May 9, 2020
मैं ऐसे बहुत-से लोगों को जानता हूं, जो छह साल पहले
मानते थे कि भारत को नरेंद्र भाई मोदी से बेहतर प्रधानमंत्री मिल ही नहीं सकता है और
अब मानते हैं कि वे ग़लत साबित हो गए हैं। मैं ऐसे भी बहुत-से लोगों को जानता हूं, जो
एक साल पहले भी मानते थे कि नरेंद्र भाई का कोई विकल्प है ही नहीं और अब बिलख-बिलख
कर अपनी छाती पीट रहे हैं। लेकिन मैं ऐसे भी कई लोगों को जानता हूं, जो चार साल बाद
के लिए भी नरेंद्र भाई पर ही अपना दावं लगा कर बैठे हैं और अब भी यह मानने को तैयार
नहीं है कि उनके आराध्य का तिलिस्म काफ़ूर होता जा रहा है।
मैं छह साल पहले
भी मानता था कि नरेंद्र भाई से कई गुना बेहतर विकल्प मौजूद हैं, मगर यह भी जानता था
कि हवा की दिशा मोड़ दी गई है। मैं एक साल पहले भी मानता था कि नरेंद्र भाई अब कोई विकल्प
रह ही नहीं गए हैं और इस बार दोबारा रायसीना-पर्वत पर उनका विराजना मुश्क़िल है। और,
बावजूद इसके कि दोनों बार मैं मूर्ख साबित हुआ, मैं अब भी मानता हूं कि चार साल बाद
तो नरेंद्र भाई का नामलेवा भी दूर-दूर तक नहीं होगा और वे अपने साथ पूरी भारतीय जनता
पार्टी को ले बैठेंगे।
भारत की सामाजिक
शिराओं में थोड़ा भी दीन-ईमान अगर बाक़ी रह गया हो तो होना तो यही चाहिए। पहली बार एक
महाकाय मायाजाल के झक्कू ने मुझ जैसों को मूर्ख करार दे दिया था। दूसरी बार इस मायावी-रचना
की खुरचन ने पता नहीं किस कंप्यूटर-तकनीक से और भी बड़े बगूले को आकार दे कर मुझ जैसों
को मूर्ख घोषित कर दिया। लेकिन नरेंद्र भाई के ये छह बरस अगर ज़मीन पर सचमुच कोई पैमाना
हैं तो मुझे लगता है कि उनका घड़े में अब एक भी बूंद और समाने की ज़गह नहीं बची है। सो,
ये चार बरस कट जाएं, वही बहुत है।
मैं उनमें से
किसी की भावना को आहत नहीं करना चाहता, जिन्हें नरेंद्र भाई ‘भूतो न भविष्यति’
लगते हैं। आस्था, आस्था होती है।
उसमें तर्क का क्या काम? आस्था को तथ्यों से क्या लेना-देना? दिल किसी से लग जाए तो
फिर परी भी क्या चीज़ है! इसलिए आस्थावानों को आस्थावान बना रहने दीजिए। हालांकि दिल
टूटने का दौर भनभना कर शुरू हो गया है। मगर हर युग में जिनका जन्म चकोरावस्था में होता
है, वे अपने चांद को तकते-तकते ही प्राण तजते हैं। इस युग में भी वे इसी के लिए अभिशप्त
आख़िर क्यों नहीं होंगे? उन्हें चांद के गड्ढों से क्या लेना?
जो इस फेर में
नहीं पड़ना चाहते हैं कि भारत की प्रजा को नरेंद्र भाई से बेहतर प्रधानमंत्री मिलता
या नहीं, वे भी इतना तो पक्का जानते हैं कि प्रधानमंत्री बनने के लिए नरेंद्र भाई को
तो भारत की प्रजा से बेहतर प्रजा कहीं और नहीं मिलती। राजा अच्छा हो, तो भी उसका भला,
और न अच्छा हो, तो भी उसका भला, सोचने वाले लोग इस धरती पर अगर आदिकाल से कहीं हैं
तो भारत में हैं। हम पराक्रम-प्रेमी हैं। हम पराक्रमी और आक्रामक के बीच फ़र्क़ करने
की ज़हमत नहीं उठाते। हमें साहसी और उतावले के बीच अंतर पर सोच-विचार का वक़्त नहीं
है। इसलिए हमें स्वस्फूर्त सर्वप्रियता और इक्कीसवीं सदी की तंत्र-मंत्र क्रियाओं के
ज़रिए लूटे गए जन-समर्थन के बीच की सीमा-रेखा का भी भान नहीं है। ऐसे में हम कहां से
यह समझेंगे कि कोई हमारे सिर पर सवार है या हमने उसे शिरोधार्य किया है?
जिन्हें देखना
ही नहीं है, उन्हें कभी नहीं दिखेगा, लेकिन मैं भारत की प्रजा का यह गदगद भाव बिखरते
देख रहा हूं। अपने राजा पर उनका एतबार अब वैसा नहीं रहा। पिछले साढ़े तीन बरस में अपनी
श्रद्धा पर उनका संदेह लगातार गहरा हुआ है। व्यवस्था की परतें इस दौरान जितनी दरकी
हैं, उतनी पहले कभी किसी साढ़े तीन साल की अवधि में नहीं दरकी होंगी। अच्छे दिनों का
वादा ले कर आई व्यवस्था ने अपना असली चरित्र पूरी तरह उज़ागर कर दिया है। 2016 के नवंबर
से हमारे मुल्क़ ने सहमी हुई मजबूर क़तारों के अलावा कुछ देखा ही कहां है? साढे तीन साल
पहले जो क़तारें हाथ बांधे थमी खड़ी थीं, आज सिर पर गठरी लादे और बाहों में अपने बच्चे
उठाए वही कारवां लड़खड़ाते क़दमों से सैकड़ों मील दूर अपने घर की राह पर है।
आप क्या समझते
हैं, लोग ये दिन भूल जाएंगे? विषाणु को तो आप क़ुदरत या शी जिनपिंग के मत्थे मढ़ देंगे,
मगर अपनी मूढ़ता और कुप्रबंधन को किस के माथे पर पोतेंगे? सब, सब समझ गए हैं। सब के
दीदे कोई फूट थोड़े ही गए हैं। किसी विषाणु को क्या मालूम कि कौन अमीर है, कौन ग़रीब?
उसे क्या मालूम कि कौन कुलीन है, कौन गंवार? ये तो आप ही हैं न, जिसने ग़रीबों को चुन-चुन
कर उसके सामने डाल दिया! ये तो आप ही हैं न, जिसने फूल बरसाने को तो कहा, मगर गर्भवती
स्त्रियों को पांव-पांव अपने गांव जाने छोड़ दिया!
कौन नहीं देख
रहा है कि अगर संवेदना से लबालब समाज-समूह न होते तो मुसीबत के मारों का पता नहीं क्या
होता? ग़रीबों को बांटे जाने वाले सरकारी थैलों में सेधमारी से बाज़ नहीं आने वाले, सड़कों
से गुज़र रहे काफ़िलों को, केले-खाखरे के पत्तों पर खिचड़ी और अचार की फांक उपलब्ध कराने
वालों का मर्म क्या समझेंगे? कौन नहीं देख रहा है कि अस्पतालों का क्या हाल है? वे
कौन हैं, जिन्होंने एक विषाणु से लड़ने का ऐलान करने के बाद बाक़ी गंभीर बीमारियों के
मरीज़ों को उनके हाल पर छोड़ दिया है? वे कौन हैं, जिनसे इन दुर्दिनों में भी चिकित्सकीय
साजो-सामान की ख़रीद-फ़रोख़्त के दलालों को अभय-दान मिल रहा है? इस हाहाकार में भी अपनी
नई राजधानी बसाने की हवस पर काबू नहीं रख पाने वाले कौन हैं?
संसार अब पहले-सा
नहीं रहेगा। अब न वैसे शहर होंगे, न कस्बे और न गांव। विषाणु सब-कुछ जितना बदलेगा,
बदलेगा; बाक़ी सब हमारी प्रशासकीय मूढ़मति ने बदल दिया है। राज-काज में बैठे लोगों के
एक-एक लमहे की ख़ता से हमारे भविष्य का एक-एक दशक सज़ायाफ़्ता बन भटकेगा। इस काल-खंड का
आकलन करते समय भला कौन यह भूल पाएगा कि किसने अपना फ़र्ज़ कैसे पूरा किया था? दिल टटोल
कर तब हर कोई यह कहेगा कि सामाजिक इकाइयों ने तो अपना कर्तव्य पूरा करने में कोई कोताही
नहीं रहने दी, मगर हमारी राज्य-व्यवस्था अपना आपाद्-धर्म नहीं निभा पाई।
अगर हमारी प्रतिरोधी
शक्तियां अपनी पक्षाघाती अवस्था से उबरने को अब भी तैयार नहीं हैं तो चार साल बाद मूर्खता
का प्रमाण पत्र लेने को मैं फिर तैयार हूं। मुझे इसमें कोई लाज नहीं। मुझ जैसों के
लिए तीसरा दीक्षांत समारोह आयोजित करने वाले ही अगर पंद्रह साल में अपने किए-कराए पर
लज्जित महसूस नहीं करते तो इससे मैं क्यों शर्मसार रहूं? उनकी भेडचाल उनके लिए मंगलकारी
हो। लकीरों की फ़कीरी जिनके वश की नहीं है, मैं चार बरस बाद भी उन्हीं के साथ हूं। उनके
साथ नहीं, जिनके आंगन में आहों की, आंसुओं की, ग़मों की, दर्द की, रुसवाइयों की, कोई
क्रद्र नहीं है। मुकुटधारियों की सोहबत से तो ईश्वर के अनाम बाशिंदों की ख़िदमत भली!
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