May 16, 2020
इससे क्या कि कबीर दास जी 1398 में जन्मे थे या
1440 में? इससे भी क्या कि वे इस संसार में 1448 तक थे या 1518 तक? इतना ही काफ़ी है
कि वे थे और उन्होंने हमें साढ़े पांच सौ-छह सौ साल पहले से चेता रखा है कि मरी खाल
की सांस से लोहा तक भस्म हो जाता है। सो, दुर्बल को कभी नहीं सताना चाहिए। मगर सुनता
कौन है? और, आजकल तो सुनने का ज़माना वैसे भी नहीं है।
इन दिनों बच्चे
जैसे हैरी पॉटर, चार्ली ऐंड द चॉकलेट फेक्टरी और एलिस इन वंडरलैंड के साथ बड़े होते
हैं, हम में से ज़्यादातर ने कबीर के दोहों की उंगली पकड़ कर चलना सीखा था। तब किसी
को इस बात से कोई लेना-देना नहीं हुआ करता था कि कबीर किसी मुसलमान जुलाहे की संतान
थे या किसी ब्राह्मण की। सिर्फ़ इतना ही बहुत था कि उन्हीं के ज़रिए हमें यह अहसास हुआ
कि करमगति लाख टालो, टलती नहीं है। और, यह अहसास है कि आज भी भीतर से जाता नहीं है।
मेरे जन्म के
बहुत साल पहले आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने ‘मरी खाल की हाय’
लिखा था। जब मैं दस-बारह बरस का था
तो कहीं से वह पुस्तक हाथ लगी और मैं ने पढ़ी। आज भी याद है कि ‘देहली’
की नई सड़क के गौतम बुक डिपो ने उसे
प्रकाशित किया था। दो रुपए उसकी कीमत थी। तब, जब आटा और दूध एक आने सेर मिलता होगा।
यानी बारह-पंद्रह पैसे किलो। क़िताब की भूमिका में चतुरसेन जी ने कुछ इस तरह की कामना
की थी कि अगर उनकी यह रचना हमारी ‘सामूहिक मर्दानगी’ को जगा सकी तो वे इसे अपना अहोभाग्य मानेंगे।
सो, मरी खाल
की सांस से लोहा भस्म तो हो जाए, मगर मुझे लगता है कि सारा मामला सामूहिक चेतना के
जागरण का है। यह समग्र चेतना जग जाए तो फिर बात ही क्या है! अब पिछले पैंतालीस-पचास
दिनों से जितनी हाय-हाय हमने भीगे नयनों के साथ देखी-सुनी है, आख़िर वह कहीं तो जाकर
लगी होगी! सिर पर घर-बार लादे, सैकड़ों-हज़ारों मील दूर, पांव-पांव अपने गांव जाते, लाखों
बच्चों, बूढ़ों, स्त्रियों और नौजवानों की मरी खाल की सांस-सांस से निकली बद्दुआएं किसी
की चौखट पर तो अपना सिर पीट रही होंगी!
दुआओं का असर
होता है तो बद्दुआओं का भी तो होता होगा। मुझे तो लगता है कि बद्दुआएं दुआओं से शायद
ज़्यादा फलती होंगी, क्योंकि वे जितनी शिद्दत से और दिल की जिस गहराई से निकलती हैं,
दुआएं संभवतः न निकलती हों। मगर एक फ़र्क़ भी है। दुआ इकलौती भी किसी का उद्धार कर देती
है, बद्दुआ जब तक संगठित न हो, व्यर्थ भी जा सकती है। इसलिए चैतन्यता की एकजुटता में
ही किसी भी बदलाव के बीज दबे होते हैं। वे बरसों दबे रह सकते हैं। वे बरसों दबा कर
रखे जा सकते हैं। लेकिन वे एक दिन अपनी क़ब्र फाड़ कर बाहर छलांग लगा देते हैं। एक सुबह
उनकी समाधि टूट जाती है।
जिस दिन ऐसा
होता है, वह दिन क़यामत का होता है। उस दिन सारे मुर्दे ज़िंदा हो जाते हैं। तमाम रूहें
अपनी-अपनी क़ब्रों से बाहर कूद जाती हैं। मुर्दों का ज़िंदा होना खतरनाक होता है। लेकिन
वह इसलिए कल्याणकारी होता है कि उससे एक नई सृष्टि का निर्माण होता है। शिव के समाधि
से बाहर आने पर क्या होता है? भोलेनाथ की समाधि टूटी तो उनकी तीसरा नेत्र खुल जाता
है। ऐसा होना संहारक होता है। यह जो लाखों भोले-भालों को हमारी व्यवस्था ने जंगल-जंगल
बस्ती-बस्ती बंजारा बना कर घुमाया है, क्या वह यूं ही खाली चला जाएगा? जिन्हें यह ख़ामख़्याली
है, वे आने वाले वक़्त का इंतज़ार करें।
राजकाज लच्छेदार
बातों से नहीं चला करता। ऐसा हो सकता तो उत्तिष्ठः-विदूषक कपिल शर्मा मौजूदा दौर में
भारत के सबसे अच्छे शासक होते। ऐसा होता तो चपर-चपर चंचला राखी सावंत आज के भारत की
सबसे अच्छी शासक होतीं। मगर राजकाज किसी तमाशाई-प्रसंग का आयोजन नहीं है। वह तो देशवासियों
के दुःख-दर्द को, हारी-बीमारियों को, समझने और पूरी संजीदगी से उनका समाधान निकालने
का विज्ञान है। तिकड़मों और लफ़्फाजी से अगर यह काम हो सकता तो फिर बात ही क्या थी!
हम सब तो इस
गफ़लत में थे कि छाती छप्पन इंची है। यहां तो ज़ुबान छप्पन इंच की निकली। सो, इस ज़ुबानी
जमा-खर्च ने देश की तंद्रा अब तोड़ दी है। भूख और छालों ने जो नींद उड़ाई है, वह दोबारा
आसानी से नहीं आने वाली। मन की यह टीस अब यूं नहीं जाने वाली। अब यह अपना हिस्सा ले
कर ही विदा होगी। अंतर्मन के घाव पैसों से नहीं भरा करते। जब जी दुखता है तो उसका मरहम
आपका पैसा नहीं, आपका भाव होता है। और, आपका भाव तो देश का दुखा हुआ जी अच्छी तरह समझ
गया है। वह जान गया है कि आपको उसकी नहीं, अपनी पड़ी है।
ग़रीब तो एक शंहशाह
के अधकचरेपन से उपजी मुश्क़िलों में फंस गया। वह देख रहा है कि अब शहंशाह को अपनी रची
मुसीबत से ख़ुद को बचाने की किस क़दर फ़िक्र है? देश भर की लंबी पसरी सड़कों पर ऐड़ियां
रगड़ रहे लाचारों के लिए तो शब्दों के सुल्तान के मुंह से दो मीठे बोल तक नहीं फूटे।
तो ऐसे नासपीटे राज-सिंहासन को वह कब तक पूजे? जब सिर्फ़ चेहरा बदले और राज-सिंहासन
का चाल-चरित्र जस-का-तस रहे तो लुटे-पिटों का सिर्फ़ एक ही फ़र्ज़ रह जाता है कि राज्य-व्यवस्था
की एक नई आनुवंशिकी गढ़ने में लग जाएं। आने वाले दिन मुझे इसी उपक्रम के लगते हैं।
कबीर ने कहा
था कि प्रिय तो तब मिलेंगे, जब तुम अपने घूंघट के पट खोलोगे। दंडवत-मुद्रा में आचमन
ग्रहण करने के दिन अब लद गए हैं। अगर वे अब भी नहीं लदे हैं तो प्रभु भी विविध शरीर
धारण कर सज्जनों की पीड़ा क्या ख़ाक हर पाएंगे? बदक़िस्मती यह है कि सामूहिक चेतना को
जगाने वाले स्वयं ही मूर्छित पड़े हैं। मूर्छा उनका स्थायी भाव बन गया है। उनका अपराध
समय जब लिखेगा, लिखेगा। आज तो स्वस्फूर्त सामुदायिक-सचेतनता का समय है।
यह आराधना-मुक्त
हो कर आत्मनिर्भर होने का वक़्त है। अब किसी की आराधना से कुछ नहीं होगा। न इसकी आराधना
से, न उसकी आराधना से। नकली देवताओं के पूजा-पाठ से निज़ात पा कर अब यह ख़ुद की कुंडलिनी
जागृत करने का वक़्त है। यह प्रपंचियों की लटकाई गाजरों के पीछे चलने का नहीं, अपनी
मुट्ठियां कसने का समय है। बहुतों को अभी नहीं लगता होगा कि देश की आत्मा बेबसी के
खोल से बाहर आ फड़कने लगी है। लेकिन जिनके कान छुक-छुक सुन सकते हैं, वे समझ गए हैं
कि एक धड़धड़ाता हुआ सैलाब अपनी जन्मस्थली से इंद्रप्रस्थ के लिए रवाना हो चुका है।
इसलिए आने वाले
दिनों की प्रतीक्षा कीजिए। उन दिनों की, जो अच्छे कितने होंगे, समय बताएगा, मगर इतने
बुरे नहीं होंगे, जितने इन छह बरसों ने भुगते हैं; उन दिनों की, जिनके बाद भारत के
सामाजिक इतिहास का एक नया अध्याय लिखा जाएगा; उन दिनों की, जब भारत के आर्थिक इतिहास
में नए पन्ने जुड़ेंगे; और, उन दिनों की, जिनमें भारत का राजनीतिक इतिहास तात्विक करवट
लेगा। वे दिन दूर नहीं हैं। मगर वे दिन हाथ-पर-हाथ रख कर बैठे रहने से नज़दीक नहीं आ
जाएंगे।
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