मनहूसियत की तकनीकी विदाई का जश्न तो मरे मन से हम-आप ने बृहस्पतिवार की रात मना लिया। लेकिन बात तो तब बनेगी, जब शुक्रवार से शुरू हुआ बरस हमारे मन को सचमुच उमंगों से भरे। मगर वह भरेगा कैसे? कुदरत दो-चार महीने में मेहरबान शायद हो भी जाए, लेकिन उसकी कृतियों की करतूतों से निजात तो अभी मिलती दिखती नहीं। विषाणु तो चलिए आसमान से आ गया था, मगर उससे अपनी सियासी गठरी मोटी करने वाले सत्ताधीश तो अपनी ही धरती से उपजे लोग थे, उसके (कु)प्रबंधन में अपने हाथ की सफाई से ख़ुद की जेब भारी करने वाले अफ़सर तो अपने ही गांव के बेटे थे और बीमार जिस्मों को नोचने में दिन-रात एक करने वाला चिकित्सा-माफिया तो अपने ही मुल्क़ में पला-पनपा था।
सो, प्रकृति हमें दंडित करना छोड़ भी देगी तो हमारे अपने सहोदर कौन-सा हमें छोड़ने वाले हैं? इसलिए बीस के इक्कीस हो जाने भर से सब बदल जाएगा, ऐसी आस कैसे लगा लें? फिर भी बीस सौ बीस से मुक्ति राहत देने वाली है। बीस सौ इक्कीस का आगमन उम्मीदों की एक मद्धम लौ तो जगाता ही है। और कुछ नहीं तो पदोन्नति का इंतज़ार करते-करते निलंबित हो जाने वाले को अपना निलंबन रद्द हो जाने जैसी राहत तो मिलती लगेगी। कभी-कभी इतना भी बहुत होता है। इत्ते भर से बड़ा संबल मिल जाता है। बीस की विदाई ऐसा ही सहारा है। इसलिए इक्कीस प्रेत-मुक्ति के हवन का वर्ष है।
पिछले बरस हमने आत्मा को झकझोरने वाले दृश्य देखे। संसार का सबसे बेतुका और निष्ठुर लॉकडाउन देखा। अपने बूढ़े मां-बाप और नन्हें बच्चों को पीठ पर लादे सैकड़ों किलोमीटर पांव-पांव अपने गांव जाते लाखों-लाख प्रवासी मजदूर देखे। छप्पन इंची नेतृत्व में एकतरफ़ा चल रही सरकार की असंवेदनशीलता और घनघोर नाकामी देखी। हमारे नागरिक समाज में स्वस्फूर्त कर्तव्यबोध के ऐसे पारंपरिक बीज हैं कि हम हर चुनौती से अंततः पार पा ही लेते हैं। सोचिए, अगर ये स्वयंसेवी संगठन महामारी के दौरान अपने काम में न जुटे होते तो क्या होता? हमारे सुल्तानों ने तो हमारे हाथ से ताली बजवाने के बाद उन हाथों में थाली पकड़ा कर हमें अपने हाल पर छोड़ ही दिया था।
जिस देश में कोस-कोस पर पानी और चार कोस पर बानी बदल जाने की कहावतें हैं, उसके हुक़्मरानों ने विषाणु-प्रबंधन के सारे फ़ैसले, स्थानीयता की अनदेखी कर, दिल्ली से लागू करने में कौन-सी बुद्धिमानी की? नतीजे सामने आने के बाद ख़ुद को दुरुस्त करने में इतने महीने निकल गए कि तब तक सत्यानाश हो चुका था। और, फिर हमारे शहंशाह ने यह रवैया अपना लिया कि जहां सत्यानाश तो वहां सवा सत्यानाश से भी क्या फ़र्क़ पड़ जाएगा? पूरी व्यवस्था जवाबदेही का ठीकरा दूसरों पर फोड़ने में इस हद तक जुट गई कि मीडिया समेत उसके सारे अंग पूरी बेशर्मी से एक समुदाय विशेष की जान के पीछे ही पड़ गए।
मुल्क़ के सामने यह सनसनी परोस देने के बाद हमारे सुल्तान मोर और तोता-मैना के साथ खेलने में व्यस्त हो गए। फिर उनका मनवा ऐसा बेपरवाह हुआ कि उन्हें न सरहदों पर चीन की मौजूदगी की फ़िक्र ने कभी सताया और न निजी अस्पतालों में लुट-मर रहे कोरोना-धारकों ने। वे अपने मन की ढपली हर महीने उसी तरह बजाते रहे, इस-उस बहाने देश के सामने आ कर उपदेश पिलाते रहे। एक तरफ़ दो गज दूरी का आलाप होता रहा और दूसरी तरफ़ खचाखच भरी चुनाव सभाएं होती रहीं। इस कोहराम में धर्म-स्थल बंद रहे, स्कूल-कॉलेज बंद रहे, मगर पूरी धूमधाम से राम मंदिर की नींव रखने का पुण्य लूटे बिना नरेंद्र भाई मोदी नहीं माने।
पिछले साल हमने लोकतंत्र के चीरहरण की एक नहीं, कई मिसालें देखीं। हमारे प्रधानमंत्री ने संसद का शीतकालीन सत्र रद्द कर दिया, मगर नए संसद भवन के निर्माण का भूमिपूजन उनसे सर्वोच्च अदालत भी रद्द नहीं करा पाई। संसदीय व्यवस्था में विपक्ष के चरम अपमान का ऐसा साल पहले कभी नहीं आया होगा। अपने आकाओं को प्रसन्न रखने के लिए पीठासीनों का ऐसा फूहड़ मुजरा किसी और साल ने कभी नहीं देखा होगा। क़ानून बनाने की ठेंगेवादी ऐंठ का ऐसा नंगापन आज़ादी के बाद कभी किसी ने नहीं देखा था।
भारतीय जनता पार्टी की चुनावी मशीनरी के तालठोकू पराक्रम के चलते हार को जीत और जीत को हार में तब्दील होते हमने पिछले बरस देखा। राज्य सरकारों के गिरने-बनने में राज्यपालों को भागीदार बनते देखा। अदालतों के नक्कारखाने में वैयक्तिक स्वातंत्र्य की तूती को विलाप करते देखा। निजी आज़ादी की कीमत पर राज्य-व्यवस्था के शक्ति-प्रदर्शन के जलवे देखे। देश की विरासत को धन्ना सेठों की झोली में जाते देखा। पीएम केयर्स फंड की बेमिसाल झक्कूबाज़ी देखी। संवैधानिक संस्थानों को ढहते देखा। स्थापित परंपराओं की मीनारों को गिरते देखा।
क्या-क्या नहीं देखा? अभिव्यक्ति की आज़ादी का टेंटुआ दबाने के लिए जांच एजेंसियों का निर्लज्ज इस्तेमाल देखा। आतंकवाद विरोधी क़ानूनों का इस्तेमाल विद्यार्थियों, शिक्षकों, लेखकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के खि़लाफ़ होता देखा। 83 बरस के बूढ़े को अपनी फटी बिवाइयों के साथ जेल में चप्पल पहनने के लिए तरसते देखा। और, साल का आख़ीर आते-आते इंद्रप्रस्थ की सीमा पर बर्फ़ीली सर्दी में पड़े किसानों की दुर्दशा भी देखी। ऐसे हर मामले में न्याय की देवी की आंखों पर बंधी पट्टी का सबसे विकराल रूप भी हमारी खुली आंखों ने देखा।
2020 सत्तासीनों की बहुआयामी वासना के प्रेतों के अतिशय पागलपन का साल था। यह सत्ता की चौसर के खानों में चक्कर लगा रहे मोहरों की मूक विवशता का साल था। यह हमारी खुद्दार जवानी की आंखों में मरते आंसुओं का साल था। यह आदमज़ाद के समग्र अस्तित्व की महत्ता को गौण कर देने वाला साल था। यह ज़िंदगी के बुनियादी ख़यालातों को चकनाचूर कर देने वाला साल था।
सो, और कुछ नहीं तो इसी का उत्सव हम नए साल में मनाएं कि हर आहट पर मायूसियों के जगाने वाला पिछला साल अब बीत गया। बहुत कुछ ले कर गया है। लेकिन चला तो गया। नया साल कुछ ले कर आया है कि नहीं, मालूम नहीं, मगर आया तो है। मन बहलाने को यह भी कोई कम नहीं है। इस साल मन जब थोड़ा बहल जाए और कुदरत जब थोड़ी और कृपावंत हो जाए तो मनसा, वाचा, कर्मणा ऐसा कुछ ज़रूर कीजिए कि मुसीबतों में मुंह फेर लेने वाले हुक़्मरानों को कुछ सबक मिले।
2021 का सूरज दिल्ली की सीमा पर डटे भूमिपुत्रों की मौजूदगी में उगा है। सूर्य की इस निष्ठा का, आइए, पुरज़ोर अभिवादन करें। उस निष्ठा में अपने एक-एक दीप की निष्ठा पिरोएं। तब जा कर पिछले साल के झंझावात की कालिख हम पोंछ पाएंगे। ‘अच्छे दिन’ से अगर आप अब भी नहीं धापे हैं तो 2021 में अपने दुर्भाग्य पर बुक्का फाड़ कर मत रोना। हांफते-हांफते आप जिस तरह नए साल की दहलीज़ पर पहुंचे हैं, उसके बाद साल-मुबारक कहने से पहले ज़रा सुस्ता लीजिए। फिर तय कीजिए कि इस साल कुछ ऐसा करना है या नहीं कि साल-मुबारक कहने के बजाय ख़ुद को अपना पहले जैसा हाल मुबारक कहना पड़ जाए? साल तो अपने आप आएंगे, वे तो अपने आप जाएंगे, मगर उनके जाने-आने में आप भी कुछ अपने हाथ-पांव हिलाएंगे या ऐसे ही अनुचर-मुद्रा में खड़े रहेंगे?
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