी. चिदंबरम या यतींद्र सिद्धारमैया में से किसी को पार्टी की बागडोर सौंप देनी चाहिए।
थरूर, चिदंबरम और सिद्धारमैया की वरिष्ठता, अनुभव, सोच, समझ और बुद्धिमत्ता प्रश्नचिह्नविहीन है। लेकिन कोमिरेड्डी की छलकती गगरी देख कर मुझे उनके भीतर के ज़मीनी अध-जल पर तरस आ रहा है। जिन्हें लगता है कि नरेंद्र भाई और अमित भाई शाह की भाजपा ने राजधर्म के तमाम उसूलों पर डग-डग चल कर रायसीना पर्वत को फ़तह किया और दोबारा फिर फ़तह किया और सोनिया-राहुल-प्रियंका की कांग्रेस इतनी नाकारा निकली कि उन्हें रोक नहीं पाई, उनकी प्रायोजित मासूमियत पर जान छिड़कूं कि क़लम की कमान उठाऊं, आप ही बताइए! कांग्रेस ने दसियों ग़लतियां की होंगी, राहुल में बीसियों ख़ामियां होंगी, मगर जो हमें समझाना चाहते हैं कि नरेंद्र भाई का अवतरण और पुर्नअवतरण किसी स्वाभाविक राजनीतिक प्रक्रिया का हिस्सा है, कम-से-कम मैं तो उनकी चालबाज़ियों में आने से इनकार करता हूं।
जो दिल के साफ़ हैं, सियासी-राजनय के संसार में उन्हें अपरिपक्व समझा जाता है। राहुल गांधी के साथ पंद्रह बरस से यही हो रहा है। वे यह समझ ही नहीं पा रहे हैं कि साम की, दाम की, दंड की, भेद की, ढोंग की, झूठ की, मुखौटे की, छल की, बल की, जोड़-तोड़ की, हाथ की सफ़ाई की, जिस दुनिया का वे चाहे-अनचाहे हिस्सा हैं; उसमें पारदर्शिता ही उनके व्यक्तित्व का सबसे बड़ा अवगुण है। वे इसलिए असफल हैं कि दिल खोल कर ईमानदारी से वह सब कह डालते हैं, जो उन्हें लगता है। राहुल को सफल होना है तो उन्हें सबसे पहले चेहरे पर चेहरा ओढ़ना होगा; कहना कुछ, करना कुछ की महारत हासिल करनी होगी; छुरी बग़ल में, मुंह में राम का रास्ता अपनाना होगा; और, वैसा ही काइयांपन अपनी 42 इंच के सीने के भीतर जगाना होगा, जैसा 56 इंच के सीने में अनवरत खदबदाता रहता है।
मगर राहुल को लगता है कि वे त्रेता और द्वापर तो छोड़िए, सत-युग में सियासत कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि वे कलियुग में भी, ‘मोशा-दौर’ की नहीं, चालीस-पचास के दशक की सियासत कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि वे दलाली और ठेकेदारी मनोवृत्ति से सराबोर राजनीतिक अगलिए-बग़लियों के ज़माने की नहीं, उसूलों के प्रति समर्पित हमजोलियों के दिनों की सियासत कर रहे हैं। लोग कहते हैं कि अब राहुल को यह सब कौन समझाए? लेकिन मेरा कहना है कि राहुल को कुछ समझाने की ज़रूरत ही नहीं है, क्योंकि ऐसा नहीं है कि राहुल को मालूम नहीं है कि मौजूदा दौर इतना मासूम नहीं है। ऐसा भी नहीं है कि राहुल यह नहीं जानते हैं कि वे जिस अवधारणा को गांठ बांधे हुए हैं, स्थितियां उससे ठीक उलट हैं। फिर भी वे अपने तौर-तरीक़े बदलने को तैयार नहीं हैं। इसलिए कि वे सांचों में ढलने को तैयार नहीं हैं और उन्हें यक़ीन है कि एक दिन वे सांचों को बदल कर रख देंगे।
राहुल गांधी को लगता है कि अगर यह उनकी ग़लती है, तो है। जो उनके मानदंडों की राह पर उनके साथ चलना चाहता है, चले। जिन्हें नहीं चलना, वे अपना रास्ता नापें। जो इसे सनक मानें, मानते रहें। जिन्हें वे ख़ब्ती लगते हैं, लगते रहें। राहुल को तो वही करेंगे, जो उन्हें करना है। वे पंद्रह साल से ‘खटोला यहीं बिछेगा’ मुद्रा में अपना काम कर रहे हैं। तो जब वे पंद्रह बरस में नहीं बदले तो अब क्यों बदलेंगे? इसलिए आप कहते रहिए कि उन्हें उत्तर भारत की राजनीति को छिछलेपन में डुबकियां खाते रहने वाला नहीं बताना चाहिए था। आप सोचते रहिए कि उन्हें अगर ऐसा लगा भी कि केरल और दक्षिण भारत की राजनीति मुद्दों की गहराई में जाने वाले स्वभाव की है और उत्तर भारत की सियासत का स्वभाव उतना संजीदा नहीं है तो भी उन्हें ताज़ा हवा के इस झोंके में इस तरह बह नहीं जाना चाहिए था कि दिल खोल कर यूं बाहर रख दिया। मगर दिल की बात को ज़ुबां तक आने से अगर राहुल रोक लें तो फिर उनका जन्म लेना ही अर्थहीन नहीं हो जाएगा? वे तो कह चुके हैं कि उनका जन्म सच के साथ खड़े रहने के लिए हुए हुआ है और अगर ऐसा नहीं कर पाए तो उनके ख़ुद के मन में ही अपने जीवन की समूची सार्थकता को लेकर प्रश्नचिह्न लग जाएगा। इसलिए हिम्मत से सच कहने का बुरा जिन्हें मानना है, मानें। राहुल की बला से!
सियासत में इन्सानियत, अर्थवत्ता, सार्थकता, सकारात्मकता, सिद्धांतों, मूल्यों, पारदर्शिता, वग़ैरह, वग़ैरह की हिफ़ाज़त के चलते 135 करोड़ के देश की 135 साल पुरानी कांग्रेस पार्टी का नाश होता है तो हो जाए। राहुल को इससे कोई लेना-देना नहीं है। जिन तमाम रक्तबीजों से कांग्रेस जन्मी थी, जिनकी रक्षा के लिए अपनी भूमिका का निर्वाह कर रही थी, क्या मरते दम तक नहीं करती रहे? मुझे लगता है कि राहुल की सोच है कि जिन्हें कांग्रेस मृत्युशैया पर पड़ी नज़र आ रही है, वे अपने-अपने स्वर्ग में जाने को स्वतंत्र हैं। कांग्रेस अगर नरक हो गई है तो जिन्हें जहां अपनी जन्नत तलाशनी है, तलाश लें। वो हंस, जो सूखे तालाब में पड़े-पड़े प्राण देने को तैयार हैं, रहें। बाक़ी उड़ जाएं। तालाब में पानी एक दिन तो आएगा। तब तक जिनके प्राण बचे रहेंगे, उनके अप्सरा-स्वप्न शायद पूरे हो जाएं!
सो, राहुल संपूर्ण प्रलय-प्रवाह के बाद एक नई सृष्टि का निर्माण करने का दार्शनिक भाव रखते हैं। आजकल अपने मिलने वालों से वे ब्रह्मा, विष्णु और शिव की कथाओं के ज़रिए प्रतीक चर्चाएं करते हैं। उनके सम्यक ज्ञान को सुनने वाले कभी इस और कभी उस अहसास के बीच से गुज़रते हैं। राहुल की इन संगाष्ठियों के श्रोता ज़्यादातर वक़्त अपने बाल नोचने की छटपटाहट से भरे रहते हैं। इससे ज़्यादा कुछ करने का साहस उनके भीतर है नहीं। होता तो पंद्रह साल में कांग्रेस की क्या यह दशा हो जाती?
मैं 14 साल से कांग्रेस पार्टी में हूं। वनवास की अवधि तो अभी-अभी पूरी हो गई है, लेकिन मैं किस अयोध्या लौटूं? राहुल की कार्यशैली मैं ने भी भीतर रह कर दूर-दूर से देखी है। इसलिए मैं पांच बातें कहूंगा। एक, जिस मूल अवधारणा के आधार पर राहुल अपनी राजनीति करना चाहते हैं, उसमें कुछ भी ग़लत नहीं है। लेकिन इस अवधारणा की मुंडेर पर दीये जलाए रखने वाले हमजोली उनके पास नहीं हैं। दो, कांग्रेस में अर्थवान और जुझारू पैदल-सैनिकों की आज भी कमी नहीं है। लेकिन अपने-पराए की पहचान की राहुल की ज्ञानेंद्रिय पर इसलिए काई जम गई है कि वे अपनी पसंद-नापसंद को लेकर दुराग्रही हैं।तीन, राहुल दूध के जले व्यक्ति की तरह बर्ताव करते हैं और इस चक्कर में उन्होंने अपने आसपास छाछ-ही-छाछ इकट्ठी कर ली है। राहुल को पारंपरिक कांग्रेसजन पर कोई विश्वास नहीं है और जिन पर उन्हें विश्वास है, उनमें से ज़्यादातर का राहुल और कांग्रेस में कोई विश्वास नहीं है। वे सब राहुल की परिक्रमा कर महज़ अधर-सेवा कर रहे हैं। लेकिन कांग्रेस का दुर्भाग्य यह है कि राहुल उन्हें जनम-मरण का साथी समझते हैं।
चार, राहुल पर आर-पार की मनोदशा हावी है और जो राजनीति की परंपराओं के निर्वाह का आग्रह करते हैं, वे उन्हें दो-तीन-चार नावों पर सवार लगते हैं। लेकिन इस वज़ह से फ़र्ज़ी और जनाधारविहीन योद्धाओं की एक पूरी फ़ौज़ राहुल के आसपास जमा हो गई है।पांच, राहुल और प्रियंका पूरे तन-मन से भारत के चिरंतन मूल्यों को बचाने में दिन-रात लगे हैं, अपना काम पूरी शिद्दत और ईमानदारी से कर रहे हैं। लेकिन रणनीतिकारों की अनुभवहीन कूदफांद ने डेढ़ दशक से इच्छित नतीजों को परे ढकेल रखा है।इन पांच घटकों के संशोधित-पंचामृत का पान अगर राहुल-प्रियंका करना शुरू कर दें तो कांग्रेस का स्वास्थ्य बेहतर हो जाएगा। सब को सन्मति दे भगवान! (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक हैं।)
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