August 22, 2020
पिछले सवा
छह साल से प्रचार-माध्यमों
के शीर्षक-प्रबंधन
में दिन-रात लगी रहने
वाली नरेंद्र भाई
मोदी की सरकार
को, मालूम नहीं,
यह मालूम है
कि नहीं, कि
इन विलासी-शीर्षकों
की खोह में मौजूद ज़मीनी-पतनाला किस
क़दर सड़ांध मारने
लगा है। महामारी
के विषाणु-प्रबंधन
में बुरी तरह
नाकाम रही हमारी
‘हरदिल अजीज़’ हुक़ूमत ने
छह महीने में
तो जो नाश किया, सो
किया ही; भारत
का भट्ठा तो
उसके पहले के तीन साल
में ही वह तक़रीबन पूरी
तरह बैठा चुकी
थी।
नरेंद्र
भाई का वश नहीं चला,
वरना वे अपनी कूद-फांद
से तबाह हुई
देश की अर्थव्यवस्था
की पूरी तोहमत
विषाणु-काल पर मढ़ देते।
मगर शीर्षक-प्रबंधन
की उनकी कलाबाज़ियां
इसलिए ढेर हो गईं कि
विषाणु-कुप्रंबधन से
उपजे हालात के
बादल फट कर हर घर
को, हर दर को, हर
तन को, हर मन को,
ऐसे थपेड़े देते
रहे कि सब की पीठें
सूज गईं। जब हरेक को
नंगी आंखों से
सब सामने दिखाई
दे रहा था तो नरेंद्र
भाई के लारे-लप्पों पर
कौन यक़ीन करता?
शुरुआत में उद्धारक
की मुद्रा में
नमूदार हुए हमारे
प्रधानमंत्री जल्दी ही
समझ गए कि पांसा उलटा
पड़ गया है, सो, वे
ज़िम्मेदारी राज्यों के हवाले
कर विषाणु-प्रबंधन
का अपना झोला
ले चलते बने।
तब तक विषाणु
सब-कुछ लील चुका था।
मंगलवार,
8 नवंबर 2016 को भारत
की कुंडली में
जबरन थोपे गए बदहाली-योग
ने पौने चार
साल में मुल्क़
के मानस को निचोड़ कर
रख दिया है।
खरबपति और खरबपति
हुए हैं, मगर
ग़रीब अपने प्राण-पखेरू किसी
तरह बचाए बैठा
है, निम्न मध्यमवर्ग
बेतरह कराह रहा
है, मध्यम वर्ग
चीं बोल चुका
है और उच्च मध्यमवर्ग भी फटी बनियान के
ऊपर चमकीली कमीज़
पहने भटक रहा है। खोखले
ज़िस्मों की इस बारात को
जो भारत का चमचमाता भविष्य बता
रहे हैं, आपको
उनकी बुद्धि पर
तरस नहीं आता?
नोट-बंदी के
वक़्त देश में पौने पांच
करोड़ लोग बेरोज़गार
थे। आज 14 करोड़
हैं। 50 करोड़ के श्रम-बल
वाले हमारे देश
में सिर्फ़ 5 करोड़
लोग संगठित क्षेत्र
की नौकरियों में
हैं। बाकी 45 करोड़
अपने खोमचों, ठेलों
और टपरों के
भरोसे कमा-खा रहे हैं।
हर चार में से कम-से-कम
एक व्यक्ति का
रोज़गार छिन चुका
है। बाकी तीन
पहले से काफी कम पारिश्रमिक
के बदले ख़ुद
को बा-रोज़गार
बनाए हुए हैं।
सरकार
के आंकड़ों को
ही सही मान लें तो
भी इस साल अप्रैल-मई
के महीने में
बेरोजगारी की दर
का आंकड़ा 24 प्रतिशत
को छू गया था। ज़मीनी
सच्चाई जानने वाले
कहते हैं कि यह दर
35 प्रतिशत से कम
नहीं थी। सरकार
कहती है कि बेरोज़गारी-दर जुलाई
में घट कर 11
प्रतिशत रह गई है। यानी
मई से तक़रीबन
आधी। क्या अपने
आसपास देख कर आपको ऐसा
लग रहा है?
जो सरकार हमें
यह बता रही है, उसी
सरकार के जुलाई
के आंकड़े हमें
बताते हैं कि बेरोज़गारी की सबसे ज़्यादा दर हरियाणा
में है-साढ़े
24 प्रतिशत। दिल्ली में
यह दर साढ़े
20 प्रतिशत है, हिमाचल
प्रदेश में साढ़े
18 प्रतिशत, गोआ में
17 प्रतिशत, उत्तराखं डमें साढ़े
12 प्रतिशत और बिहार
में सवा 12 प्रतिशत।
सरकार का कहना है कि
गुजरात और उड़ीसा
में बेरोज़गारी की
दर जुलाई के
महीने में सिर्फ़
दो-दो प्रतिशत
रही है। कहीं
बहुत है और कहीं बहुत
कम, सो, सरकार
के हिसाब से
बेरोज़गारी-दर तेज़ी
से घटी है और अच्छे
दिन अब बस आने ही
वाले हैं।
विषाणु-काल की
उकताहट कहीं जन-अवसाद में
न बदल जाए,
इसलिए नरेंद्र भाई
ने गलवान घाटी
का छक्का लगा
कर भारत के मीडिया-जगत
को हल्ला-बोल
शीर्षक बख्शे। बहुतों
की भुजाएं फड़कीं,
कइयों के नथुने
फड़के और अनुचरों
के मायूस-मन
फिर बजरंग-मय
हुए। चीन के इंटरनेट-अनुप्रयोगों पर
पाबंदी लगा दी गई। चीनी
कंपनियों को दिए
गए ठेके रद्द
होने लगे। चीनी
सामान को ठोकर मार आत्म-निर्भर भारत
की स्थापना के
नरेंद्र भाई के संकल्प को
पूरा करने में
देश जुट गया।
विषाणु-त्राहिमाम से
ध्यान बंटा तो लोगों को
उससे कुछ राहत-सी मिली
लगने लगी।
मैं भी चीनी
बैसाखियों के बिना
अपने पैरों पर
खड़ी भारतीय अर्थव्यवस्था
के ख़्वाब बुनने
लगा। लेकिन एक
ज़माने में आत्म-निर्भर, और अब पूरी तरह
नरेंद्र भाई पर निर्भर, भारतीय रिज़र्व
बैंक के ताज़ा आंकड़ों ने
मेरा दिल चूर-चूर कर
दिया। एकदम अमृतसरी
चूर-चूर नान की तरह।
ये आंकड़े कहते
हैं कि हम चीन से
हर महीने औसतन
साढ़े तीन खरब रुपए का
सामान आयात किया
करते थे। पिछले
साल सितंबर में
भारत ने साढ़े चार खरब
रुपए से ज़्यादा
का माल चीन से मंगाया
था। इस साल मार्च में
2 खरब 14 करोड़ रुपए
का ही आयात भारत ने
किया और अप्रैल
में भी सिर्फ़
2 खरब 31 करोड़ रुपए
का आयात हुआ।
मगर मई में आयात बढ़
कर फिर 3 खरब
53 करोड़ रुपए का हो गया
है। दूसरी तरफ़,
अमेरिका से होने वाला औसतन
सवा दो खरब रुपए महीने
का आयात मई में गिर
कर डेढ़ खरब रुपए का
रह गया है।
सच्चाई
यह है कि भारत का
इलेक्ट्रॉनिक और दवा
उद्योग तक़रीबन पूरी
तरह चीन पर आश्रित है
और यह निर्भरता
रातों-रात ख़त्म
कर देने का चमत्कार दिखाना नरेंद्र
भाई मोदी जैसे
पराकमी प्रधानमंत्री के
लिए भी संभव नहीं है।
फिर न्यूक्लियर मशीनरी
जैसे क्षेत्रों में
भी चीन पर भारत की
निर्भरता जिस तरह
की हो गई है, उसमें
एकदम रद्दोबदल कर
देना मुमक़िन नहीं
है। इसलिए ठोकने
को हमारी सरकार
कितनी ही ताल ठोकती रहे,
चीन को भारत की अर्थवयवस्था
से पूरी तरह
बाहर खदेड़ने के
लिए जिस सुनियोजित
और दीर्घकालीन नीति
की ज़रूरत है,
उसके तो अभी अंकुर भी
नहीं फूटे हैं।
गिली-गिली गप्पा
का उद्घोष करते
रहने से तो चीनी-ड्रेगन
मंच से गायब होने से
रहा!
जिस देश में
माल की आवाजाही
के लिए बने बंदरगाहों के कारोबार
का एक तिहाई
हिस्सा अडानी-समूह
के निजी कब्ज़े
में हो और जिस देश
में बाहर से सामान आने
और बाहर सामान
जाने का तक़रीबन
आधा व्यवसाय यहां-वहां पसरे
कोई दो सौ लघु-बंदरगाहों
के जरिए होता
हो, उस देश में आयात-निर्यात के बहीखातों
के पन्नों पर
आप कितना भरोसा
करेंगे? गुजरात में
सब से ज़्यादा
छोटे बंदरगाह हैं
और पूरे देश
में जितने लघु-बंदरगाह हैं, उनमें
से ज़्यादातर अडानी-समूह की
डोरियों से संचालित
होते हैं। अडानी
गुजरात के मुंद्रा,
दहेज, हजीरा; गोआ
के मोर्मुगांव; केरल
के विंझिजाम; तमिलनाडु
के कट्टुपल्ली और
उड़ीसा के धमरा जैसे बंदरगाहों
के मालिक हैं।
वे गुजरात में
टूना, तमिलनाडु में
एन्नोर और आंध्र
प्रदेश में वाइजैग
टर्मिनल के मालिक
भी हैं। इन सबसे नत्थी
लघु-बंदरगाहों के
पसरे पैर देख कर आपकी
आंखें खुली-की-खुली रह
जाएंगी।
तीनों
लोक में से दो के
साम्राज्य में अपनी
हिस्सेदारी सुनिश्चित कर लेने के बाद
अब अडानी-समूह
विमानतलों के ज़रिए
आकाश-लोक में भी अपनी
बिसात बिछाने की
तैयारियां कर चुका
है। लखनऊ, अहमदाबाद,
जयपुर, मंगलूरु, तिरुअनंतपुरम
और गुवाहाटी के
हवाई अड्डों के
निजीकरण को नरेंद्र
भाई ने मंजूरी
दे दी है और वे
अपने निर्वाचन क्षेत्र
वाराणसी के अलावा
इंदौर, रायपुर, भुवनेश्वर,
अमृतसर और त्रिची
के हवाई अड्डों
को भी निजी हाथों में
सौंपने की तैयारी
कर रहे हैं।
अगला आम-चुनाव
आते-आते देश के सवा
सौ में से तक़रीबन सभी
प्रमुख विमानतल धन्ना-सेठ हड़प
चुके होंगे।
यह हमारे प्यारे
भारत की ताजा तस्वीर है।
इस पर जिसे इतराना हो,
इतराए। मेरे तो आंसू नहीं
थम रहे।
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